Anuj Agarwal for BeyondHeadlines
अभी कुछ समय पूर्व हमने उत्तराखंड में प्रलय जैसी स्थिति देखी. प्रकृति का रौद्र रूप शिव के तीसरे नेत्र खुलने की आहट सा था. यह चेतावनी है उन लोगों के लिए जो क्रमबद्ध व्यवस्थित विकास को बेतरतीब, आपाधापी वाले अनियंत्रित विकास में बदल चुके हैं.
पूरे देश की अधिकांश समस्याओं की जड़ में यही कपटी मानसिकता है. देश में एक ऐसा वर्ग पैदा हो गया है जिसे विकास के नाम से ही नफरत हो गई है क्योंकि सत्ता के इर्द-गिर्द ऐसे लोगों का कब्जा हो चुका है जो विकास को लूट का पर्याय बना चुके हैं. विकास के नाम पर सभ्यता की कब्र खोदने वाले ये लोग भाजपा, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों सभी में समान रूप से हावी है और ‘हमारा क्या बिगाड़ लोगे’ की तर्ज पर काम करते हैं. उत्तराखंड में जो कुछ भी हुआ और हो रहा है, उसके पीछे यही विकास की कब्र खोदने वाला माफिया है.
कुछ ऐसा ही भाजपा के अन्दर भी हो गया है. पार्टी के प्रवाह, विकास व स्पष्ट दृष्टिकोण, चिंतन व दर्शन पर एक हठी व सठियाए बुजुर्ग की आड़ में दलालों के एक गुट का ग्रहण सा पड़ गया है. आडवाणी के कंधे पर रखकर बंदूक चलाने वाले सुषमा स्वराज, अनंत कुमार, वैंकया नायडू आदि अपने-अपने तरीके से पार्टी और प्रकारांतर से देश की कब्र खोदने में लगे हैं.
कांग्रेस पार्टी में तो अधिकारिक रूप से आगे वही बढ़ता है जो ज्यादा से ज्यादा चालाक, स्वार्थी, दरबारी मानसिकता वाला और देश की कब्र खोदने वाला हो. ये लोग अन्य सभी पार्टियों में इसी तरह के अधकच्चे लोगों को ढूंढ-ढूंढ कर हड़कंप मचवाते रहते हैं और गुटबाजी, टूट-फुट के कामों में पूर्ण समर्पण के साथ संलग्न रहते हैं. इनके साथ व्यवसायिक/बिके हुए बुद्धिजीवी, पत्रकार, मीडिया तंत्र होता है.
आडवाणी-नीतीश प्रकरण को अंजाम तक पहुँचाने व एनडीए की कब्र खोदने में इस तंत्र की खासी भूमिका है. ये कब्र खोदने वाले अब अन्तर्राष्ट्रीय हो गए हैं. देश का माल हवाला से विदेश में निवेश करने और पुन: हवाला के माध्यम से लाभ के समय देश में वापस लाने के खेल में पारंगत हो चुके हैं. इस काम को अंजाम देते-देते इन्होंने रुपये की ही कब्र खोद दी है. चूंकि पिछले आठ-नौ सालों में अच्छी खासी रकम देश से (40-45 रुपये तक डॉलर की दर पर) बाहर कर दी गई थी, उसमें से चुनाव पूर्व बड़ी रकम वापस चाहिए तो डॉलर के दामों में हेर-फेर कर 25-30 प्रतिशत का मुनाफा कमाना क्या बुरी बात है. अर्थव्यवस्था की कब्र खुद जाये तो इन्हें क्या फर्क पड़ता है.
क्रिकेट इन कब्र खोदने वालों का जाना-पहचान क्लब है जहाँ ये खेल भावना और खेल दोनों की कब्र खोदने पर आमादा हैं. क्रिकेट, सिनेमा, पोर्न व नशे के साथ उपभोक्तावाद का यह मायाजाल पीढिय़ों को नोच-नोच कर खा रहा है, उससे इन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता. ये तो महंगाई, महंगी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं, निम्न स्तर की गुणवत्ता, घटिया व मिलावटी खाने-पीने की चीजों के माध्यम से समाज की ही कब्र खोदने को तैयार बैठे हैं.
कब्र खोदने वालों की एक जमात तथाकथित बुद्धिजीवियों, सिविल सोसाईटी के लोगों, पर्यावरणविदों, समाजसेवियों, आरटीआई कार्यकर्ताओं व जागरूक पत्रकारों की भी है. ये सीधे कब्र नहीं खोदते मगर कब्र खोदने वालों को ज़रूरी सामान असबाव मुहैया कराते हैं. इन्हें प्रत्येक राजनीति दल बढ़ावा देता है. पालता-पोसता है, फंडिंग करता है और चुनावों से एक-दो वर्ष पूर्व इनका इस्तेमाल सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध कर बड़े-बड़े घपलों और घोटालों को उजागर कर जनमानस को अपनी ओर मोडऩे के लिए करता है.
शांति के समय में (चुनाव के बाद के दो-तीन वर्षों) में ये दबाव बनाये रखने व नौकरशाही को नियंत्रण में रखने के लिए इस्तेमाल होते हैं. यूरोप-अमेरिका आदि की फाउंडेशनों से इन कब्र खोदने वालों के सम्बन्ध जगजाहिर हैं. इनके माध्यम से विदेशी सरकारों व बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने-अपने हितों को साधती रहती है.
अब आप ही बतायें जब पूरी व्यवस्था पर इतने सारे कब्र खोदने वाले हावी हो तो ये राष्ट्रवाद, राष्ट्रीयता, भारतीयता, पारदर्शिता, सुशासन, क्रमबद्ध व्यवस्थित विकास, मौलिकता, स्वभाषा-स्वसंस्कृति जैसे बे-सिर-पैर की व्यवस्थाएं क्यों कर लागू होने देना चाहेंगे? ये सारे लोग राष्ट्रवाद की ही कब्र खोद व्यक्तिवाद को स्थापित करने में लगे हैं. कितनी सुन्दर कल्पना है, मैं और अहम् ब्रह्मास्मि. सारे वादों से परे, सारे विवादों से ऊपर कितनी मानवतावादी और अन्तर्राष्ट्रीय भी, हमें ब्रह्मांड तक से जोड़ सकती हैं. तो संकल्प लें और कब्र खोदने वालों के साथ जुट जाएं.