Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
दंगे होते नहीं, कराए जाते हैं. इसकी जांच-पड़ताल बहुत मुश्किल नहीं है. दंगे के पहले और बाद के सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक स्थितियों का एक मोटा आंकलन ही इसका खुलासा कर सकता है. दरअसल, दंगा ब्लैंक चेक की तरह होता है, जिसे हमारे नेता चुनाव में भजा लेते हैं. और जब देश में दंगों की संख्या अचानक बढ़ जाए तो समझ लीजिए कि चुनाव क़रीब आने वाला है.
फिलहाल उत्तर प्रदेश के ‘मुस्लिम हितैषी’ सरकार में मुजफ्फरनगर जल रहा है. और इससे 26 साल पहले कभी हाशिमपुरा और मलियाना भी जले थे… मुजफ्फरनगर की हकीक़त से पर्दा उठने में अभी वक़्त लगेगा, लेकिन इतना तो सब जानते हैं कि गन्ने के खेत से मिठास ही नहीं, ज़िंदगियां कितनी सस्ती होती है, इस हकीकत से भी लोगों का सामना होना है.
सूचना के अधिकार कानून के तहत 26 साल बाद भी जब हाशिमपुरा और मलियाना की हकीक़त जानने की कोशिश की गई तो अखिलेश सरकार के अधिकारी पहले तो जवाब देने से कतराए, लेकिन प्रथम अपील के बाद जबाव तो दिया, लेकिन दंगे की जांच के लिए बने आयोग की रिपोर्ट देने से मना कर दिया.
दरअसल, यूपी की ‘मुस्लिम हितैषी’ सरकार मुसलमानों पर ज्यादा ही मेहरबान है इसलिए तो उनकी सरकार के अधिकारी 26 साल पहले हुए दंगों की रिपोर्ट यह कह कर नहीं दे रहे हैं कि इसको सार्वजिनिक किया जाना जनहित में नहीं है.
BeyondHeadlines ने पिछले 30 अप्रैल, 2013 को उत्तर प्रदेश के गृह, गोपन एवं कारागार प्रशासन विभाग को आरटीआई दाखिल कर हाशिमपूरा दंगे पर बनी ज्ञान प्रकाश कमिटी और मलयाना दंगे पर बनी गुलाम हुसैन कमिटी की रिपोर्ट की फोटोकॉपी उपलब्ध कराने को कहा था. लेकिन तय समय सीमा गुज़र जाने के बाद भी उत्तर प्रदेश के इस विभाग ने अब तक कोई जानकारी इस संबंध में उपलब्ध नहीं कराई जा सकी है. फिर कानून के प्रावधानों के तहत प्रथम अपील की गई. अपील के बाद उत्तर प्रदेश शासन के गृह (पुलिस) अनुभाग के अनु. सचिव सी.एल. गुप्ता का जवाब हैरान करने वाला है.
उन्होंने लिखित रूप में बताया है कि “मलियाना में दिनांक 23 मई, 1987 को हुए दंगों की जांच हेतु कमीशन ऑफ इन्क्वायरी एक्ट-1952 के तहत एक सदस्यीय जांच आयोग का गठन किया गया था. उक्त अधिनियम की धारा- 3(4) की व्यवस्था के आलोक में उक्त जांच आयोग की रिपोर्ट को सदन के पटल पर रखे बिना जांच रिपोर्ट अथवा उसके किसी भी अंश को सार्वजनिक किया जाना जनहित में नहीं है.”
आगे उन्होंने लिखा है कि “जहां तक हाशिमपुरा दंगे के संबंध में मांगी गई सूचना उपलब्ध कराए जाने का सम्बंध है, यह उल्लेखनीय है कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा-8(1) (डी) एवं (एच) की व्यवस्ता के आलोक में मांगी गई सूचना उपलब्ध कराया जाना संभव नहीं है.”
आगे बढ़ने से पहले अब हम आपको बताते चले कि सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा-8(1) (डी) के मुताबिक ऐसी सूचना आपको नहीं मिल सकती, जिसमें वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार गोपनीयता या बौद्धिक सम्पदा सम्मिलित हो, और जिसके प्रकटन से किसी पर व्यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को नुक़सान होता है… (साथ ही इस धारा में इस बात पर भी ज़ोर दिया गया है कि अगर सूचना लोक हित में है तो देने से मना नहीं किया जा सकता.)
वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम-2005 की धारा-8(1) (डी) के मुताबिक ऐसी सूचना आपको नहीं मिल सकती, जिससे अपराधियों के अन्वेषण, पकड़े जाने या अभियोजन कि क्रिया में अड़चन पड़े.
अब यह अखिलेश सरकार या उनके अधिकारी ही बेहतर बता सकते हैं कि हाशिमपुरा दंगे की रिपोर्ट देने से किस व्यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को नुक़सान पहुंच रहा है या वो किन अपराधियों के अन्वेषण, पकड़े जाने या अभियोजन कि क्रिया में अड़चन पड़ने की बात कर रहे हैं?
स्पष्ट रहे कि मई 1987 में उत्तर प्रदेश के मेरठ ज़िले में सांप्रदायिक दंगे भड़कने के बाद 22 मई को शहर के हाशिमपुरा मोहल्ले के 600 से ज़्यादा मुसलमानों को उत्तर प्रदेश पीएसी के जवानों ने हिरासत में लिया था लेकिन इनमें से 42 लोग वापस नहीं लौटे थे.
उत्तर प्रदेश पीएसी पर आरोप है कि उसके कुछ जवानों ने इन लोगों की हत्या कर दी थी. पीड़ितों का यह भी आरोप है कि किसी भी पीएसी जवान या अधिकारी के ख़िलाफ़ अब तक कोई कार्रवाई नहीं की गई है.
इस मामले में मुक़दमा शुरू होने में ही 19 बरस लग गए और इस दौरान पीएसी के जिन 19 जवानों को इस मामले में अभियुक्त बनाया गया, उनमें से 16 ही जीवित बताए जा रहे हैं.
BeyondHeadlines से पूर्व इस मामले से जु़ड़े सरकारी दस्तावेजों को सार्वजनिक करवाने और फ़ाइलों में दबी बातों को उजागर करने के मक़सद से हाशिमपुरा कांड के कुछ पीड़ितों और मृतकों के परिजनों ने 24 मई 2007 को उत्तर प्रदेश पुलिस और गृह विभाग से सूचनाधिकार क़ानून के तहत आवेदन करके इस कांड से संबंधित सभी दस्तावेज़ मुहैया कराए जाने की माँग की थी. पीड़ितों और मृतकों के परिजनों की ओर से राज्य सरकार के पास 615 आवेदन जमा किए गए थे, जिनमें पुलिस महकमे से कई अहम सवाल पूछे गए थे. मसलन, इस हत्याकांड में शामिल पीएसी जवानों के ख़िलाफ़ अभी तक महकमे ने क्या कार्रवाई की है. (इस आरटीआई की रिपोर्ट बीबीसी पर उनके संवाददाता पाणिनी आनंद द्वारा प्रकाशित की जा चुकी है.)
उस आरटीआई के जवाब में उत्तर प्रदेश पुलिस के सीबीसीआईडी विभाग की ओर से जो जानकारी पीड़ित लोगों की मिली थी, उसमें लगभग 19 पन्ने ऐसे थे जिनमें या तो कुछ भी नहीं लिखा था और या फिर इतनी ख़राब प्रतियाँ थी कि शायद ही कोई उन्हें पढ़ सके. और तो और, इस घटना के वर्ष से संबंधित कई कागज़ात जानकारी में शामिल ही नहीं किए गए थे और कई महत्वपूर्ण दस्तावेज़ लोगों को दिए ही नहीं गए थे.
जब इस संबंध में उस समय बीबीसी के संवाददाता पाणिनी आनंद (जो फिलहाल आउटलूक में कार्यरत हैं) ने इस बारे में उत्तर प्रदेश पुलिस के सीबीसीआईडी विभाग के उस समय के महानिदेशक अमोल सिंह से पूछा था कि इस तरह अधूरी जानकारी क्यों दी गई है तो उनका कहना था कि अगर जानकारी मांगने वाले उनके संज्ञान में यह बात लाते हैं तो उसे सुधारने की कोशिश की जाएगी.
जब पाणिनी आनंद ने यह पूछा कि विभाग बिना यह देखे-जाने कि लोगों को क्या और कितनी जानकारी दी जा रही है, कोई भी जानकारी विभागीय मोहर लगाकर कैसे दे सकता है? इस पर उन्होंने कहा, “आप अपने दायरे में रहकर जानकारी मांगें और सवाल करें. आप यह सवाल नहीं पूछ सकते. हाँ, मैं मानता हूँ कि ग़लती हो गई होगी पर इसके लिए अपील करें तो आगे देखूँगा कि क्या किया जा सकता है.”
खैर, जिन पुलिसकर्मियों पर इस हत्याकांड में शामिल होने का आरोप है और जिन्हें इस मामले में अभियुक्त बनाया गया है उनके वार्षिक पुलिस प्रगति रजिस्टर की 1987 की प्रतियाँ देखने से पता चलता है कि विभाग किस ‘ईमानदारी’ से कार्रवाई कर रहा है. मसलन, अधिकतर के लिए लिखा गया था – “काम और आचरण अच्छा है. सत्यनिष्ठा प्रमाणित है. श्रेणी-अच्छा, उत्तम.”
एक अन्य पुलिसकर्मी के लिए लिखा गया है – “स्वस्थ व स्मार्ट जवान है. वाहिनी फ़ुटबॉल टीम का सदस्य है. वर्ष में दो नक़द पुरस्कार व दो जीई पाया है. काम और आचरण अच्छा है. सत्यनिष्ठा प्रमाणित है. श्रेणी- अच्छा.”
कुछ ऐसी ही कहानी मलयाना दंगे की भी है. इसके जांच के लिए बनी गुलाम हुसैन कमिटी की रिपोर्ट आज तक सरकार ने लोगों के समक्ष पेश नहीं किया. सरकार खुद BeyondHeadlines के आरटीआई के जवाब में लिखित रूप में बता रही है कि आयोग के इस रिपोर्ट को सदन के पटल पर नहीं रखा गया है. अब यह देखना दिलटस्प होगा कि इन रिपोर्टों पर सरकार और कितने समय तक कुंडली मारकर बैठी रहेगी?
अगर देखा जाए तो इस पूरे मामले में राज्य सरकार का जो रूख रहा है वह उसके दोहरे चाल, चरित्र और चेहरे को उजागर करती है. और इससे भी मज़ेदार यह कि ऐसा किसी एक दल के बारे में नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पिछले 26 सालों में लगभग सभी दलों ने उत्तर प्रदेश में शासन किया है. लेकिन अब तक इन दंगों के पीड़ितों को कोई भी न्याय नहीं मिल सका है. मुज़फ्फरनगर दंगे की जांच का हश्र का अंदाज़ा तो आप मुलायम सिंह के इसी बयान से लगा सकते हैं कि “ मुजफ्फरनगर व आस-पास के जिलों में सांप्रदयिक हिंसा नहीं बल्कि जातीय हिंसा हुई है.”