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पिचा के मर जाओगे, रात में बुलडोजर चलवा देंगे…

Avinash Kumar chanchal for BeyondHeadlines

चेहरे पर पड़ी झुर्रियां केवल उनके उम्र को बयान नहीं कर रही है, बल्कि उनकी जिंदगी की कहानी बताती है. उस काली मनहूस रात को याद कर जीतलाल की आँखों में आज भी आंसू भर जाते हैं. उस दिन आधी रात को सब साहब लोग की गाड़ी गांव में आने लगी. साहब लोग के साथ कुछ गुंडे तो कुछ पुलिस वाले सभी थे. सबको ज़बरदस्ती घर खाली करने को कहने लगे. चारों तरफ अफरातफरी… बुलडोजर से घर तोड़ने की धमकी देना शुरु कर दिया.

साहब, हमलोग सदियों से कमजोर आदमी रहे हैं. क्या करते बाल-बच्चा को बचाते कि विरोध करते. हमारे खेतों पर बुलडोजर चलवा दिया गया. हरी फसल को मिट्टी में बदलने में तनिक भी दया नहीं आयी इन निर्दयियों को. आज जंगल को कटते-उजड़ते देखते रहते हैं. उधर जाने की हिम्मत नहीं होती- जाते हैं तो कंपनी वाले कहते हैं कि माइनिंग हो रहा है उड़ जाओगे…

जीतलाल जब अपना दर्द बयान कर रहे होते हैं तो सारी संवेदनाएं टूटने लगती हैं. अपनी जंगल-ज़मीन से विस्थापित हो अपने अस्तित्व के लिए लड़ते वे थक चुके हैं. 80 साल के हो चुके जीतलाल वैगा ने अपने जीवन के 78 साल जंगलों में ही बिताया है, लेकिन अब उन्हें विकास के मुख्यधारा में शामिल होने के लिए विस्थापितों के एक कैम्प में ला छोड़ा दिया गया है. दो साल के इसी कैंप में रहकर वे भीख मांगने को मजबूर हैं.

यह हाल तब है जब वे सरकार द्वारा संरक्षित समुदाय के रुप में घोषित वैगा समुदाय के हैं. जीतलाल को इसी सरकार ने उजड़ने और बर्बाद होने को मजबूर किया है. सवाल उठाना मौजूं है कि जब उजाड़ना ही था तो फिर संरक्षित करने का क्या औचित्य? सिर्फ लोकप्रिय दिखावटी वोट बैंक की कसरत के लिए?

story on singrauliजीतलाल वैगा बताते हैं कि यहां इस विस्थापित केन्द्र में आने से पहले उन्हें जंगल से बाहर निकलने की कोई ज़रुरत महसूस नहीं हुई. जंगल ही माई-बाप था. जीतलाल जंगल से बांस, पत्ता तोड़कर लाते थे और उनकी पत्नी टोकरी बनाती थी. अरे, हजारों रुपये तो सिर्फ महुआ और तेंदु पत्ता चुनने से आ जाता- बीच में ही जीतलाल की बात को काटती हुई उनकी पत्नी रामरती कहती है. बाकी जंगल से फल-कंद-मूल खाकर पेट भर जाता था. कभी दवा-दारु के लिए जंगल से बाहर नहीं जाना पड़ा. कोई भी बीमारी हो जंगल की औषधि से ठीक हो जाता.

कभी गांव-घर आए आठ-दस मेहमानों को खुशी-खुशी खाना खिलाने वाले जीतलाल आज अपना, पत्नी और बहु के पेट भरने लायक भी नहीं कमा पाते. वैगा बताते हैं कि आज उनकी जिन्दगी लोगों के दया पर निर्भर है. बड़े साहब लोगों के यहां भीख मांगने जाते हैं.

जीतलाल वैगा बताते हैं कि ज़मीन लेने से पहले उन्हें कंपनी वाले काफी मान-सम्मान देते थे. “दिन भर चच्चा-दादा ही कहते रहे. हमें स्कूल, अस्पताल, कॉलेज, बिजली, नौकरी, पैसा हर चीज के बड़े-बड़े सपने दिखाते. कोई मीटिंग होता तो हमें कुर्सी पर सबसे आगे बैठाते और कहते कि आप लोग मालिक हैं आगे बैठिये… लेकिन आज कंपनी के गेट पर भी फटकने नहीं देते.”

जीतलाल की बात को काटते हुए पास खड़ा नौजवान केशरी प्रसाद गुस्से में जोर-जोर से बोलता है- पूरा देश को हमारे छाती को रौंद कर बिजली जा रहा है, लेकिन हमें ही इस बिजली से मरहूम कर दिया गया है. यहां विस्थापित सेंटर में हमलोग 60 बाय 90 के छोटे-छोटे दड़बों में रहने को मजबूर हैं. ज़मीन लेने से पहले कंपनी वालों ने बायोडाटा जमा करवाया था. लेकिन अब कहते हैं कि नौकरी नहीं है. हम सब पढ़ल-लिखल हैं. अफसर लोग टरकाते हैं. हम कहते हैं मजदूरी ही दे दो साहिब! लेकिन वो भी नहीं देते… कहते हैं टेक्नीकल लोग को देंगे. हमारे गांव के कुछ लड़कों ने टेक्नीकल भी पढ़ रखा है, लेकिन उनको नौकरी देने के नाम पर जगह खाली नहीं रहता. हमारे ज़मीन पर, हमारे संसाधनों पर बाहर के लोग आकर नौकरी-पैसा सब बना रहे हैं और हम बस टुकुर-टुकर लाचार आँखों से देख भर सकते हैं.

नौजवान केशरी यहीं नहीं रुकता… वो बताता है  “कंपनी वालों का विरोध करने पर पुलिस वाला धमकी देने आ जाता है. एक दिन तो विरोध करने के अपराध में छह लोगों को जेहल (जेल) भेज दिया. साहब, पट्टा का अपना ज़मीन था. गेंहू, धान सब उपजा लेते थे बिना किसी सरकारी सिंचाई व्यवस्था के. तो भी कोई गिला नहीं था लेकिन इ सरकार को हमारा सुख देखा नहीं गया.”

मजेदार और विडंबना की बात यह है कि गांव वालों के लिए बने विस्थापित केन्द्रों पर भी सभी गांव वालों के लिए जगह उपलब्ध नहीं है. कई घरों पर रिलांयस में काम करने वाले सुरक्षा गार्डों ने कब्जा जमा रखा है. यही सुरक्षा गार्ड गांव वालों के खिलाफ कंपनी के लठैत का काम भी करते हैं. आदिवासी महिलाओं को हर रोज इन सुरक्षा गार्डों के बदनीयत का शिकार होना पड़ रहा है. “पुलिस क्या कर रही हैं”- जैसे सवाल पुछने का हिम्मत मैं नहीं जुटा पाया.

जिस समय अमजौरी में जीतलाल वैगा जैसे सैंकड़ों लोगों का घर उजड़ रहा था. ठीक उसी समय राष्ट्रीय मीडिया में रिलायंस पावर के शेयरों की चर्चा जोरों पर थी. रिलांयस के  ही पावर प्लांट के लिए जीतलाल वैगा जैसे लोगों को विस्थापित किया जा रहा था. उस समय किसी भी मीडिया ने जीतलाल की कहानी दिखाना गंवारा नहीं समझा. वे तो रिलांयस पावर की उंचे दाम पर बिकती शेयर भाव और मध्यवर्ग के जुए की माफिक शेयर खरीदने की चमचमाती दुनिया को हवाई सपने के साथ दिखाने में उलझे रहे.

ये सभी लोकतंत्र से भी विस्थापित हो चुके हैं. वोट बैंक की राजनीति का लाभ भी यहां के लोगों को नहीं मिल पाता. केशरी बताते हैं कि हमारे ही जाति के नेता यहां से विधायक भी हैं. वो भी आते हैं तो सिर्फ रिलांयस घूम कर चले जाते हैं. ऐसे ही शिवराज सिंह भी कभी-कभी आते हैं और घूम-घाम कर अपनी राह लेते हैं. फिर वोट दीजिएगा- पूछने पर केशरी कहते हैं कि ज़रुर देंगे साहब… हर साल सोच-समझ कर वोट देते हैं, लेकिन बाद में सब भूल जाते हैं. लेकिन फिर भी वोट देंगे- वही तो एकमात्र अधिकार बचा रह गया है न.

कभी 10 डिसिमल की आजाद ज़मीन पर घर बना रहने वाले जीतलाल और केशरी जैसे लोग फिलहाल 90 बाय 60 के घरों में कंपनी वालों के वायदों को पूरा करने का इंतजार कर रहे हैं. जानते हुए भी कि नहीं लगना है कभी पत्तल बनाने वाली फैक्ट्री… नहीं जल सकेगा कभी उनके घरों में बिजली का ब्लब… नहीं जाएंगे कभी उनके घरों के बच्चे स्कूलों में और न ही हो मिल सकेगा कभी इस प्राथमिक अस्पताल में आधुनिक इलाज की सुविधाएं…

विस्थापन की पीड़ा अकेले जीतलाल की ही नहीं है. सिंगरौली से करीब 30 किलोमीटर दूर रिलायंस के पावर प्लांट के बनने के बाद अमजौरी में विस्थापन के बाद बनी बस्ती में सबकी यहीं कहानी है. ये उन लाखों-करोड़ो आदिवासी में शामिल हैं, जिन्हें भारत सरकार विकास के मुख्यधारा में लाने के बहाने विस्थापित कर रही है. विस्थापन सिर्फ जमीन-जंगल से ही नहीं बल्कि उनकी सभ्यता, संस्कृति, रहने के ढंग और जीने के सभी पारंपरिक नियमों से. सरकार इन्हें मुख्यधारा में लाने की बात कहती है लेकिन वे अपने अस्तित्व के लिए जद्दोजहद कर रहे हैं. जीतलाल वैगा के लफ्जों में ही कहें तो- “हम मरब, कउ नहीं बचाई बाबू”

मर जाएंगे तब मिलेगी नौकरी…

‘नौकरी मिलेगी, नौकरी मिलेगी मर जाएंगे तब मिलेगी नौकरी’- हमें देखते ही रामलल्लू वैगा उदास आवाज में पूछते हैं. रामलल्लू को घर का 90 हजार रुपया मुआवजा मिला जिसमें 75 हजार रुपये कंपनी ने घर देने के नाम पर काट लिया. रामलल्लू भी अपना दर्द कुछ यूं कहते हैं- ‘जंगल-ज़मीन  रहे तो साल भर खाने लायक अनाज उपजा लेते थे. अनाज घटे तो लकड़ी-झर्री, महुआ-पत्ता जंगल से लाके गुजर-बसर हो जाता. न कोई दवा-दारु का खर्चा. यहां तो 25 रुपये किलो चावल खरीद खा रहे हैं और एस्बेस्टस के घर में गर्मी से मर रहे हैं’

रामलल्लू अपने घर-गांव को याद करने लगते हैं- ‘मिट्टी का घर रहे लाट साहब! एकदम फैल जगह… कोई पेड़ के नीचे पूरा गांव एक जगह बैठ घंटो बैठकी लगावत रहे, लेकिन अब न पेड़-पौधा है न बैठकी… सब अपना-अपना घर में दुबक समय काट रहे हैं.’

रामलल्लू पूराने दिनों में खोते जा रहे हैं- ‘लकड़ी, मजदूरी खेती, बकरी, महुआ सबसे खूब कमाई होत रहे. नय कुछो त 200 रुपये कमाई हो जात रहे, लेकिन यहां तो हफ्ता भर काम मिलता है तो महीना भर बैठे रहो वाला हालत है. काम मिले तो खाओ और नहीं तो भूखे मरो. पूरखा के ज़मीन से बहुत याद जुड़ल रहल लाट साहब….’

रामलल्लू की पत्नी महरजिया भी उन दिनों को याद करने लगती है जब कंपनी के दलाल गांव का चक्कर काटने लगे थे. महरजिया बताती है कि पूरे गांव ने फैसला किया था कि हमलोग नहीं डोलेंगे. कंपनी एजेंट सब आकर बुलडोजरी लगा देने की धमकी देने लगे. कहते- ‘पिचा के मर जाओगे रात में बुलडोजर चलवा देंगे. बच्चा सबके बचावे खातिर आवे पड़ी. नौकरी का वादा छोड़ दहिन तबो कोई झांके भी नहीं आवत है’

‘न काम धंधा और न जंगल. सरकार तो पहिले भी कुछो नहीं देत रहे और अब जै रहे हमरे पास वो भी छिन लिया. अरे अनाज नहीं मिलता तो महुआ, कंदा खाके ही जी ले रहे थे. हमलोग मरबे करी साहब’ – महरजिया बोलते-बोलते चुप हो जाती है. हां उसकी आँखे बोलने लगती है.

जंगल छूटने के बाद पत्नी हो गई लकवा की शिकार…

बीफालाल वैगा को भी कंपनी वालों से कम दर्द नहीं मिले हैं. अपनी लकवाग्रस्त पत्नी धीरजिया की दो साल से बगल के प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में इलाज करा रहे बीफालाल मानते हैं “जंगल छोड़ने की वजह से उनकी पत्नी को लकवा अटैक हुआ. हमारा सबकुछ लुट गया”

वे दो साल से अपनी बिस्तर पर लेटी पत्नी की देखभाल करते हुए मजदूरी करने को मजबूर हैं. कई बार वृद्धा पेंशन के लिए चक्कर लगा चुके बीफालाल को बस कंपनी, सरकारी अफसरों से आश्वासन भर मिलता है.  फिलहाल उनके पास कागज के नाम पर कंपनी के द्वारा बांटे गए विस्थापित पहचान पत्र है बस. यहां ये सवाल बेमानी हो जाती है कि कैसे एक लकवाग्रस्त रोगी का इलाज प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र में चल रहा है.

पूरी जिंदगी का सौदा केवल तीन लाख…

बस्ती से थोड़ा अलग हट कर एक छत का लेकिन अधूरा मकान दिखता है. इस मकान के मालिक रामप्रसाद वैगा की कहानी इस विस्थापन की सबसे दिलचस्प कहानी है. रामप्रसाद उन कुछ लोगों में हैं जिन्हें घर-जमीन का सबसे ज्यादा मुआवजा मिला. पूरे तीन लाख रुपये. लेकिन मुआवजा से ज्यादा बड़ी कीमत रामप्रसाद ने चुकाई. लगभग 50 बकरी का मालिक रामप्रसाद का परिवार अपने गांव के संपन्न परिवारों में से एक था. खेती, महुआ और बकरी बेचकर लाख रुपये से ज्यादा सलाना की कमाई वाला परिवार. रामप्रसाद को अपनी सारी बकरी बेचनी पड़ी और साथ ही घर का सारा समान भी. यहां तक कि सीडी-टीवी तक सबकुछ….

वे कहते हैं ‘जब जंगल ही नहीं बचा तो बकरी को कहां चराने ले जाते, कहां मुर्गी रखते. करीब डेढ़ लाख की बकरी बिकी, मुआवजे का तीन लाख सब मिलाकर उसने घर बनवाना शुरु तो कर दिया लेकिन बीच में ही पैसा खत्म हो गया. अब तो खाने को पैसे नहीं हैं तो घर कहां से बनेगा साहब’

घर के बने कमरों में मिट्टी तक नहीं भरी है, न खिड़की, किवाड़. न बिजली… हर कुछ आधा-अधूरा… रामप्रसाद बताते हैं कि शुरु में सोचे कंपनी वाला नौकरी का वादा किया है तो पैसा और बढ़ेगा ही. घर बनाने में हाथ लगा दिया लेकिन नौकरी नहीं मिलने से सारा हिसाब खराब हो गया. वो बताते हैं “हमलोग का पूराना बस्ती से रिलांयस कंपनी भगा दिया. हमलोग सीधा-सादा आदमी सोचे कि वादा कर रहा है तो मिलेगा सुविधा. अब ऐसे जगह प्लॉट दिया जहां न घर न हवा न पेड़-पौधा.” अब क्या करें वो सवाल करते हैं. फिर खुद से ही जवाब देते हैं अब लड़ाई करेंगे.

रामप्रसाद कहते हैं कि ‘इतना गर्मी में हमलोग जंगल की ओर चले जाते थे. घूमने-फिरने से लेकर लकड़ी लाने तक. हमेशा जंगल सुबह जाते तो चार-पांच बजे शाम में लौटते.’ उनकी पत्नी अतोरी देवी कहती है “यहां आकर जिंदगी दुख से भरा हो गया. बीमार पड़ते हैं तो डॉक्टर के पास नहीं जा पाते. डॉक्टर के पैसा देंगे कि पेट भरेंगे. पहले जंगल रहता था तो बीमार होने पर भी टहलते-टहलते जंगल से कमाने लायक महुआ-पत्ता बीन लाते थे. दातुन से लेकर सब्जी तक सबकुछ जंगल से ही लाते. चलते-चलते रामप्रसाद हमें कहते हैं “जिन्दगी तो लाट साब, सब गुजारे ला लेकिन हम लोग जिन्दगी के घिसट रहल बा.”

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