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सेक्यूलरिज्म की शीशी में सांप्रदायिकता का ज़हर

Fahmina Hussain for BeyondHeadlines

आजकल बाजार में नकली दवाओं की भरमार है. उसी तरह से सेक्यूलरिज्म की शीशी में सांप्रदायिकता का ज़हर बेचने वालों की भी कोई कमी नहीं है. मुज़फ्फरनगर दंगो के बाद अब वोटों की सियासत हो रही है. राजनीतिक दल के नुमाइंदे दंगा पीड़ित लोगों के पास जाकर उनका दर्द बांटने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल, वो दर्द के तवे पर वोट की रोटियां सेंक रहे हैं.

इन सबके बीच दुखद पहलू यह है कि हमारी मीडिया भी अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों को भूलकर पूरी तरह से सांप्रदायिक हो चुकी है. आज भी मुज़फ्फरनगर के हालात पर मीडिया केवल यही लिखती रही है कि वहां के हालात ख़राब हैं… इतने लोग मर गये या मार दिए गये… किसको कितनी बेरहमी से मारा गया… कैसे उसकी इज़्ज़त तार-तार की गई… लेकिन सच तो ये है कि वहां जिन तक़लीफों से पीड़ित गुज़र रहे हैं, उस पर न तो केंद्र सरकार की नज़र गई और न ही राज्य सरकार को ही इसकी कोई फिक्र है. किसी ने भी स्वास्थ-सुरक्षा, और स्वास्थ-व्यवस्था की बात नहीं की, जबकि हर नागरिक के स्वास्थ की जिम्मेदारी केंद्र तथा राज्य सरकार की ही है. पर अफसोस कि हमारी मीडिया इस मसले पर खामोश रही.

यहां कैम्पों में रहने वाले घूट-घूट कर मर रहे हैं. ऐसी खामोश व भयानक मौत हमने अपनी जिंदगी में पहले कभी नहीं देखी थी. आज भी लोगों के दिलों व दिमाग़ में वह हादसा बसा हुआ है. एक-एक पल की तस्वीरें उनकी आँखों में कैद हैं. हमेशा से साथ मिलकर रहने वाले लोगों ने सपने में भी कभी नहीं सोचा था कि एक दिन ऐसा हश्र होगा.

health problem in roits vistims campखैर, इन्हें बूरे ख्वाब समझकर भूला देने में ही भलाई है. काम की बात यह है कि इस दर्दनाक सांप्रदायिक हिंसा के बाद करीब पचास हजार से अधिक लोग  बेघर हो चुके हैं. जिला प्रशासन ने इन पीड़ितों के रहने-खाने के लिए मुज़फ्फरनगर और पड़ोस के शामली जिले में करीब 45 राहत शिविर लगाए हैं.

विभागीय सूत्रों के मुताबिक इन राहत शिविर में बुढ़ाना में 51, शाहपुर में 47, सदर में 80, चरथावल में 1, बघरा में 39 गर्भवती महिलाएं रह रही हैं. सांप्रदायिक हिंसा में घर-बार छोड़कर राहत शिविरों में रहने वाली गर्भवती महिलाओं को पर्याप्त पुष्टाहार नहीं मिल पा रहा है और ना ही  पर्याप्त भोजन… इससे उनके होने वाले बच्चों के भविष्य का अंदाज़ा आप खुद ही लगा सकते हैं. कितना अजीब है कि एक तरफ कुपोषण रोकने के लिए सरकार मुहिम चलाती है, दूसरी तरफ उनके सामने ही कुपोषित बच्चें जन्म लेने वाले हैं.

बात सिर्फ इतना भर ही नहीं है. इन राहत शिविरों की हालत इतनी बद से बदतर है कि इसे शब्दों में बयान करना मुश्किल लगता है. बात अगर बस्सी कलां कैंप की किजाए तो इस कैंप में 1200 लोग एक साथ रह रहे हैं.  जो न तो स्वास्थ में नज़रिए से सही है और न ही सुरक्षा की दृष्टि से… इसके अलावा जो भोजन इन पीड़ितों में वितरित किया जा रहा है वो पौष्टिकता के हिसाब से भी दोयम दर्जे का है.

कांधला कैंप, शामली में निरिक्षण के दौरान हमने पाया कि वहां जो स्वास्थ-केंद्र कैंप लगाया गया था, उसमें दवाओं के नाम पर सिर्फ दर्द निवारक टैबलेट और हाई एंटी-बायोटिक दिया जा रहा है. साथ ही हैरानी की बात ये है कि वहां कोई भी डॉक्टर, नर्स उपस्थित नहीं थे. बस्सी कलां कैंप के पास स्वास्थ केंद्र में मरहम पट्टी का ना ही कोई सामान था और ना ही डॉक्टर…

तवली मदरसा कैंप, जो कि चार कमरों का एक अर्ध-विकसित मकान है, जिसमें 400 लोग एक साथ रह रहे हैं. जिसमें दो कमरे महिलाओं के लिए है. शौचालय के नाम पर वहां के लोगों ने खुद से ही गड्डा खोद कर इंतजाम कर लिया है, जुगाड़ के नाम पर अगल-बगल से सिर्फ तिरपाल से इसे ढ़क लिया गया है. हैरानी की बात यह है कि इन्हीं चार कमरों में पीड़ितों का  सामान भी है. शौचालय के सटे हुए एक कमरे में जहाँ बर्तन धोने और पीने के पानी का इंतजाम है, जिससे वहां रह रहे लोगों में हैजा, डाइरिया, टायफाईड जैसी कई बीमारियाँ बड़ी आसानी से संक्रमित कर सकती हैं. इतना ही नहीं, इन चार कमरों में कुछ ऐसे भी बच्चे और महिलाएं थीं जिन्हें कई दिनों से बुखार और खांसी जैसी शिकायतें हैं. लेकिन सरकार का झूठा स्वास्थ व्यवस्था इन्हें कोई सुविधा उपलब्ध नहीं करा रहा है. ऐसे में मुझे यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि सरकार ने  इन्हें तील-तील मरने के लिए छोड़ दिया है.

तवली कैंप में एक नवजात शिशु का जन्म हुआ है. उसे जन्म के साथ ही स्किन का इन्फेक्शन हो गया है, जो उसके पुरे शरीर पर फ़ैल चुका है, लेकिन उसके लिए कोई स्वास्थ चिकित्सा उपलब्ध नहीं है, और न ही किसी को इसकी फिक्र… इसके अलावा हिंसा में जितने लोग ज़ख्मी हुए थे, उनमे मासूम बच्चे भी शामिल हैं, वो भी इन्हीं कैम्पों में अपनी ज़िन्दगूी गुज़ार रहे हैं. शबाना नाम की एक 11 वर्षीय बच्ची के सर में चोट लगने से उसके सर में गहरा जख्म हो गया है, जिससे लगातार खून और मवाद का रिसाव हो रहा है. ज़ख्म इतना खतरनाक हो गया है कि वो पूरे सर में भयानक बीमारी का रूप ले सकती है. लेकिन उस पर न तो उसके परिवार का ध्यान है न ही स्वास्थ केन्द्रों का और न ही सरकारी डॉक्टरों का…

कमालपुर कैंप जहाँ 218 हिन्दू दलित परिवार ने आसरा लिया हुआ है. यहां भी देख कर बहुत हैरानी हुई कि इस कैंप में भी बाकी अन्य कैंपो की तरह ही  स्वास्थ-व्यवस्था बिल्कुल न के बराबर है. लेकिन इतना ज़रूर है कि खाने व रहने का अच्छा इंतजाम किया गया है.

अगर जल्द ही स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं पर ध्यान नहीं दिया गया तो इन कैम्पों में कई तरह की बीमारियां फैल सकती हैं. और यह बीमारी जानलेवा भी हो सकती हैं. और हम सब बखूबी जानते हैं कि हमारी सेहत हमारे संतुलित आहार से लेकर जीवनशैली पर निर्भर करती है. वहीं कई बार आस-पास मौजूद परिस्थितियां भी सेहत पर असर डालने लगती हैं. ऐसे में यह सोचना भी ज़रूरी हो गया है कि इन कैंपों में रहने वाले लोगों के सेहत का हश्र क्या होगा…?

ये चिराग़े ज़ीस्त हमदम जो न जल सके तो गुल हो

यूँ सिसक-सिसक के जीना कोई जिंदगी नहीं है

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