Ashutosh Kumar Singh for BeyondHeadlines
दीपावली का त्यौहार जैसे-जैसे नज़दीक आता है मन में स्फूर्ति छा जाती है. ढेर सारे कार्यों की सूची तैयार करने में हम जुट जाते हैं. कई काम तो दीपावली के इंतजार में रुका रहता है. घर की रंगाई-पुताई व साफ-सफाई का काम तो होता ही है. साथ ही उत्सवी उत्साह का माहौल होता है.
दीपावली के महत्व को केवल घर की साफ-सफाई तक मैं सीमित नहीं रखता. मेरा मानना है कि दीपावली हमें अपने अंदर की गंदगी को भी साफ करने का संदेश देती है. हमारे अंदर भी कई तरह के विकार होते हैं. कई तरह के नकारात्मक भाव होते हैं, जो वास्तविक विकास में बाधक हैं. काम, क्रोध, मद, लोभ व दंभ ये वो भाव हैं जो हमारे मानव बने रहने में सबसे बड़ा रोड़ा है. इनके जकड़न में हम इस कदर फंस जाते हैं कि अपने रिश्ते-नातों को ही भूल जाते हैं. अपने कर्तव्य-पथ से विमुख हो जाते हैं.
हमारा यह व्यवहार मानवीय समाज में वैमनश्य व घृणा का भाव भरता है. इससे समाज की खुशहाली पर दुःख के बादल मंडराने लगते हैं. ऐसे में ज़रूरी है कि हम अपने अंदर के नकारात्मक भाव को खत्म करें. मन के अंदर सकारात्मक विचारों का दीप जलाएं. सकारात्मक विचार जब हमारे मन में चल रहे होते हैं, तो कितना आनंद आता है. मैंने महसूस किया है. आप लोगों ने भी महसूस किया होगा. मन में, जब किसी को मदद करने का भाव होता है तो मन बहुत खुश रहता है. इसे कहते हैं ‘देने का सुख’…
वहीं जब मन में किसी के प्रति नकारात्मक भाव उत्पन्न होता है तो मन बहुत हद तक व्यथित होता है. कई बार हम सही मार्गदर्शन अथवा प्रकाश के अभाव में इस नकारात्मक भाव को अपना स्वाभिमान मान बैठते हैं. जबकि स्वाभिमान का मतलब होता है दूसरों का सम्मान करते हुए, खुद को बेहतर समझना.
रामायण-काल से इस पर्व को हम मनाते आ रहे हैं. दुर्भाग्य से आज के परिवेश में दीपावली का स्वरूप बदल-सा गया है. बदलाव को मैं बुरा नहीं मानता. यदि बदलाव सकारात्मक दिशा में हो रहा है तो वह जन-हितकारी है, वहीं अगर नकारात्मक दिशा में हो रहा है तो वह समाज के लिए चिंतनीय है. पहले घी के दीये जलाये जाते थे. घी जलने से पर्यावरण शुद्ध होता था. समय बदला मोमबत्तियों ने जगह ले ली. मिट्टी के तेल से दीपक जलाए जाने लगे. मध्यवर्ग की थाली से ही आज घी गायब है, ऐसे में घी-दीपक की बात ही बेमानी-सी लगती है. लेकिन ऐसा क्यों हुआ? कभी सोचा है आप लोगों ने!
इसके पीछे की सबसे बड़ी वजह है गौ-वंश से बढ़ रही हमारी दूरी. पहले सभी लोग गौ माता की सेवा करते थे. बदले में गौ-माता से प्रसाद स्वरूप दूध, दही व घी प्राप्त होता था. प्रत्येक घर में घी हांडी भरी रहती थी. आज हम अपने मूल से भटके हैं, बहके हैं, जिसका बुरा प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ा है. इतना ही नहीं आज हम इतने भौतिक हो गए हैं कि लाखों रुपये बम-पटाखे छोड़ने में बरबाद कर देते हैं, लेकिन अपने पड़ोस की नन्ही-सी गुड़िया के हाथ में फुलझरियों का एक डब्बा देने में हिचकते हैं, स्टेटस खराब होने का डर सताता है. हद है! अगर हमारे पड़ोस के घर में चूल्हे नहीं जले हैं और हम खुशियों के पटाखे फोड़ रहे हैं तो इसे अमानवीय ही कहा जा सकता है.
त्यौहार, रिश्ते-नाते को जोड़ने का काम करते रहे हैं. दीपावली भी दिल से दिल को मिलाने का पर्व है. जीवन में, घर में व समाज में उजाला फैलाने का पर्व है. आइए हम सब मिलकर खुशियों की दीपावली मनाएं!
(लेखक स्वस्थ भारत विकसित भारत अभियान चला रही प्रतिभा-जननी सेवा संस्थान के नेशनल को-आर्डिनेटर व युवा पत्रकार हैं.)