नियमगिरी : वेदांत के ज़ुल्म की दास्तान… (पार्ट-1)

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Saurabh Verma for BeyondHeadlines

पूरी दुनिया में जल, जंगल और ज़मीन की लड़ाई बहुत बड़े स्तर पर पूंजीपति वर्ग के खिलाफ़ लड़ी जा रही है. चाहे फिर वो विकासशील देशों की फेहरिस्त हो या फिर विकसित देशो की… हर जगह विकास के झूठे मुखोटे को ओढ़कर पूंजीपति इस घिनौने स्वांग को रच रहा है. और यह सब किया जा रहा है सबसे शक्तिशाली बनने को होड़ में… अगर आप यह सोचते है कि सिर्फ़ कुछ देश ही इस रेस में दौड़ रहे हैं तो आप गलत हैं. सिर्फ देश ही नहीं बल्कि बड़े-बड़े पूंजीपति और औधोगिक घराने विनाश की इस अंधी दौड़ का हिस्सा हैं.

आज शक्तिशाली बनने के लिए सबसे ज़रुरी है कि आपके पास असीमित हथियारों का ज़खीरा हो. और उन्हीं हथियारों के निर्माण के लिए पूरी दुनिया में धरती के गर्भ को चीरा जा रहा है. लाखों आदिवासियों, ग्रामीणों को बेघर किया जा रहा है. जिन देशो में इस तरह की विस्थापन परियोजनाएं चलायी जा रही हैं, उनमें शामिल है गिनी, ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीकी देश, जमैका, ब्राज़ील, वियतनाम, भारत और भी न जाने कितने?

पिछले 60 वर्षों में भारत में औद्योगीकरण की वजह से लगभग 6 करोड़ लोग पहले से ही विस्थापित हो चुके हैं. जिनमें से लगभग 20 लाख वंचित लोग उड़ीसा में रहते हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि इनमें से 75 प्रतिशत लोग आदिवासी या दलित हैं.

हक़ की इस लड़ाई में आम ग्रामीण और आदिवासी आदमी अपनी जान की परवाह न करते हुये सरकार, पुलिस, पूंजीपतियों के गुंडों और भारतीय फौज की अमानवीय बर्बरता का शिकार हमेशा होता रहा है.

 कुछ ऐसे ही आदिवासी ओड़िशा की नियमगिरि पर्वतमाला में हैं, जो पिछले 11 वर्षो से अपने ऊपर विकास के नाम पर हो रहे अत्याचारों का विरोध कर रहे हैं. दरअसल, ओड़िशा के जिला रायगढ़ और कालाहांडी के मध्य स्थित है नियमगिरि पर्वत श्रंखला… जहाँ उड़ीसा का सबसे अधिक विवादास्पद और बहुमूल्य बॉक्साइट भंडार है. जबकि इसके आस-पास के जिलों जैसे खण्डधरा और क्योंझर के जंगलों में स्थित पहाड़ो में अत्याधिक मात्रा में लौह अयस्क उपलब्ध है.

दरअसल आज जब पूरी दुनिया विश्वयुद्ध के कगार पर खड़ी है तब हमें समझ आता है कि अमेरिका के साथ कई बड़े-बड़े औधोगिक घराने भी हैं जो हथियारों का व्यापार कर वर्तमान में अपनी एक अलग पहचान बनाने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं. इस पहचान को अंजाम तक पहुंचाने में उनके सहायक है पूरी दुनिया में फैले बॉक्साइट और इसी तरह के खनिजों से लबालब भरे पहाड़ और धरती… बॉक्साइट के शोधन प्रक्रिया के बाद निर्माण होता है एल्युमिनियम का, जिससे बनती है मिसाइलें, बम, लड़ाकू हवाई जहाज़ और भी न जाने क्या-क्या?

एल्युमिनियम का युद्ध से सम्बन्ध उसके पहले संरक्षकों-फ्रांस के नेपोलियन तृतीय और जर्मनी के कैसर विल्हेम तक जाता है. एल्युमिनियम के विस्फोटक गुण का आविष्कार 1901 में हुआ था जब अमोनल और थर्माइट को खोज निकाला गया था. उसके बाद इस धातु ने दुनिया के इतिहास की धारा ही बदल दी.

पहले विश्व युद्ध के दौरान ही एल्युमिनियम कम्पनियों को यह आभास हो गया था कि उनका भविष्य हथियारों और विस्फोटकों के निर्माण के साथ जुड़ा हुआ है. 1930 के आस-पास हवाई जहाज़ों के डिज़ाइन में एल्युमिनियम का उपयोग होना शुरू हो गया और जैसे ही जर्मनी, ब्रिटेन और अमेरिका ने हज़ारों की संख्या में लड़ाकू जहाज़ों का निर्माण करना शुरू किया, एल्युमिनियम कम्पनियों ने बेहिसाब पैसा बनाया. एल्युमिनियम अब भी एक खाली जम्बो जेट तथा दूसरे हवाई जहाज़ों के पूरे वजन का 80 प्रतिशत होता है जिसमें इसे प्लास्टिक के साथ भी यौगिक बना कर इस्तेमाल किया जाता है.

दूसरे विश्व युद्ध में एल्युमिनियम  का उपयोग, मुख्य रूप से नापाम बम समेत, बमों में पलीता लगाने के लिए किया जाता था जिसकी वजह से हवाई हमलों में जर्मनी और जापान में हज़ारों नागरिकों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी. वास्तव में युद्ध सम्बन्धी धातुओं के निर्माण में जो भी खनिज लगते हैं, वे सब के सब उड़ीसा में पाये जाते हैं- लोहा, क्रोमाइट, मैंगनीज, इस्पात के लिए, बॉक्साइट तथा यूरेनियम, सब कुछ…

हिटलर को उड़ीसा के बॉक्साइट खनिज की जानकारी थी और यह एक वजह थी जो उड़ीसा के बन्दरगाहों पर जापान ने बम गिराये थे. अमेरिका में विशालकाय बांधों के निर्माण के पीछे मुख्य कारण एल्युमिनियम स्मेल्टर्स के लिए बिजली की आपूर्ति करना था. ‘पश्चिमी बांधों से पैदा होने वाली बिजली के कारण दूसरा विश्व युद्ध जीतने में मदद मिली थी’ क्योंकि इससे एल्युमिनियम बनाने में मदद मिलती थी जिसका उपयोग हथियारों और हवाई जहाज़ों में होता था.

युद्ध के बाद एल्युमिनियम से होने वाली आमदनी धराशायी हो गई, लेकिन इसमें फिर उछाल आया जब कोरिया में युद्ध शुरू हुआ. उसके बाद वियतनाम और फिर कितने ही युद्ध अमेरिका के उकसाने पर हुए. भारी मात्रा में एल्युमिनियम के उपयोग और उसको नष्ट किये बिना आज न तो कोई युद्ध सम्भव है और न ही उसे सफलतापूर्वक उसके अंजाम तक पहुँचाया जा सकता है. एल्युमिनियम युद्ध में सुरक्षा के लिए भी उतना ही महत्वपूर्ण है. इसकी मदद से लड़ाकू और परिवहन के लिए जहाज़ों का निर्माण होता है. ईराक या अफ़गानिस्तान में दागी जाने वाली हर अमरीकी मिसाइल में विस्फुरण प्रक्रिया में शेल के खोखों और धमाकों में एल्युमिनियम का इस्तेमाल होता है.

दोनों विश्व युद्धों के बीच परदे के पीछे से युद्ध को उकसाने में हथियार बनाने वाली कम्पनियों की भूमिका किसी से छिपी नहीं है.

देश-दुनिया फिलहाल यहीं खत्म करके वापस लौटते है नियमगिरि… जहाँ लंदन मूल की खनन कंपनी वेदांत से बॉक्साइट के इन पहाड़ों को बचाने के लिए वहाँ रहने वाले आदिवासी जिन्हें डोंगरिया कोंध कहा जाता है, पिछले कई वर्षो से लड़ रहे है. और इस लड़ाई में वेदांत का साथ दे रही है राज्य सरकार, प्रशासन और पैसों के बल पर ख़रीदे गए कुछ गुंडे…

आये दिन ये सभी लोग मिलकर कभी डोंगरिया कोंध को कुछ पैसा लेकर, नियमगिरि छोड़ कर चले जाने का दबाव बनाते है तो कभी इस आन्दोलन के सबसे प्रमुख आदिवासी नेता लोधा सिकोका को गायब कर उसकी अमानवीय बर्बरता से पिटाई कर, तो कभी माओवादियों की तलाश के नाम पर पूरे गांव को परेशान कर इस आन्दोलन को कमज़ोर करने की हर संभव कोशिश करते रहते है.

वर्ष 2013 के अप्रैल माह में सर्वोच्च न्यायालय ने ओडिशा सरकार को एक महत्वपूर्ण आदेश दिया. जिसके तहत वह जिला रायगढ़ और कालाहांडी के मध्य स्थित नियमगिरि पर्वत श्रंखला में जाकर वहाँ बसे डोंगरिया कोंध की खनन को लेकर राय जाने एवं ग्राम सभाएँ करायें. इस ऐतिहासिक फैसले के बाद कई राष्ट्रीय एवं अंर्तराष्ट्रीय संघठनो व मीडिया की नज़रे 18 जुलाई से 19 अगस्त तक चलने वाली 12 ग्राम सभाओं पर टिकी रही. जहाँ 30 कि.मी. क्षेत्र में फैले नियमगिरि का भविष्य उसमें रहने वाले लोगों के हाथो में था. एक माह चले इस कार्यक्रम में काफ़ी कुछ लोकतांत्रिक देखने को मिला तो काफ़ी कुछ ऐसा भी था जो प्रशासन और सरकार की तानाशाही को बयान करता था.

(नियमगिरी के लोगों की संघर्ष की कहानी आगे भी जारी रहेगी…) 

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