India

मेरा इंतजार करना मां…

एक साल पूरे होने पर दामिनी का देश-वासियों के नाम पत्र…

Anita Gautam for BeyondHeadlines

मैं देश की एक बेटी, जिसे आप लोगों ने निर्भया, दामिनी तो वीरा जैसे कई नये नाम दे दिये. आज से ठीक एक साल पहले मेरी मृत्यु का इस प्रकार आना, मैंने कभी सपनें में भी नहीं सोंचा था. पर मेरा मरना कोई नई बात नहीं, रोज़ मेरे जैसी अनेक भारत मां की बेटियां पल-पल मरती आई हैं. बस फर्क इतना है कि आज तक आप सब मेरे बाद भी मेरे साथ हैं, मेरे बलात्कार के बाद, मेरे माता-पिता के दर्द के साथ और अब मेरी उस राख के साथ जो अब न जाने गंगा की धारा में बहते हुए कहीं दूर चली गई है…

16 दिसम्बर की रात से पहले आप लोगों के साथ मेरी कोई जान-पहचान तो नहीं थी और न ही कोई रिश्तेदारी… पर शायद मैंने आपके किसी परिजन को अपने फिजियोथैरेपी के हुनर से ठीक किया हो. आप तो रायसीना की पहाडियों पर पुलिस की लाठियों के बीच पानी के बौछारों और आंसू गैस के गोलों के बीच में भी मेरा साथ मेरी सांस थमने के बाद भी देते रहे, पर इस साथ के लिए धन्यवाद करूं या उस रात किसी ने मेरी मदद नहीं की इस बात पर रोष प्रकट करूं?

क्या वो इत्तेफाकन ही था जब मेरे अस्पताल पहुंचने से आप लोग एक बार ही सही, इकठ्ठा तो हो गए थे… पर काश! उस रात आप में से कोई एक ही मुझे सहारा देने के लिए आ जाता, तो शायद ये दिन न देखना पड़ता. खैर! मुझे इसका संतोष है कि मेरे मरने से मैं कुछ बदलाव तो कर पाई. मेरी आंखें बंद होने से आप लोगों की आंखें तो खुली. सदियों से जो आंखे सूखी हुई थी अब तो नम हुई.

पर आज भी यही कहूंगी कि इन बेशर्म सांसदों, विधायकों और ब्यूरोक्रेट्स को संभाल लो, संभाल लो पुलिस को जो आजाद भारत में आजादी के इतने सालों बाद भी आजादी का अर्थ तक नहीं समझ पा रहे हैं और देश को अपने बाप की बपौती मानकर जेब में रखकर चल रहे हैं.

मुझे अफसोस है कि जिस देश के मंत्री, नेता, राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री की भी बेटियां हैं वो इसका बखान मेरे बलात्कार के बाद कर रहे हैं. उस देश के उन जगहों का क्या होगा, जहां मेरी जैसी बेटियों के बाप किसी बड़े पद पर नहीं होते? आज जब लोग मेरे मम्मी-पापा को अपनी सभाओं में बुलाते हैं तो मंच पर खड़े हो एक मिनट का मौन करवाते हैं, पर मेरी मां यकीनन सोचती होंगी, ये सभाएं कब हमेशा-हमेशा के लिए समाप्त होगी और कब लोगों की चुप्पी टूटेगी?

जिस आंचल से मां मेरा पसीना पोछा करती थी वो आज सभाओं में आंसु पोछते हुए आप लोगों का साथ देने के लिए धन्यवाद करती हैं और अपनी पैदा की हुई बेटी को खोने के बावजूद देश की तमाम बेटियों की मां बन, हर मंच पर उनकी रक्षा की मांग करती है तो पापा चुप बैठ मन ही मन रो लेते हैं और छोटा भाई, उसे लगता है काश मैं भी रावण होता…

मेरे मरने के बाद देश भर के लोग लगे हैं ज्ञान देने में… और अब जब मैं नहीं रही तो वो लोग जानना चाहते है मेरे घर के बारे में, मेरे मां-बाप के बारे में, मेरे बचपन के बारे में और तो और मेरे उस दोस्त के बारे में, जिसने बुरी तरह घायल होते हुए भी मुझे बचाने की लाख कोशिश की और फिर अपनी बातों में दोस्ती के पवित्र रिश्तों में न जाने क्या-क्या अनुमान लगाने बैठ जाते हैं… उन बलात्कारियों ने तो मेरे साथ जो किया सो किया, लोग बार-बार उस घटना के बारे में और उस बस की फुटेज को अपने फेसबुक वाल पर लगाये आज मेरी बरसी मना रहे हैं. तो दिखाने के लिए सड़को पर आज बेरिकेट्स लगा दिये हैं, पुलिसवाले ऐसे गश्त कर रहे है मानों आज 26 जनवरी हो, पर उस दिन ये पुलिस वाले वो पीसीआर वैन कौन से नेता की पार्टी में तैनात थे?

मीडिया को मेरी वो फुटेज तो मिल गई, क्राइम पेट्रोल ने दो एपिसोड बना दिए तो बनने को एक कहानी बन गई पर जब मैं बुरी हालत में सड़क पर पड़ी थी तब कोई भी मेरे पास नहीं आया आखिर क्यों? पर भला हो, उस मानुष का जो मेरे तन को ढ़क कर, हिम्मत करके हॉस्पिटल ले गया.

हमेशा पल्ला झाड़ने वाली सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों से दूर करते हुए मुझे मेरी मातृभूमि से दूर सिंगापुर भेजने लगे तो मुझे भी लगा कि शायद मेरी सरकार मेरा भला ही चाहती होगी. इसलिए मुझे ईलाज के नाम वहां भेजा जा रहा है… मन में बचपन से गाए हुए गीत-सारे जहां से अच्छा हिन्दुस्तान हमारा, बहुत याद आ रहा था…

ऐसे मन्त्र भी मां ने बताये थे जिसमें  स्त्री को मां बहन और भार्या के साथ देवी के रूप में पूजा जाता है पर उस 16 दिसम्बर की काली रात मुझे मालूम चला कि यह तो कलियुग है. अगर इस युग में कुछ अच्छा होता तो शायद वो जिसने मेरे साथ ऐसा किया था वो किसी का बेटा या भाई, मुझे बहन मान लेता और मेरे मित्र सहित मुझे ठीक से मेरे घर तक पहुंचा देता… पर नहीं, क्योंकि यह तो कलियुग है न…

बार-बार सोचती हूं कि आखिर मैं भी तो और छात्रों की तरह दिल्ली में सिर्फ पढ़ने आई थी. फिजियोथेरेपिस्ट बन कर अपंगता को दूर करने आई थी. पर मुझे क्या पता था इस देश का हर इंसान अपंग अपाहिज के साथ-साथ मानसिक रूप से भी विकलांक भी है. देश के नेता, बड़े पदों पर बैठे लोग, पुलिस कानून और प्रशासन सब लाईलाज रोग की चपेट में आ गए हैं.

बावजूद इसके कि सरकार मेरे मरने का बेसब्री से इंतजार कर रही थी तो जैसे बदबु से बचने के लिए किसी मरी मछली को निकाल फेंक दिया जाता है, ठीक वैसे ही हवाई जहाज़ से उतार मेरे सभी रिश्तेदारों के आने से पहले ही फटाफट मेरा अंतिम संस्कार कर मुझे राख में मिला दिया गया…

क्या यह सच में वही देश ही है न, जहां इंदिरा गांधी और प्रतिभा पाटील जैसी प्रधानमंत्री राष्ट्रपति और कई महिला मुख्यमंत्री हुई  हैं? पर वो ऐसे बड़े पदों पर बैठ कर भी हम लड़कियों के लिए कुछ न कर सकी तो यह मूक और कठपुतली बने प्रधानमंत्री मेरी मदद क्या खाक करेंगे?

और बेचारे महामहिम वो क्या करेंगे, जो अपने बेटे तक को काबू में नहीं रख सकते, तो मैं महिला होने के नाते किसी महिला सांसद से भी क्या उम्मीद लगाऊं? वो तो सरेआम मुझे हौले-हौले 6 लोगों के साथ चुपचाप रेप करवाने की सलाह देने लगी. पर क्या वो औरत अपनी बेटी या बहन को भी यहीं सलाह देती, जो मुझे मरते के बाद दे गई? और एक बाबा भी तो थे न, जो मेरे मरते समय अपने वचनों में बोल रहे थे कि मैं उन हैवानों का पैर पकड़ कर भैया बोल देती तो वो मुझे छोड़ देते तो फिर ऐसे आदमी ने तमाम बच्चियों तक को अपनी हैवानियत का शिकार क्यों बनाया, जो उन्हें बाबा-बाबा बोलती थी?

अच्छा हुआ कुछ लड़कियों ने अपना मुंह तो खोलना शुरू किया. परिणामस्वरूप जो लोग बहुत बाबा बने फिरते थे, आज खुद यौन शोषण में लिप्त हो जेल की हवा खा रहे हैं…

सांस की नली से लेकर तमाम इंजेक्शनों से गोदा हुआ मेरा वैंटिलेटर पर पड़ा शरीर इन हैवानों की बस्ती से दर्द से कराहते हुए, पल-पल जीते-मरते, रोते बिलखते मैं तो चली गई पर मेरे देश की लड़कियों… तुम तो अब जागो और विरोध करो. उखाड़ फेंको ऐसी व्यवस्था को ऐसे असंख्य तरूण तेजपाल, अंबूमणि त्रिपाठी तो कांडा जैसे हत्यारों को…

तुम क्यों आत्महत्या करती हो? तुम कोई दोषी नहीं. तुम इस समाज का नव निर्माण करने वाली मां-बहन-बेटी हो. ऐसे रीति-रिवाजों को छोड़ दो जो तुम्हें इंसान होने से भी रोकते हैं. ये लोग तुम्हें सिर्फ उपभोग की वस्तु मात्र ही मानते है और बर्तन धोने वाले साबुन, फिनाइल से लेकर मर्दों को गोरा करने वाली क्रीम यहां तक की मर्दाना कमजोरी समाप्त करने वाली कैपसूल तक के विज्ञापन में सिर्फ तुम्हारा ही इस्तेमाल करते हैं. विरोध करो इन विज्ञापनों का जो तुम्हें नग्न अवस्था में दूसरे के सामने परोसते हैं.

तुम्हें मेरे गुनाहगारों को ही नहीं बल्कि पूरे देश को बदलना है. उन लोगों को बदलना है जो लोग मणिपुर में नग्न प्रदर्शन कर रही महिलाओं को जिज्ञासा से देखते हैं. नक्सलवाद के नाम पर महिलाओं को थानों में गिरफ्तार करके सामूहिक बलात्कार करते हैं. जो विधायक बलात्कार के बाद जान से मार कर टुकड़े-टुकड़े तक कर फेंक देते हैं. यहां तक कि जो लोग अपनी पत्नी के साथ जबरन बदसलुकी करते हैं. उन्हें मारते-पिटते और गंदी-गंदी गालियां देते हैं.

7 फेरों के बंधनों को भूल अपनी पत्नी को शादी की पहली ही रात अपने दोस्तों के हवाले तक कर देते हैं. तुम्हें ऐसे पड़ोसियों को भी जड़ से उखाड़ फेकना है, जो तुम्हारी 4 साल की गुडि़या जैसी फुल सी कोमल बच्ची के साथ माली से भी बद्तर सलुक करते हैं और अब क्या कहूं और क्या ना कहूं. मेरी बहनों तुम्हें ऐसे समाज को बदलना है. अपने पिता, भाई, पति और पुत्र की सोच को बदलना है…

ऐसे समाज के सामने जिंदा रहने से बेहतर अच्छा ही हुआ मैं मर गई. जिन्दा रहती तो जिंदगी भर पल-पल मरती… कोई भी मुझसे शादी नहीं करता, कोई मुझे नौकरी नहीं देता, हो सकता है मैं आगे की पढ़ाई भी पूरी न कर पाती…  तब मैं क्या मेरे घर वाले और खासतौर से मेरी मां भी हर क्षण मरती क्योंकि मां ने तो जन्म से ही मेरी शादी के सपने देखे थे. मुझे अपने हाथों से दुल्हन बनाकर लाल जोड़े में विदा करना तो दूर एक साल पहले मेरी लाश पर सफेद कफन ओढ़ाए रो रही थी…

और मेरे पापा, खुब मेहनत करके अपनी तनख्वाह में से मेरी पढ़ाई के लिए पैसे निकालते थे. पापा और भैय्या चाहते थे कि  मैं देश में अपंगता दूर करूं.  शायद उनकी सोच सही ही थी. मैं आज आप लोगों के साथ मिलकर अपंगता को दूर कर रही हूं और बस अब आप सबको इंसानियत के एक सूत्र में पिरो गई हूं. अच्छा हुआ, मैं मर गई…

लेकिन बस, अब मेरे नाम पर सियासत करना बंद करो. आनन-फानन में मेरे नाम के कई करोड़ो के फंड बना कर ठण्डे बक्से में डाल भूल गये उस बक्से को… पर अब तो कुछ ऐसा करो कि इस देश से ये पितृ सत्ता खत्म हो जाए जिसमें सब रंगे हुए हैं.

मेरी बरसी पर यह खत लिखकर कुछ सुकून महसूस कर तो कर रही हूं पर मलाल इस बात का है कि काश कि मैं अपने देश में अंतिम सांस ले पाती. भारत माता की लाड़ली मैं, सीता, सावित्री और द्रोपदी के देश में जी पाती. जीना तो हो नहीं पाया कम-से-कम इस धरती पर ही मर जाती, खैर…

अब आगे क्या बोलूं, अंत में मैं मेरे घर वालों से मांफी चाहूंगी कि मैं आप सबके सपने पूरे नहीं कर पाई… मैं एक आम लड़की, एक फिजियोथेरेपिस्ट का कर्ज अपने सर पर लिये हुई ऐसे ही इस संसार से न्याय की मांग करते हुए चली गई और न जाने कब तक न्याय की मांग करती रहूंगी? न जाने और कितनी दामिनीयों का दामन मेरी तरह लूटता रहेगा, न जाने कब तक आप लोग जंतर-मंतर पर सर्द रातों में भी मोमबत्ती थामे पुलिस के लाठी, डंडों और वाटर केनन से चोट खाते हुए न्याय की हुंकार भरते रहेंगे? और तो और ये फास्ट ट्रैक कोर्ट और न्याय के लिए नीचे से उपर की कोर्ट का सफर कब तय होगा?

मैं यह भी नहीं चाहती कि वो मनचले टाइप लड़के मोमबत्ती थामे लड़कियों को सुरक्षा देने के नाम पर झुठा पाखंड करें और मोमबत्ती बुझते ही किसी काली रात में गाडि़यों में लगे काले शीशों के बीच फिर से वही सब करें जो मेरे साथ किया… मैं कभी नहीं चाहती कि फिर से किसी दामिनी या निर्भया का नाम लोग अपने मुंह पर लाएं. मैं चाहती हूं सब लोग महिलाओं का सम्मान करें… मेरी प्यारी मां, मैं वादा करती हूं कि अगली बार फिर तेरी ही कोख से इसी देश में जन्म लूंगी और फिर दुर्गा और काली बनकर बताउंगी कि लड़की होना क्या होता है…

मेरा इंतजार करना मां.

तेरी प्यारी बेटी दामिनी…

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