अदालतों में बढ़ रहा है साम्प्रदायिक तत्वों का हस्तक्षेप -मो. शुऐब

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BeyondHeadlines News Desk

लखनऊ : रिहाई मंच ने इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ बेंच द्वारा आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाहों की रिहाई के मामले में दिए गए इस आदेश कि बिना केन्द्र सरकार की अनुमति के अभियुक्तों को नहीं छोड़ा जा सकता, को त्रुटिपूर्ण बताया है.

रिहाई मंच के अध्यक्ष अधिवक्ता मोहम्मद शुऐब ने कहा कि 321 सीआरपीसी में साफ कहा गया है कि केन्द्र सरकार की अनुमति सिर्फ उन्हीं केसों में होती है, जहां अपराध की विवेचना दिल्ली स्पेशल पुलिस स्टेबलिशमेंट एक्ट द्वारा की गई हो, या वो अपराध जिसके द्वारा केन्द्र सरकार की सम्पत्ती को नाश किया गया हो या नुक़सान किया गया हो, या फिर वे अपराध जिसे केन्द्रीय सेवा में रहते हुए किसी व्यक्ति द्वारा अपने पदीय कर्तव्यों के निर्वहन के दौरान किया गया हो. इसके अतिरिक्त कोई भी ऐसा अपराध नहीं है जिसे सरकारी वकील जो उस मुक़दमें को देख रहा हो, प्रदेश सरकार की अनुमति से वापस नहीं ले सकता है.

उन्होंने कहा कि यदि उत्तर प्रदेश राज्य द्वारा सीआरपीसी में यह संशोधन नहीं किया गया होता, जिसके तहत किसी मामले का इंचार्ज जो लोकअभियोजक या सहायक लोकअभियोजक होता है, निर्णय सुनाए जाने से पहले किसी भी वक्त न्यायालय की सम्मति से मुक़दमा वापस ले सकता है, तो प्रदेश सरकार की अनुमति की भी ज़रुरत मुक़दमा वापसी में नहीं होती. ऐसे मामले में सरकारी वकील खुद अपनी मर्जी से उन मुक़दमों को अदालत की सहमति से वापस ले सकता है, लेकिन ऐसा इस मामले में पब्लिक प्रोसीक्यूटर ने जान बूझकर नहीं किया ताकि बेगुनाहों की रिहाई कानूनी दांव-पेंच में उलझ जाए.

उन्होंने कहा कि उपरोक्त फैसले में उच्च न्यायालय ने उत्तर प्रदेश द्वारा 1991 में सीआरपीसी में किए गए संशोधन और धारा-321 के परन्तुक (प्रोविजो) पर सही से विचार नहीं किया है, इसलिए अगर सपा सरकार सचमुच आतंकवाद के नाम पर कैद बेगुनाह मुस्लिम युवकों को छोड़ना चाहती है, तो वह उच्च न्यायालय के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकती है.

मंच के अध्यक्ष मोहम्मद शुऐब ने कहा कि उच्च न्यायालय के इस फैसले के आने के बाद भी सीआरपीसी में दी गई प्रक्रिया के अनुसार सरकारी वकील नए सिरे से प्रदेश सरकार की अनुमति प्राप्त करने के बाद संबन्धित न्यायालय में मुक़दमों की वापसी के लिए प्रार्थना पत्र दे सकता है.

रिहाई मंच के नेता व इलाहाबाद हाईकोर्ट के अधिवक्ता राघवेन्द्र प्रताप सिंह ने कहा कि सरकार के लिए पहले भी यह रास्ता खुला था और आज भी खुला है कि वो इस तरीके के सारे मुक़दमों की अग्रिम विवेचना कराए, जिसके लिए पर्याप्त आधार भी मौजूद हैं. मसलन आर.डी. निमेष ने कचहरी धमाकों के आरोपियों तारिक़ और खालिद की गिरफ्तारी को संदेहास्पद बताया है और उन्हें फर्जी तरीके से आतंकवाद जैसे गंभीर आरोप में फंसाने वालों को चिन्हित कर उनके खिलाफ कार्यवाई की भी सिफारिश की है. इलाहाबाइ हाई कोर्ट के अधिवक्ता ने सपा सरकार पर आरोप लगाते हुए कहा कि वो एक तरफ निमेष कमीशन रिपोर्ट को कोर्ट में तो पेश करती है, पर उस पर अमल करते हुए दोषियों के खिलाफ कार्यवाई करने से भागती है, उसकी इसी कमजोर इच्छाशक्ति के चलते ही पुलिस व आईबी का हौसला इतना बुलंद हो गया कि 18 मई को बेगुनाह मौलाना खालिद की हत्या कर दी गई.

रिहाई मंच के प्रवक्ता शाहनवाज़ आलम व राजीव यादव ने कहा कि न्यायपालिका को इस जनहित याचिका में उद्धृत तथ्यों को स्वंय तार्किक तरीके से परखकर ही स्वीकार करना चाहिए था, जो उसने नहीं किया. मसलन याचिकाकर्तओं ने माननीय न्यायालय को गुमराह करने के उद्देश्य से याचिका में कहा है कि सपा ने विधानसभा चुनाव के दौरान कहा था कि अगर वो सत्ता में आएगी तो आतंकवाद के आरोपियों पर से मुक़दमें हटा लेगी. जबकि सच्चाई यह है कि इस मसले पर वादा खिलाफी करने वाली सपा ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में बेगुनाह आरोपियों को छोड़ने की बात कही थी.

इसी तरह याचिकाकर्ताओं के मुस्लिम विरोधी सांप्रदायिक जेहनियत का अंदाजा इससे भी लग जाता है कि अगली ही पंक्ति में याचिका में कहा गया है कि इस वादे के बाद मुसलमानों की भावनाएं बढ़ीं और ऐसे मुसलमानों ने भी जिनका इन हमलों से कोई मतलब नहीं था ने इस पार्टी को अपना नैतिक समर्थन दिया और सपा सत्ता में आ गई. जिससे साबित होता है कि याचिका कर्ताओं ने पूरे मुस्लिम समाज को आतंकवाद का नैतिक समर्थक बताने की कोशिश की है. ऐसे में यह शर्मनाक घटना है कि सांप्रदायिक विद्वेष से पूर्वनियोजित याचिका को हाईकोर्ट ने कैसे स्वीकार कर लिया जो अदालतों में तेजी से बढ़ते सांप्रदायिक तत्वों की घुसपैठ को दर्शाता है.

माननीय उच्च न्यायालय को इस याचिका को स्वीकार करने से पहले माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा ऐसे ही मामलों को लेकर सार्वजनिक टिप्पणी करने को मजबूर होना पड़ा था, कि किसी बेगुनाह मुस्लिम नौजवान को आतंकवाद के झूठे मामले से बरी होने के बाद यह न कहना पड़े ‘‘माई नेम इज खान, बट आई एम नॉट टेररिस्ट’’ पर गौर करना भी मुनासिब नहीं समझा.

रिहाई मंच के प्रवक्ताओं ने कहा कि इसी तरह याचिका कर्ताओं द्वारा अपने पक्ष में पूरे देश भर में हुए आतंकी हमलों के जिक्र जिसमें संकट मोचन, पूणे, हैदराबाद में हुई आतंकी घटनाओं का उल्लेख है और जिसके आधार पर मुस्लिम नौजवानों की रिहाई का विरोध   किया है, को भी तार्किक तरीके से परखने की कोशिश नहीं की. मसलन, हैदराबाद के आतंकी हमलों में पहले मुस्लिम युवकों को पकड़ा गया, लेकिन बाद में खुलासा हुआ कि इसे हिन्दुत्वादी संगठनों ने अंजाम दिया था और बाद में वही जेल भी भेजे गए.

इसका उल्लेख यहां इसलिए ज़रुरी है कि कचहरी धमाकों के विवेचक राजेश कुमार श्रीवास्तव सीओ एटीएस ने अपनी तफ्तीश के दौरान एक पत्रक संलग्न किया है, जिसमें कहा गया है कि मक्का मस्जिद हैदराबाद, समझौता ब्लास्ट, अजमेर दरगाह और यूपी की कचहरियों में एक ही आतंकी संगठन ने विस्फोट किए हैं. अब जब यह साफ हो गया है कि इन विस्फोटों में मुस्लिम युवकों को गलत फंसाया गया था और वास्तविक अपराधी हिन्दुत्वादी संगठनों के लोग हैं जो अब पकड़े भी जा चुके हैं तो ऐसे में ज़रुरी था कि इस याचिका को स्वीकार करने से पहले और अब फैसला देने के दौरान भी उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों को हैदराबाद, समझौता ब्लास्ट के मामले में दिए गए फैसलों का अध्ययन करती जो उसने नहीं किया है.

इसी तरह माननीय न्यायधीशों ने इस याचिका के याचिका कर्ताओं द्वारा प्रस्तुत अपने व्यक्तिगत विवरण में अपना धर्म हिंदू दर्शाने पर भी कोई आपत्ती नहीं की और जिसे स्वीकार भी कर लिया. जबकि प्रायः याचिका करते समय याचिकाकर्ता का धर्म संबन्धी उल्लेख नहीं किया जाता. इससे साबित होता है कि याचिकाकर्ता ने तो हिन्दुत्वादी सांप्रदायिक जेहनियत से याचिका दाखिल की जिसे स्वीकारना अदालत के हिन्दुत्वादी रुझान को दर्शाता है.

रिहाई मंच के प्रवक्ताओं ने कुछ संचार माध्यमों में उल्लेखित इस फैसले के हिस्सों जिसमें कहा गया है कि कोर्ट ने कहा कि देश की संप्रभुता से जुड़े मामलों में सरकार को तार्किक होना चाहिए, पर टिप्पणी करते हुए कहा कि आतंकवाद के मामलों में ऐसे बहुत सारे मामले आए हैं जिनमें पहले बेगुनाहों को पकड़ा गया और बाद में पता चला कि वास्तविक अपराधी कोई और है या कि जिन्हें पकड़ा गया वो निर्दोष हैं जैसे कि कथित कचहरी धमाकों के आरोपी खालिद व तारिक के मामले में न्यायमूर्ती आरडी निमेष आयोग ने कहा है.

ऐसे में कोर्ट का यह कहना कि सरकार को तार्किक होना चाहिए उचित नहीं है बल्कि ऐसी याचिका को स्वीकार करने से पहले उसे स्वयं तार्किकता का परिचय देना चाहिए क्योंकि उसके ऐसे ही रवैयों से देश के एक बड़े हिस्से का अदालतों पर से भरोसा उठ रहा है जिस पर स्वयं माननीय सुप्रिम कोर्ट ने भी चिंता जाहिर की है. वहीं सरकारी वकीलों को इस खंडपीठ के जजों द्वारा आदेशित किए जाने कि अगर शासन प्रशासन ऐसे मामलों में सीधे आदेश देते हैं उन्हें स्वतंत्र तरीके से काम करना चाहिए पर भी तीखी टिप्पणी करते हुए रिहाई मंच ने इसे जनता द्वारा चुनी गई सरकार के अधिकारों पर जो उसे संविधान द्वारा प्रदत्त है, अलोकतांत्रिक हमला क़रार दिया है.

रिहाई मंच के प्रवक्ताओं ने बताया कि आज 12 दिसंबर के ही दिन 6 साल पहले आज़मगढ़ से तारिक़ कासमी का अपहरण एसटीएफ ने किया था, आज के दिन हमने तय किया है कि आगामी 16 दिसंबर जिस दिन मरहूम मौलाना खालिद को मडि़याहूं से एसटीएफ ने ही अगवा करके इन दोनों को 22 दिसंबर को बारांबकी से झूठी बरामदगी का दावा करके आतंकवाद के झूठे मामले में फंसाया था जिसकी तस्दीक निमेष कमीशन रिपोर्ट ने भी की है, ऐसे में मौलाना खालिद जिनकी हत्या सपा राज में आईबी और एसटीएफ वालों ने की है के गिरफ्तारी के दिन 16 दिसंबर को इस साल से हम ‘अवैध गिरफ्तारी विरोध दिवस’ के रुप में मनाते हुए बेगुनाहों की रिहाई की लड़ाई को तेज़ करने का संकल्प लिया जाएगा.

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