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क्या दंगा पीड़ित बच्चे इस साल बोर्ड परीक्षा दे पाएंगे?

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

जहां सवाल ज़िन्दगी का हो, वहां पढ़ाई की कौन बात करे? मुज़फ्फ़रनगर के दंगा पीड़ित कैम्पों में जहां ज़िन्दगानियां सिसक रही हैं, वहीं पढ़ कर आगे बढ़ने के ख्वाब देखने वाले बच्चों की उम्मीदें भी दम तोड़ने लगी हैं.

दंगों के बाद से बच्चे स्कूल नहीं जा पाए हैं. स्कूलों से भी नाम कट गए हैं. आलम तो यह है कि दसवीं व बारहवीं की बोर्ड परीक्षा सर पर है और कैम्पों में रह रहे इन बच्चों को इस बात की चिंता सताए जा रही है कि वो परीक्षा दे भी पाएंगे या नहीं?

हम राहत कैम्पों में पहुंचे और वहां के कई बच्चों से बात की. सबसे पहले हम तावली पहुंचे. कभी मुज़फ्फरनगर के इस तावली गांव के इस्लामिया स्कूल व मदरसा में 109 परिवार रहता था. लेकिन सरकार के दबाव में आकर मदरसे वालों ने वहां से चले जाने का फरमान जारी कर दिया. लेकिन अभी भी 65 परिवार इसी गांव में अलग-अलग लोगों के घरों में रह रहे हैं.

इसी गांव में एक किसान की बेटी शबनम मल्लिक से हमारी मुलाकात हुई. उसे इस साल दसवीं का बोर्ड परीक्षा देना है. वो बताती है कि उसके ज़्यादातर किताबें दंगों के दौरान गांव में ही रह गए. लेकिन उसने अब अपनी किताबें बाज़ार से खरीद ली हैं. अब उसे जब भी समय मिलता है वो पढ़ाई करती है. क्योंकि पढ़कर उसे डॉक्टर जो बनना है. बात-बात में वो यह भी बताती है कि गांव में उसके काफी सारे दोस्त थे, वो उसे बुलाते भी हैं, पर अब शायद ही गांव वापस जाना हो पाए.

जब हमने उससे परीक्षा के हॉल टिकट के बारे में पूछा तो उसने बताया कि उसे नहीं मिला है. इस बात पर हमारे सामने ही घर वालों ने उसके स्कूल के एक टीचर को कॉल किया, पर उस टीचर ने बताया कि उसका नाम काट दिया गया है. इसलिए हॉल टिकट मिलने का सवाल ही पैदा नहीं होता. यह बातें सुनकर वो मायूस हो जाती है. शबनम की ही तरह और भी कई बच्चे तावली कैम्प में रह रहे थे. लेकिन अब वो कहां गए इसका किसी को कुछ पता नहीं.

तावली गांव से कुछ किलोमीटर दूर बसीकलां कैम्प में यासमीन बताती है कि उसने भी सोचा था कि बोर्ड परीक्षा देने के बाद वो आगे पढ़ेगी और पढ़-लिखकर एक अच्छी टीचर बनेगी. लेकिन इन कैम्पों में पढ़ाई कैसे संभव है? न किताबें है और न ही टीचर… किताब की शक्ल में एक गाईड ज़रूर है, जिसे किसी संस्था ने कैम्पों में बांटा था, जिसे पढ़कर वो परीक्षा की तैयारी कर रही है. लेकिन साथ ही उसने यह भी बताया कि अगर सेन्टर हमारे गांव डींडावली में रहेगा तो वो परीक्षा नहीं देगी. बग़ल में बैठी उसकी दादी ने भी साफ लफ्ज़ों में कह दिया कि गांव वापस जाकर परीक्षा नहीं देना है.

हीना जिसे डॉक्टर बनने की ख्वाहिश है, उसकी बातें बिल्कुल यासमीन से मिलती जुलती हैं. रूख्सार बताती है कि वो बारहवीं की छात्रा है. मास्टरनी बनने का सपना देखा था. पर पता नहीं अब हमारे सपनों का क्या होगा? पास बैठी दादी बोलती है कि ‘हम तो कभी पढ़े नहीं, अब हमारे बच्चे भी हमारे ही तरह रह जाएंगे. हमारा तो सब कुछ बर्बाद हो गया.’

इसी कैम्प में इंतज़ार, शहाबुद्दीन और साहिर के हौसले काफी बुलंद हैं. उन्होंने बताया कि उन्होंने तैयारी के लिए दिन-रात एक कर दिया है. बारहवीं क्लास में पढ़ने वाला इंतज़ार का तो कहना है कि वो ज़रूर 70 फीसद से अधिक नम्बर लाएगा. और अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला लेगा. वहीं साहिर आगे सिविल सर्विस में जाना चाहता है. शहाबुद्दीन बताता है कि मुझे तो पुलिस में जाना है. ट्यूशन भी कर रहा हूं. पर दिमाग़ में कुछ रहता नहीं. तरह-तरह के ख्याल आते हैं. पुरानी यादों को भूलना चाहता हूं, पर लगता है कि यह मुमकिन नहीं है.

लोई कैम्प (जो अब है नहीं) में रहने वाला आसिफ भी बताता है कि बारहवीं की परीक्षा देकर वो इस बार पुलिस के बहाली के लिए कोशिश करेगा. साथ ही वो यह भी कहता है कि हालांकि पुलिस ने हमारी सेवा नहीं करी, लेकिन हम सबकी सेवा करेंगे. चाहे वो किसी भी धर्म का हो.

कुछ ऐसी ही कहानी दूसरे कैम्पों में रहने वाले नाजिश, वसीम, राशिद, सलीम, तरन्नुम, अहसान, फिरोज़, तालिब जैसे न जाने कितने बच्चों की है. इनमें ज़्यादातर संख्या लड़कियों की है. इन सबकी सबसे बड़ी परेशानी इस बात की है कि उत्तर प्रदेश में लड़कियों के लिए होम सेन्टर होता है. यानी इन बच्चियों के परीक्षाएं इनके गांवों में होंगी. और गांवों में वापस जाकर परीक्षा देना इन सबके बस की बात नहीं. और न ही घर वाले इन्हें गांव में जाकर परीक्षा देने की परमिशन देंगे.

इस सिलसिले में हमने ‘इंसान इंटरनेशनल फाउंडेशन’ की ओर से इन बच्चों के लिए अलग से सेन्टर  बनाए जाने की मांग के साथ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, शिक्षा मंत्री और शामली व मुज़फ्फरनगर के ज़िला अधिकारी को दो बार पत्र भी लिख चुके हैं. लेकिन इस बेशर्म सरकार व उसके बेशर्म अधिकारियों ने इसका कोई जवाब देना मुनासिब नहीं समझा. और सबसे ज्यादा अफसोस इस बात की भी है कि इस सिलसिले में कौम का कोई भी रहनुमा इन बच्चों की मदद के लिए आगे नहीं आया.

आखिर में शाहपूर के परवेज़ की बातें भी आपको बताता चलूं. ग्यारहवीं क्लास में पढ़ने वाला कुटबी गांव के इस लड़के को मिलिट्री में जाना है. इसलिए उसने अपनी पढ़ाई जारी रखे हुआ है. वो लगातार स्कूल जा रहा है. पर उसकी बातें हैरान कर देने वाली हैं. वो बताता है कि हमारे स्कूल में आए दिन बच्चों में लड़ाई होती रहती है. मास्टर भी कुछ नहीं बोलते. बच्चों में इतना डर है कि उसके क्लास में पहले 25 मुस्लिम बच्चे थे, पर अब सिर्फ 2 ही रह गए हैं. जिनमें वो भी शामिल है. उसका यह स्कूल शाहपूर में है.

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