Ashutosh Kumar Singh for BeyondHeadlines
गांधी मर कर भी जीवित हैं, पर गांधीवाद जीकर भी मृत. परदेशी गांधी को ढुंढ रहे हैं. स्वदेशी भूल रहे हैं. गांधी कौन थे? शायद सभी जानते हैं. पर सच में कोई नहीं. गांधी को जानने के लिए, धरातल पर जीना होता है, पर जीने के लिए कहां कोई तैयार है!
महात्मा गांधी, प. जवाहर लाल नेहरू को अंत समय तक अपना वारिस बताते रहे. उन्हें भारत की सत्ता भी सौंपा. पर शायद नेहरू ने भी गांधी को नहीं समझा. हो सकता है गांधी ने भी नेहरू को न समझा हो. आज़ादी पूर्व 5 अक्टूबर 1945 ई0 को गांधी ने नेहरू को एक पत्र लिखा. जिसमें वे लिखते हैं-
चि. जवाहरलाल,
तुमको लिखने को तो कई दिनों से इरादा था, लेकिन आज ही उसका अमल कर पा रहा हूं. अंग्रेज़ी में लिखूं या हिन्दुस्तानी में यह भी मेरे सामने सवाल रहा था. आख़िर में मैंने हिन्दुस्तानी में ही लिखना पसंद किया. पहली बात तो हमारे बीच में जो बड़ा मतभेद हुआ है. अगर वह भेद सचमुच है तो लोगों को भी जानना चाहिए. क्योंकि उनको अंधेरे में रखने से हमारा स्वराज का काम रूकता है. मैंने कहा है कि ‘हिन्द स्वराज’ में जो मैंने लिखा है उस राज्य पद्धति पर मैं बिलकुल क़ायम हूं.
इन पंक्तियों से स्पष्ट है कि गांधी के विचारों को पंडित नेहरू 1945 ई. तक आत्मसात नहीं कर पाए थे. इसी पत्र में गांधी आगे लिखते हैं कि मैं यह मानता हूं कि हिन्दुस्तान को कल देहातों में ही रहना होगा, झोपड़ियों में रहना होगा, महलों में नहीं. मेरे कहने का निचोड़ यह है कि मनुष्य जीवन के लिए जितनी ज़रूरत की चीज़ है, उस पर निजी क़ाबू रहना ही चाहिए -अगर न रहे तो व्यक्ति बच ही नहीं सकता है.
मैं चाहता हूं कि हम दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह समझ लें. उसके दो सबब हैं. हमारा संबंध सिर्फ़ राज कारण का नहीं है. उससे कई दर्जे गहरा हैं. उस गहराई का मेरे पास नाप नहीं है. वह संबंध टूट भी नहीं सकता. इसलिए मैं चाहूंगा कि हम दोनों में से एक भी अपने को निकम्मा नहीं समझे. हम दोनों हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिए ज़िन्दा रहते हैं और उसी आज़ादी के लिए हमको मरना भी अच्छा लगेगा. अगर मैं 125 वर्ष तक सेवा करते-करते ज़िन्दा रहने की इच्छा करता हूं, तब भी मैं आख़िर में बूढ़ा हूं और तुम मुक़ाबले में जवान हो. इसी कारण मैंने कहा है कि तुम मेरे वारिस हो. कम से कम उस वारिस को मैं समझ लूं और मैं क्या हूं वह भी वारिस समझ लें तो अच्छा ही है और मुझे चैन रहेगा.
आनंद भवन, इलाहाबाद से 9 अक्टूबर 1945 को पंडित नेहरू ने पत्र का जवाब देते हुए कहा कि ‘मुझे समझ नहीं आता कि किसी गांव में सच्चाई और अहिंसा पर इतना बल क्यों दिया जाता है? गांव वालों को इस बात के लिए प्रोत्साहित करना होगा कि वे शहरों की संस्कृति में खुद को ढाल सकें.
इस पत्र में अगला दुखद अचरज वाला पक्ष तब उभर कर सामने आता है, जब नेहरू, गांधी के स्वराज के सपनों की धज्जियां उड़ाते हैं- वे लिखते हैं कि उस बात को कई साल हो गए हैं जब मैंने ‘हिन्द स्वराज’ पढ़ी थी. आज मेरे दिमाग़ में उसकी धूंधली सी यादें हैं. लेकिन जब मैंने उसे 20 या अधिक साल पहले पढ़ा था तब भी वह मुझे अव्यवहारिक लगी थी. मुझे तब अचरज हुआ जब आपने कहा कि वह पुरानी तस्वीर आज भी आपके दिमाग़ में बसी हुई है. आपको मालुम ही है कि कांग्रेस ने उस तस्वीर पर कभी विचार ही नहीं किया. उसे स्वीकार करने की बात तो छोड़ ही दीजिए.
नेहरू का सपाट सा जवाब भारत में ‘गांधी दर्शन’ की उपस्थिति और क्रियान्वयन नीति पर करारा तमाचा था. इस तमाचे को गांधी क्यों सहन कर गए, यह शोध का विषय हो सकता है.
गांधी ने अपने अंतिम लिखित दस्तावेज़ में कहा कि कांग्रेस को भंग कर देना चाहिए. और लोकसेवक संघ की स्थापना होनी चाहिए. पर आजतक न तो कांग्रेस भंग हुई और न ही लोकसेवक संघ का उनका सपना पूरा हुआ. गांधी मारे गए. उनका नाम कांग्रेस ढो रही है पर उनके विचार को अपनाना कांग्रेस के लिए टेढी खीर साबित हो रहा है. गांधी दर्शन को क़ब्र में दफ़नाकर कांग्रेस नेहरू की सोच से बाहर निकलने के मुड में नहीं दिख रही है. नेहरू के विचार को आगे बढ़ाने के लिए अब राहुल गांधी को सामने लाया जा रहा है. यह एक और धोखा है, महात्मा गांधी के गांधी के साथ. गांधी के नाम पर राष्ट्र के साथ किए जा रहे वैचारिक घाल-मेल को देख कर गांधी की आत्मा भी सर पीट रही होगी.