Nicky Naincy for BeyondHeadlines
महिला दिवस के अवसर पर हर तरफ से बधाइयां मिली. एसएमएस, ब्लॉग्स एवं अन्य माध्यमों के द्वारा लोगों ने अपनी भावनाएं व्यक्त की, और अपने विचार रखें. कैम्पस में भी पब्लिक मीटिंग्स, ढाबों पे बहस-मुबाहिसे का दौर रहा. सब देखने सुनने के बाद भी कुछ सवाल मन मे आए जो यहां रख रही हूं.
आज यदि हम अपने आस-पास के शहरों और गांव के बदलते परिवेश पर नज़र डालें और उसमें महिला की स्थिति पर विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि वो अपने सशक्तिकरण के दौर से गुज़र रही है. परंतु यदि हम इस आभासी प्रतिबिम्ब से बाहर आकर वास्तविकता का सही मायने मे विश्लेषण करें तो एक अलग और चिंताजनक तस्वीर सामने आती है.
सबसे पहला प्रश्न इस सन्दर्भ में ये उठता है कि आखिर इस शब्द ‘महिला सशक्तिकरण’ की परिभाषा क्या है? और हम इसे किस तरह निर्धारित करते हैं? क्या इसके मापदंड परिमाणात्मक हैं, जो उनका प्रारम्भिक शिक्षा मे नामांकन, किसी उच्च शिक्षा संस्थान मे भर्ती, किसी तकनीकी या प्राविधिक कोर्स में दाखिला या रोज़गार इत्यादि मात्र से ही निर्धारित होता है? या फिर कुछ अन्य पहलुओं के भी बरक्स इस चीज़ को देखा जाना चाहिए?
दूसरा प्रश्न जो पहले प्रश्न से ही निकलकर आता है, वो ये कि क्या एक दलित या पिछड़े वर्ग की महिला जो आर्थिक या सामाजिक दृष्टि से किसी उच्च आर्थिक या सामाजिक स्तर की महिला से नीचे है, के सशक्तिकरण के पैमाने और उनका तथाकथित मूल्यांकन अलग दृष्टिकोण से होना चाहिए?
यदि नहीं, तो क्यों? और यदि हां तो कैसे? यदि हम इन दोनों प्रश्नो पे एक साथ विचार करेंगे तो पाएंगे की दोनों एक ही समस्या के दो पहलू होते हुए भी बहुत भिन्न हैं. और इसका निदान करना उतना ही चुनौतीपूर्ण है.
पहले प्रश्न की बात करें तो इसके उत्तर में सभी का मानना है कि बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य, और उसके साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक भागीदारी मे मिले उच्च और सतत अवसरों से सशक्तिकरण होता है. ये बात नीति विशेषज्ञों से लेकर सामाजिक विज्ञान के तमाम पहलुओं से जुड़े लोग भी मानते हैं.
ये यकीनन कहा जा सकता है कि उनके साक्षारता स्तर मे बढ़ोतरी अवश्य हुई है, लेकिन वो भी प्राथमिक स्तर पर और उसमें भी शहरों मे निवास करने वाली महिलाओं का प्रतिशत अधिक है. भारतीय मानव विकास रिपोर्ट 2011 के अनुसार उच्च नामांकन दरें प्राप्त कर लेने के बावजूद निवल उपस्थिति दरें (एनएआर) कम रहीं हैं.
एनआरएचएम के कार्यान्वयन के बाद भी, महिलाओं के स्वास्थ्य सूचकांक बहुत संतोषजनक नहीं हैं. मानव संसाधन रिपोर्ट के अनुसार मातृत्व मृत्यु दर (एमएमआर) अभी भी 212 प्रति एक लाख जिंदा दर पर है, और शिशु मृत्यु दर (आइएमआर) प्रति 1000 जीवित जन्म पर 47 है. जबकि सरकार ने समय समय पर कई महिला कल्याणकारी योजनाएं जैसे कि एनआरएचएम, जननी सुरक्षा योजना, प्रारम्भिक स्तर पर राष्ट्रीय बालिका शिक्षा कार्यक्रम इत्यादि का प्रावधान किया है.
उसके अलावा रोजगार मे भी गैर-सरकारी, कृषि, या अन्य घरेलू उद्योग में उनका प्रतिशत अधिक है बनिस्बत के सरकारी, प्रशासनिक, उच्च तकनीकी क्षेत्रों की अपेक्षा, जैसा की सरकारी आंकड़े भी इस बात की पुष्टि करते हैं.
राजनीतिक भागीदारी में भी बहुत अच्छी सूरत नहीं है. यदि हम चुनाव आयोग के आंकड़ों पे गौर करें तो प्रथम आम चुनाव जो कि 1952 मे हुए थे, उसमे कुल 22 महिलाएं निर्वाचित हुई थी, और पिछले आम चुनाव में जो कि 2009 मे हुए थे, महज़ 59 महिलाएं ही निर्वाचित हुई थीं.
1957 के आम चुनाव में कुल 45 महिलाएं मैदान मे उतरी थीं और 2009 तक केवल 556 महिलाएं ही आगे बढ़ पायीं. ये वृद्धि उनकी जनसंख्या, शिक्षा, जागरूकता के आयामों पर कहीं से भी खरी तो नहीं ही उतरती हैं. दलितों या पिछड़े वर्ग की बात करें तो मेरा दूसरा प्रश्न उनकी भागीदारी को लेकर ही उठता है. इस मसले का साथ और भी कई समस्याएं उनके साथ जुड़ी हैं.
आए दिन दलित एवं पिछड़ी जनजाति कि महिलाओं पर होने वाले शारीरिक और मानसिक अत्याचारों को भला मूल्यांकन कि किस कसौटी पे रखें? ऐसा करके देखने से तो इस दिशा में किए गए सारे प्रयासों कि विफलता ही नज़र आती है. इनका लाभ तब तक नहीं हो पाएगा जब तक सरकारी, राजनीतिक, प्रशासनिक, और तमाम नीति बनाने वाली निकायों मे दलित और पिछड़े वर्ग की महिलाओं की भागीदारी न बढ़ाई जाये. अन्यथा हम पहले प्रश्न कि सार्थकता मे दूसरे प्रश्न का उत्तर खो देंगे.
(लेखिका जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में शोध छात्रा हैं.)