Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
बीजेपी के भीतर एक नए किस्म की लड़ाई चल रही है. बनारस में रथ यात्रा स्थित बीजेपी के चुनावी कार्यालय में एक दिलचस्प नज़ारा देखने को मिला. यहां बीजेपी के नेताओं की एक बैठक चल रही थी, जिसमें इस बात पर बहस चल रही थी कि दलितों को पार्टी के साथ कैसे जोड़ा जाए? खास बात यह थी कि यहां कार्यकर्ताओं को समझाया जा रहा था कि दलितों को लुभाने के लिए वो उदित राज का सहारा लें.
कार्यकर्ताओं को यह भी समझाया जा रहा था कि अगर उन्हें दलितों के वोट हासिल करने हैं तो मोदी के साथ उदित राज का पोस्टर लगाना होगा और साथ ही जगह-जगह उदित राज का प्रचार करना होगा. बीजेपी के कार्यकर्ताओं को जो समझाया जा रहा था, उसका आशय यही था कि दलितों को बरगलाने के लिए उदित राज के नाम का सहारा लिया जाएगा.
उदित राज चुंकि दलित हैं और उन्हें चुनाव से पहले बीजेपी ने अपनी पार्टी में शामिल करके एक बड़ा तुरूप का पत्ता फेंका है. ऐसे में बड़ी आसानी से दलित वोट हासिल किए जा सकते हैं. इस बैठक में आए तमाम कार्यकर्ता हां में हां मिलाकर सभी बातों का समर्थन कर रहे थे.
इतना ही नहीं, बनारस में बीजेपी का दलितों के प्रति प्रेम-राग रह-रह कर उभार मारता है. बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी ने अपने नामांकन जुलूस के दौरान इस चुनावी दलित प्रेम की जीती-जागती बानगी पेश की. मोदी ने नामांकन जुलूस के प्रोग्राम में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की प्रतिमा पर माल्यार्पण कर दलित वोटरों को ठोस संदेश देने की कोशिश की.
दरअसल, मोदी का नामांकन जुलूस जिस रास्ते से होकर गुज़रा, उस रास्ते में चार महापुरूषों की प्रतिमाएं थी. महामना मदन मोहन मालवीय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, स्वामी विवेकानन्द और नामांकन स्थल से ठीक पहले ही आखिरी प्रतिमा डॉ. भीमराव अम्बेडकर की थी. यह सब अनायास ही नहीं था. बल्कि एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा था.
बात यहीं खत्म नहीं होती. मोदी ने अति-पिछड़ी जातियों में शामिल निषाद समुदाय के सदस्य को अपना प्रस्तावक भी बनाया. गौरतलब है कि निषाद जाति के लोग अरसे से खुद को अनुसूचित जाति में शामिल किए जाने की मांग कर रहे हैं. ऐसे में मोदी को लगता है कि वो निषाद समाज को इसी बहाने लुभाकर उनकी वोटों को अपनी ओर खींच लेंगे.
यह तीनों घटनाएं दिखाती है कि बीजेपी बनारस में दलित वोटों के लिए बुरी तरह परेशान है और हर तरह के हथकंडे अपनाने का प्रयास कर रही है. या यूं कहिए कि बनारस में बीजेपी बुरी तरह से मोदी की जीत को लेकर घबराई हुई है. और वो कोई भी कसर छोड़ना नहीं चाहती है, ताकि दलितों का वोट उससे छिटकने न पाएं. हालांकि उसे चिंता इस बात की भी है कि उसकी तमाम क़वायद के बावजूद बीएसपी के वोटर अपनी पार्टी से दग़ा करने को तैयार नहीं हैं.
सच तो यही है कि बनारस में मोदी की जीत हार परंपरागत वोट बैंकों पर टिकी हुई है. अगर मुसलमान और दलित जैसे वोट बैंक इनके खिलाफ लामबंद होते हैं तो मोदी को लेने के देने भी पड़ सकते हैं. ऐसे में इस तरह के वाक्ये बनारस में मोदी की जीत को लेकर बीजेपी के भीतर जारी कशमकश और आशंकाओं की जीती जागती तस्वीर पेश करती हैं.
इन सबके विपरित तथ्य बताते हैं कि आरएसएस के संस्थापक गोलवरकर से लेकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी और पंडित दीन दयाल उपाध्याय तक न तो किसी भी नेता ने दलितों के बारे में सोचा और न ही पार्टी में उच्च पदों पर उन्हें आने दिया. यही वजह है कि आरएसएस का अब तक एक भी सर-संचालक दलित जाति का नहीं हुआ है.
बीजेपी ने दिखावे के लिए दलित बंगारू लक्ष्मण को अपनी पार्टी का अध्यक्ष तो बना दिया, मगर वो भ्रष्टाचार के आरोपों से शर्मसार होकर इस पद से बेदखल कर दिए गए और बीजेपी का दलित प्रयोग यहीं पर आकर खत्म हो गया.
तथ्य तो यह भी है कि बीजेपी और आएसएस दोनों पर अरसे से उच्च जातियों विशेषकर महाराष्ट्रियन ब्रहमण और उत्तर भारतीय ब्रहमणों का क़ब्ज़ा रहा है. आज भी बीजेपी के बड़े नेताओं की लिस्ट में एक भी दलित नेता शामिल नहीं है. लालकृष्ण आडवाणी से लेकर सुष्मा स्वराज, अरूण जेटली, राजनाथ सिंह, यशवंत सिंहा और मुरली मनोहर जोशी तक सभी नेता उच्च जातियों के प्रतिनीधि प्रतीक हैं.
ऐसे में अब चुनाव अब चुनाव के मौके पर बीजेपी जान बुझकर की गई इस ऐतिहासिक गलती को रफू करने में जी-जान से जुटी हुई है.
आंकड़े यह भी बताते हैं कि बनारस में तकरीबन 1.20 लाख दलित वोटर हैं. और पिछली बार मुसलमान और दलित वोटों की बदौलत ही मुख्तार अंसारी दूसरे नंबर थे. मुरली मनोहर जोशी और उनके बीच सिर्फ 17 हज़ार वोटों का फासला था.
स्थानीय लोग यह भी बताते हैं कि पिछली बार अगर अजय राय ने ऐन चुनाव के दिन मुरली मनोहर जोशी का समर्थन न किया होता तो मुख्तार अंसारी की जीत पक्की थी. खैर, इस बार बनारस का यह दलित वोट बीएसपी के पक्ष में ही खड़ा दिख रहा है. हालांकि कांग्रेस उम्मीदवार अजय राय कयास लगा रहे हैं कि इस बार यह वोट उनकी झोली में आ सकता है. वहीं आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार अरविन्द केजरीवाल की भी नज़र इन दलित वोटों पर है. वो अपनी अधिकतर सभाएं दलित व मुस्लिम बस्तियों में कर रहे हैं.
आखिर में हम आपको बताते चलें कि सन् 1999 से 2004 तक स्वघोषित रूप से प्रतिबद्ध स्वयंसेवकों के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार का दुस्साहस एक समय इतना बढ़ गया था कि उसने भारतीय संविधान की समीक्षा के लिए एक आयोग का ही गठन कर दिया, ताकि उसमें से स्वतंत्रता, समानता और न्याय (जो वस्तुतः फ्रांसीसी क्रांति की देन हैं), जैसे विदेशी मूल्यों को निकाला जा सके. उस समय संघ परिवार की ही एक शाखा विश्व हिंदू परिषद के नेता आचार्य धर्मेद्र और गिरिराज किशोर ने एक क़दम आगे बढ़कर संविधान में किये जाने वाले परिवर्तनों को भी सुझा दिया था, परन्तु आयोग के सदस्यों को लगा कि अगला चुनाव जीतने के बाद ही संविधान बदला जाए. लेकिन भाजपा नेतृत्व का संविधान बदलने का मुंगेरीलाल का यह सपना पूरा नहीं हो सका. क्योंकि वह आम चुनाव के बाद सत्ता से बेदखल हो गयी थी.
आज फिर जब प्रधानमंत्री की कुर्सी के लिए मोदी की छटपटाहट लगातार बढ़ रही है. ऐसे मेंमोदी को इन सवालों से दो चार होना ही पड़ेगा कि वह स्वाधीनता, समानता, धर्मनिरपेक्षता और न्याय जैसे आधारभूत सामाजिक मूल्यों में कोई विश्वास करते हैं अथवा नहीं? दलित से यह प्रेम क्या महज़ एक दिखावा नहीं है? मोदी जिस तरह से खुद को राजनीतिक अछूत बता कर वोटरों से वोट मांग रहे हैं, क्या मोदी को पता भी है कि मनुस्मृति, (जिसे संघ के लोग इस देश का संविधान बनाना चाहते हैं) के अनुसार शुद्रों के साथ क्या व्यवहार किया जाता है?