Edit/Op-Ed

पुणे में नफरत का ज़हर और सत्ता की सियासत

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

महाराष्ट्र की ‘सांस्कृतिक राजधानी’ और  ‘पूरब का ऑक्सफोर्ड’ कहे जाने वाले शहर पुणे में पिछले 3 दिनों से तनाव है. अल्पसंख्यक समुदाय के कई धार्मिक स्थलों पर हमला हुआ. 300 से अधिक बसों में तोड़फोड़ की घटना हुई. यह नफरत व हिंसा की आग सिर्फ पुणे तक ही सीमित नहीं रही, बल्कि महाराष्ट्र के अन्य शहरों व गांव में भी लोग डरे व सहमे रहे.

इंसानी जानों को खतरा है, सालों से जमा की गई पुंजी बर्बाद होने के कगार है और हज़ारों सालों से हिंदू-मुसलमानों को साथ बाँधे रखने वाली भारत की गंगा जमुनी तहज़ीब खतरे में है. हालात न सिर्फ़ चिंताजनक बल्कि बेहद ख़तरनाक़ हैं. हालाँकि पुलिस ने स्थिति को नियंत्रण में किया हुआ है.

अगर आप इस सबकी असल वजह जानें तो शायद इंसानी समझ पर हँसे भी!

दरअसल, किसी सरफिरे ने शनिवार की रात महाराष्ट्र में ‘पुज्यनीय’ माने जाने वाले छत्रपति शिवा जी महाराज और शिव सेना संस्थापक दिवंगत बाल ठाकरे की तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ कर ‘रियलीटी ऑफ इंडिया’ और ‘धर्मवीर श्री संभाजी महाराज’ नामक फेसबुक पेज़ पर पोस्ट कर दिया. यह तस्वीरें आपत्तिजनक थीं, इसलिए शिव सैनिक गुस्से में सड़कों पर उतर आएं और कई बसों पर पथराव व तोड़-फोड़ शुरू कर दी.

तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ की इस घटना को शिव सेना ने मज़हब के सियासत में झोंक दिया. जो मामला अधिक से अधिक थाना, पुलिस, कचहरी से सुलझ सकता था, उसे जान-बुझकर दो समुदायों के बीच नफरत के ज़हर का चारा बना दिया गया. जिस पुणे में हिन्दू-मुस्लिम अरसे से कंधा मिलाकर एक दूसरे के खातिर खड़े होते आए हैं, वहां एक पॉलिटिकल पार्टी महज़ अपने सियासी फायदे के लिए दो समुदाय के बीच नफरत का ज़हर घोलने में जुट गई.

फेसबुक से पोस्ट हटाने, उस पेज़ को ब्लॉक करने तथा पुलिस द्वारा आगे की कार्रवाई करने का वादा करने के बावजूद शिव सैनिक सड़कों पर रहें. स्थानीय निवासियों की माने तो शिव सेना के बाद अब बजरंग दल व श्रीराम सेना भी इसमें शामिल हो गई हैं.

शिव सेना यूं तो महाराष्ट्र और मराठियों की बात करती है, मगर इसी सेना ने पुणे में एक समुदाय विशेष के लोगों को नफरत की राजनीत का शिकार बनाना शुरू कर दिया है. हालात यह हैं कि शिव सेना की गुंडागर्दी के चलते अल्पसंख्यक तबका अभी भी बूरी तरह से डरा व घबराया हुआ है, और शहर की फिज़ा हर बीतते दिन के साथ ख़राब होती जा रही है.

वर्चुअल दुनिया से शुरू होकर हक़ीकी दुनिया में पहुंचे इस विवाद का इस क़दर भयंकर रूप ले लेना न सिर्फ़ समझ से बाहर है बल्कि सोशल मीडिया के निरंकुश इस्तेमाल के ख़तरों की झलक भी दिखाता है.

सोशल मीडिया, जिसकी परिभाषा उसके नाम में ही निहित है यानि समाज का मीडिया उसके इस घोर समाज विरोधी कृत्य की जितनी आलोचना की जाए कम है. लेकिन सवाल यह भी है कि आख़िर वर्चुअल दुनिया की लापरवाही या ग़लती के कारण असली दुनिया में जो हुआ उसकी ज़िम्मेदारी किस पर तय की जाए?

उस सिरफ़िरे व्यक्ति पर जिसने उत्तेजक पोस्ट डाली, उस समाज पर जिसकी भावनाएं बिना-कुछ सोचे समझे भड़क गईं और जो हिंसा पर उतारू हो गया या उस पुलिस पर जो क़ानून व्यवस्था बनाए रखने और समाज के कमज़ोर वर्ग की रक्षा करने की अपनी मूल ज़िम्मेदारी में नाक़ाम साबित हुई.

या फिर इन सबको छोड़कर उस राजनीतिक दल पर जो आने वाले चुनावों में जीत हासिल करने के लिए सभी मानवीय मूल्यों को ताक़ पर रखकर ओछी राजनीति पर उतारू हो गया है?

बगैर जांच पड़ताल किए एक तबके का अपने ही साथ रहने वाले अल्पसंख्यक तबक़े को निशाना बनाने को कैसे समझा जाए? किसी ने घृणित मानसिकता से फ़ेसबुक पर एक पोस्ट की और लोगों के घरों, कब्रिस्तानों, मस्जिदों व मदरसों के ऊपर हमले होने लगे.

शायद कोई भी इंसान जिसके दिल में इंसानियत का जज्बा है, वो ऐसा कभी नहीं करेगा. यह कोई ताकत है, जो उन्हें ऐसा करने पर मजबूर कर रही है. और वो ताकत है सत्ता की चाहत यानी सियासत… क्योंकि हक़ीक़त यही है कि अभी तक पुलिस को भी नहीं मालूम है कि यह पोस्ट किसने किया था और उसका मज़हब क्या है? पुलिस इस संबंध में जांच-पड़ताल काफी तेज़ी से कर रही है. फेसबुक को भी पत्र लिखकर तमाम जानकारियां हासिल करने को कहा गया है.

महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या यह सिर्फ शिवा जी महाराज व बाला साहब ठाकरे के अपमान का बदला है या फिर इसके राजनीतिक मायने भी हैं. यह सवाल इसलिए भी गंभीर है,क्योंकि पिछले साल सितम्बर में यूपी के मुज़फ्फरनगर में दंगा हुआ था. दंगों की आग दो दिन तक ग्रामीण इलाकों को जलाती रही. जिसमें आधिकारिक तौर पर 60 से अधिक लोगों की मौत हुई, सैंकड़ों घायल हुए और 50 हज़ार से अधिक लोग बेघर हुए. ये लोग महीनों सड़क के किनारे खुले आसमान के नीचे कैम्पों में पड़े रहे.

कुछ महीनों बाद जब लोकसभा चुनाव हुआ तो नतीजे अप्रत्याशित रूप से बीजेपी के पक्ष में रहे. बीजेपी और सहयोगी दलों को 80 में से 73 सीटें हासिल हुई. महाराष्ट्र में भी कुछ महीनों बाद चुनाव है. शिव सेना राज्य में सत्ता में काबिज़ होने को लेकर काफी उत्साहित है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि कहीं महारष्ट्र में भी तो यूपी की कहानी दोहराने की कोशिशें नहीं हो रही हैं?

स्पष्ट रहे कि पुणे से शुरू हुए इस विवाद की अफवाहें तेज गश्त करने लगी, जिन्हें बुनियाद बना कर सत्ता के लोभी लोग राज्य का हालात बिगाड़ने की कोशिश में लगे रहे.

अब तक अकेले पुणे शहर में 193 से ज़्यादा बसें क्षतिग्रस्त हुईं हैं. तो वहीं कोल्हापुर में 200 से ज़्यादा बसों का नुकसान हुआ है.

शिवाजी महाराज भी शायद सोच रहे होंगे कि उनके प्रति पुणे के मुसलमानों के प्यार में क्या कमी रह गई कि उनके नाम पर यह तांडव खेला गया. क्या यह सच नहीं है कि पुणे में शिवाजी की याद में सबसे लंबी रैली पी.ए. ईमानदार की क़ियादत में मुसलमान ही निकालते हैं. और इस रैली में मराठा सेवक संघ व वामसेफ के लोग भी शामिल रहते हैं.

साझा विरासत और समृद्ध इतिहास वाला पुणे अचानक इतना कमज़ोर कैसे हो गया कि जिस सख्शियत पर यहां का बच्चा-बच्चा नाज़ करता है, उसी के नाम पर हिंसा का नंगा नाच खेला गया और बेग़ुनाहों और बेबसों पर ज़ुल्म ढाया गया?

संवेदनहीन हो चुकी इंसानीयत के पास शायद इस सवाल का जबाव न हो. कोई राजनीति शास्त्र विशेषज्ञ ही इसे अच्छे से समझा सकता है. क्योंकि जो हुआ वह सामाजिक मामला कम राजनीति मामला ज़्यादा था.

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