Anurag Bakshi for BeyondHeadlines
मोदी सरकार से जनता को बहुत उम्मीद थी कि वह महंगाई से लड़ने के लिए कार्यक्रम पहले दिन से ही कुछ न कुछ लेकर आएगी, न कि केवल महंगाई के बढ़ने के कारण और तर्क गिनाएगी, बल्कि उससे लड़ने के उपाय करेगी. लेकिन हुआ इसके बिल्कुल उल्टा… अब तो प्रधानमंत्री जी कह रहे हैं कि उनको तो 100 दिन के हनीमून मनाने का भी समय नहीं मिला.
जनता ने मोदी जी से एक ऐसे प्रधानमंत्री की कल्पना करी थी, जो कहने के बजाए कुछ करने पर यकीन रखता हो, आज सरकार के राजनैतिक विरोधियों को तो छोडिये खुद उनके समर्थकों को भी समझ में नहीं आ रहा हैं कि हो क्या रहा है..?
महंगाई पर मोदी सरकार वही भाषा क्यूं बोल रही है, जो कभी मनमोहन सरकार बोला करती थी. लोग ये भी समझने को तैयार नहीं कि जमाखोरी पर कार्यवाही राज्यों का काम हैं. सवाल ये भी उठता है कि भाजपा शासित प्रदेशों में अभी तक ये कार्यवाही क्यों नहीं शुरू हो रही है..?
दिल्ली में परोक्ष या अपरोक्ष तो भाजपा का ही शासन हैं..? कार्यवाही के नतीजे क्यूं नहीं आ रहे हैं..?
माना केंद्र में भाजपा के नेतृत्व सरकार को अभी एक ही महीना हुआ है, उसके आंकलन को उसे अभी और समय देना चाहिए. माना इस तर्क में कोई बुराई नहीं है, पर सवाल समय का नहीं निति और नियत का है.
महंगाई इस समय देश में सबसे संवेदनशील समस्या हैं! लेकिन दुर्भाग्य से महंगाई की मार पर इस सरकार की प्राथमिकता दिखाई नहीं देती. माना महंगाई से निपटने के लिए खाद्य आपूर्ति की पूरी व्यवस्था को सुधार करना होगा. मानसून की कमजोरी की ख़बर और ईराक संकट सरकार पर आकस्मिक समस्या के रूप के उपस्थित हुआ है और ये किसी भी सरकार को विचलित करने वाली परिस्थिति है, लेकिन फिर भी सरकार कुछ करते हुए नहीं दिख रही है.
एक तरफ तो सरकार मान रही है कि न तो अनाज की कमी है न ही आलू प्याज की और न ही दूसरी चीजों की… लेकिन सवाल ये है कि तो फिर क्यों सभी चीजों के दाम बढ़ते जा रहे हैं..? सरकार दामों को रोक क्यों नही पा रही है..?
लोकसभा चुनाव में तीन मुद्दे बहुत अहम थे. महंगाई, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार… और ये तीनों ही आपस में जुड़े हुए मुद्दे हैं. पिछले एक महीने में सरकार के फैसलों और बयानों पर नज़र डालें तो इसी नतीजे पर पहुचेंगे कि गरीब और मध्यमवर्गीय के हित सरकार की नज़र से ओझल हैं. सरकार ने कड़वी दवा की बात कही पर ये नहीं बताया कि समाज के हर वर्ग को मिलेगी या केवल गरीब वर्ग को… वैसे सरकार ने अभी तक जो भी दवा दी है उसके कड़वे घूट गरीब को ही पीने पड़े हैं.
सरकार ने आते ही रेल भाडा और माल भाडा बढ़ा दिया. तर्क दिया कि रेलवे के स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी है. तुरंत साथ दो फैसले और लिए जिसमें चीनी मिलों के मालिकों को छूट और ब्याज मुक्त ऋण दे डाला. इसके बावजूद चीनी के दाम बढ़े और हजारों गन्ना किसान जो परेशानी में था उसका क्या भला हुआ. वो पता नहीं…
अगला काम सरकार ने ऑटोमोबाइल उद्योग को मिल रही एक्साइज की छूट को छह महीना और बढ़ा दिया, जो यूपीए सरकार से चली आ रही है. इस छूट से एसयूवी खरीदने वाला केवल वो वर्ग ही लाभान्वित हैं जो लाखों की गाड़ियों पर कुछ हजार और आराम से दे ही सकता हैं. लेकिन सरकार ने ऐसी कोई दरियादिली रेल के जनरल में भूसा की तरह सफर करने वालों पर न दिखाई.
एक तरफ एयर इंडिया जैसा सफेद हाथी पाला जा रहा है, जिसके ऊपर सरकार गरीब जनता का पैसा पानी की तरह बहा रही है. पिछले दिनों यूपीए सरकार ने एयर इंडिया के 74 अरब रूपये के कर्ज की रिश्टर्क्चिंग करवाई.
एयर इंडिया की माली हालत के सुधारों के दावो की पोल विशेषज्ञों की रिपोर्ट बताती है, जो एयर इंडिया को इस साल 4000 करोड़ के घाटे में जाने की उम्मीद करती है. तो ऐसे में रेल से यात्रा करने वाले गरीबों को सरकार की सहायता की ज्यादा आवश्यकता है या हवाई यात्रियों को.
रेलवे इन्फ्रास्ट्रक्चर का बहुत बड़ा महकमा है. हमारे प्रधानमंत्री भी इस बात को स्वीकार कर चुके हैं. इसके विकास से बड़े पैमाने पर रोज़गार के अवसर भी पैदा किये जा सकते हैं. तो सवाल ये है कि साल दर साल हजारों लाखो करोड़ रूपया फूंकने की जगह रेलवे में क्यों नहीं लगता. आम जनता को मुफ्त यात्रा क्यों नहीं कराई जा सकती…?
आज हमारे देश के निति निर्माताओं की सोच में गरीब पर किया जाने वाले खर्च अनावश्यक समझा जाता है. ऑटोमोबाइल क्षेत्र को एक्साईज ड्यूटी में छूट दी जा सकती है, पर रसोई गैस को नहीं. अर्थशास्त्रियों की नज़र में अमीर को दी जाने वाली सरकारी मदद विकास के लिए बहुत ज़रूरी है और गरीब को मदद अपने संसाधनों की बर्बादी… जिस पर रोक लगाना ही उचित है.
हमारे अर्थशास्त्री मनरेगा को बर्बादी ही बताता है, जबकि माना 50-60% धन भ्रष्टाचार की भेंट ही चढ़ा वो भी सरकारी तन्त्र के द्वारा ही. लेकिन फिर भी इस योजना ने गांव से पलायन काफी रोका था. आज देश में एक तरफ कर्ज़ से दबे किसान आत्महत्या कर रहे हैं तो दूसरी तरफ विजय माल्या, अदानी-अंबानी जैसे सैकड़ों बड़े व्यापारी और उद्योगपति हैं, जिन पर सरकारी बैंको का हजारों करोड़ बकाया है. बैंको की देनदारी चुकाने के लिए उनके पास पैसा नही है, लेकिन आईपीएल और फार्मूला-वन के लिए अपार कुव्वत है.
अब सबको नई सरकार से बजट का इन्तजार है, लेकिन जो ख़बरे सत्ता के गलियारों से आ रही हैं, उनसे तो यही आभास हो रहा है कि अभी कई और कड़वे डोज आम जनता को ही पीने हैं!