नौताड़ : बादल फटने के बाद हुई तबाही की एक रिपोर्ट

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Indresh Maikhuri for BeyondHeadlines

दुनिया में नदियों के किनारे सभ्यताओं के विकास का लंबा इतिहास रहा है. लेकिन पिछले कुछ अरसे से उत्तराखंड में नदी तो क्या छोटे-छोटे गाड़-गदेरे (नाले-झरने) भी यहां के मनुष्य के लिए खतरनाक होते जा रहे हैं.

पिछले दिनों टिहरी जिले के नौताड नामक स्थान पर बादल फटने और उसके बाद गदेरे में आये भारी मलबे से हुई तबाही ने प्रकृति के विकराल रूप को एक बार फिर सामने ला दिया.

नौताड़, राजस्व गाँव जखन्याली का एक छोटा सा तोक है, जहां मुश्किल से 15-20 परिवार निवास करते हैं. यह स्थान घनसाली से लगभग पांच किलोमीटर और पुराने टिहरी शहर को डुबो कर अस्तित्व में आये नए टिहरी शहर से यह लगभग पचास किलोमीटर की दूरी पर है.

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30 जुलाई की रात को जब नौताड़ के बाशिंदे सोने गए होंगे तो उन्हें सपने में भी गुमान नहीं रहा होगा कि कैलेण्डर में तारीख बदलने के कुछ घंटों के बाद ही उनका सब कुछ मलबे में दफ़न हो जाएगा. रात में लगभग सवा दो बजे के आसपास, आबादी से लग कर बहने वाल रुईस गदेरा अपने साथ पहले पानी और फिर भारी मात्रा में मलबा ले कर आया. उसने पूरे नौताड़ को तहस-नहस कर दिया.

कुछ मकानों के टूटे हुए हिस्से तो तबाही की कहानी बयान करते प्रतीत होते हैं, लेकिन तबाही की भयावहता का सबसे अविश्वसनीय सबूत, वह मलबे का ढालदार मैदान है, जिसके बारे में स्थानीय निवासी इंगित करके बताते हैं कि यहाँ आठ कमरों का दो मंजिला मकान था, वहां पर चक्की थी, गौशाला थी, खेत थे. पहली बार मलबे के इस ढालदार ढेर को देख कर अपने दिमाग में यह आकृति बनाना भी मुश्किल है कि मलबे के नीचे दफ़न वह आठ मंजिला मकान कैसा दिखता होगा?

इस तबाही ने सात लोगों की जीवनलीला समाप्त कर दी, जिसमें दो बच्चियां और दो महिलायें शामिल थी. बच्चियों के बारे में सरकारी स्कूल में शिक्षक रविन्द्र बिष्ट बताते हैं कि एक बच्ची उनके स्कूल में पढ़ती थी. उनके परिवार को शाम को घनसाली वापस लौटना था, लेकिन किन्ही कारणों से नहीं लौट पाए और इस हादसे का शिकार हो गये.

एक व्यक्ति गंभीर हालत में है, जिसे पहले हिमालयन अस्पताल, जौलीग्रांट, देहरादून में भर्ती करवाया गया और वहां से दिल्ली रेफर कर दिया गया है.

मरने वालों में एक व्यक्ति मलबे के ढेर में या तो दफ़न हो गया या पानी के तेज़ बहाव में बह गया, कहना मुश्किल है. लापता हुए इस शख्स का नाम राजेश नौटियाल था.

ग्रामीण बताते हैं कि राजेश नौटियाल ग्राम प्रहरी था. उसी ने लोगों को गदेरे में पानी बढ़ने और मलबा आने के खतरे से आगाह किया था. कुछ लोग और गाय आदि तो वह बचाने में सफल रहा. लेकिन स्वयं को न बचा सका.

राजेश नौटियाल ग्राम प्रहरी था, वही ग्राम प्रहरी जिन्हें सरकार मानदेय के नाम पर 500 रूपया महीना यानि 16 रूपया प्रतिदिन देती है. यह भी बढ़ा हुआ मानदेय है. पहले ये ग्राम प्रहरी 200 रूपया प्रतिमाह यानि 6 रूपया प्रतिदिन पाते थे. बताते हैं कि राज्य सरकार ने घोषणा तो 1000 रुपया प्रतिमाह की कर दी है पर मिल 500 रूपया ही रहा है. इतने कम पैसा पाने वाले, नाममात्र के सरकारी तंत्र के अंग ने अपने पद “ग्राम प्रहरी” के नाम को तो सार्थक कर ही दिया. पर क्या राज्य के प्रहरियों और रखवालों के लिए नौताड़ का ग्राम प्रहरी किसी प्रेरणा का स्रोत बन पायेगा?

ऐसी आपदाएं जब भी घटित होती हैं, सरकारी तंत्र कितना ही संवेदनशील दिखने की कोशिश क्यूं ना करें, वो लचर ही नज़र आता है. देखिये ना कैसी अजीब हालत है कि सामजिक संस्थाएं तत्काल मौके पर पहुंच कर लोगों को खाना, कपडे आदि उपलब्ध करवाने का काम शुरू कर देती हैं. लेकिन शासन-प्रशासन या तो उदासीन या फिर लाचार नज़र आता है.

2 अगस्त को नौताड का दौरा करने वाले युवा सामाजिक कार्यकर्ता अरण्य रंजन बताते हैं कि टिहरी के जिलाधिकारी ने उनके साथियों से बच्चों के लिए कपड़े उपलब्ध करवाने का आग्रह किया.

वे सवाल उठाते हैं कि क्या प्रशासन इतना भी सक्षम नहीं कि 6 बच्चों के लिए कपड़ों का इंतजाम कर सके? बिजली-पानी बहाल करने में ही 48 घंटे से अधिक का समय लग गया. 2 अगस्त को शाम के सात बजे के आसपास नौताड में बिजली और पानी बहाल किया जा सका.

यह बेहद अजीब है कि एक छोटी सी जगह पर आया मलबा सरकारी अमले को इस क़दर मजबूर कर दे कि उसे बिजली-पानी सुचारू करने में दो दिन लग जाएँ. अलबत्ता सरकारी कारिंदों ने नल में पानी आते ही उसकी फोटो खींचने में ज़रुर बिजली की सी फुर्ती दिखाई.

प्रशासन के इस ढीलेपन के चलते ही प्रभावितों ने पहले दिन राहत राशि के चेक लौटा दिए. प्रभावितों का आक्रोश जायज ही था कि बच्चों के लिए दूध, दवाईयों, कपड़े और बिजली-पानी का इंतजाम नहीं हो रहा है तो वे इन चेकों का क्या करेंगे?

मकानों के लिए मिलने वाले मुआवज़े को लेकर भी लोगों में असंतोष है. स्थानीय राजनीतिक कार्यकर्ता जयवीर सिंह मियां कहते हैं कि आठ कमरों के दो मंजिले मकान का, जिसमें 6 भाई रहते थे, एक लाख रूपया दिया जा रहा है और इस लाख रुपये को ही 6 हिस्सों में बांटने को कहा जा रहा है.

जाहिर सी बात है कि 1 लाख रुपये में 6 भाई तो क्या एक भाई के लिए भी मकान बना पाना मुमकिन नहीं है. लेकिन वो सरकार ही क्या जो लोगों के संकट के समय भी तर्कहीन और संवेदनहीन नज़र ना आये!

भाकपा (माले) ने क्षेत्र का भ्रमण कर मांग की कि नौताड़ वासियों को सुरक्षित स्थान पर पुनर्वासित किया जाए और उन्हें ज़मीन के बदले ज़मीन और मकान के बदले मकान मिले. अपना सब कुछ गंवा चुके परिवारों को आर्थिक रूप से सुदृढ़ होने तक प्रतिमाह दस हजार रूपया गुजरा भत्ता दिया जाए.

लोगों को बचाने में अपनी जान गंवा देने वाले ग्राम प्रहरी राजेश नौटियाल को मरणोपरांत वीरता पुरस्कार से नवाजा जाना चाहिए और उनके परिवार के एक आश्रित को सरकारी सेवा में लिया जाना चाहिए.

नौताड़ में इस त्रासदी का कारण रुईस गदेरे का आक्रामक रूप अख्तियार करना था. आम दिनों में मुश्किल से एक मीटर पानी वाला यह गदेरा, 31 जुलाई को जितना पानी और मलबा लेकर आया, वह अकल्पनीय है. लेकिन पानी के इस प्राकृतिक स्रोत के इतने सटा कर बनाए गए मकान एक तरह से दुर्घटना को आमन्त्रण ही थे.

इसी क्षेत्र के 74 वर्षीय बुजुर्ग उत्तम सिंह मियां बताते हैं कि नौताड़ गाँव तो पहले पहाड़ पर ऊपर था. जिस स्थान पर बसासत को रुईस गदेरे ने तहस-नहस कर दिया, वहां तो पहले लोगों की छानियां (गौशालाएं) और खेत ही होते थे. सड़क आने पर ही यहां मकान बनाना शुरू हुए.

उत्तम सिंह मियां कहते हैं कि गदेरे के नज़दीक मकान नहीं बनाने चाहिए थे. तबाही का यह भयावह दृश्य देख रही पड़ोस के गांव की एक महिला को वे डांटते हुए कहते हैं कि उस के परिवार ने गदेरे के किनारे मकान बना कर अपने को ऐसे ही संकट के मुंह में डाल दिया है.

ये बुजुर्गवार बताते हैं कि लगभग 50 साल पहले भी छ्म्ल्याण के गदेरे (भिलंगना नदी के दूसरे छोर की तरफ स्थित) में ऐसे ही भारी बारिश के बाद पानी और मलबा आया था. लेकिन उस समय तबाही कम हुई क्योंकि लोगों के मकान गदेरे के इतने नज़दीक नहीं थे.

वे बताते हैं कि उस तबाही को लेकर इस क्षेत्र में लोकगीत भी गाया जाता है- रैंसी खेली पैंसी, रै सिंह दिदा बचो मेरी भैंसी

पहली पंक्ति टेक है, दूसरी पंक्ति में कहा गया है कि राय सिंह भाई मेरी भैंस को बचाओ. इस लम्बे से गीत में उस समय हुई भारी बारिश के बाद की आपदा का पूरा विवरण है कि कैसे कुछ लोग विपदा में फंसे, रात को 12 बजे बाद यह आपदा आना शुरू हुई, आदि-आदि….

यह सिर्फ एक नौताड़ का ही किस्सा नहीं है. पहाड़ में जितनी बसासतें पिछले दस-बीस सालों में अस्तित्व में आई हैं, वे इसी तरह से खतरे के मुहाने पर खड़ी हैं. दरअसल पहाड़ में जहां भी सड़कें बनी, वे नदियों के किनारे ही बनी. सड़के के नज़दीक नयी बसासतें बसनी शुरू हुई और आबादी बढ़ते-बढ़ते प्राकृतिक जल निकासी के स्रोतों तक आ गयी या उन्हें भी अतिक्रमित करने लगी.

यह पूरे पहाड़ की ही समस्या है. नौताड़ का निकटवर्ती कस्बा घनसाली भी ऐसे ही खतरे के मुहाने पर है, जहां नदी में कॉलम खड़े करके मकान बनाए गए हैं. नौताड़ में नदी तो आबादी से थोडा दूरी पर है. परन्तु रुईस गदेरा आबादी से सट कर गुजरता है.

31 जुलाई की रात से पहले भी यह गदेरा बेहद शांत और निरापद नज़र आता रहा होगा और उस हौलनाक रात के बाद भी यह शांत और निरापद ही दिखता है. लेकिन उस रात को जितना पानी और उससे कई गुना ज्यादा मलबा यह गदेरा अपना साथ लाया, उससे ऐसा लगता है, जैसे कि रुईस गदेरा लोगों की जान की कीमत पर भी अपने रास्ते में पड़ने वाले हर अवरोध, हर अतिक्रमण को हटा लेना चाहता हो.

प्रश्न यह है कि क्या हम हर बार नौताड़ जैसी त्रासदियों पर रोने को अभिशप्त हैं? पुरानी बसासतों को हटाया नहीं जा सकता, क्या सिर्फ इस तर्क के साथ उन्हें आपदा की भेंट चढ़ने का इन्तजार करना चाहिए?

सवाल तो यह भी है कि क्या हमारा सरकारी तंत्र आपदाओं से कोई सबक सीखता है? 2012 में रुद्रप्रयाग जिले के उखीमठ क्षेत्र के मंगोली और चुन्नी गाँव भीषण आपदा के शिकार बने थे. लेकिन आज मंगोली गाँव में उसी गदेरे के मुहाने पर मकान बनाना शुरू हो गए हैं, जो 2012 में तबाही लेकर आया था.

वहां मकान बनवा रहे एक सेवानिवृत्त प्रधानाचार्य श्री भट्ट ने इस लेखक को इसी वर्ष जनवरी में बताया कि वे अगस्त्यमुनि में बसना चाहते थे, लेकिन 2013 की आपदा के बाद अगस्त्यमुनि भी निरापद नहीं रहा. देहरादून में ज़मीन खरीदने की कोशिश की, लेकिन वहां आसमान छूते ज़मीनों के भाव उनकी सामर्थ्य से बाहर थे. सो वे वहीं बसने को विवश हैं.

बहुत सारी जगहों पर कुछ प्रभावशाली लोग और कुछ लोग मजबूरी के वशीभूत होकर नदियों, प्राकृतिक जल निकासों को अतिक्रिमित कर भी भवन आदि बना रहे हैं. तो क्या सिर्फ लोगों को ही सब आपदाओं में हुई तबाही के लिए जिम्मेदार मान लेना चाहिए?

लोग तो गलत प्रभाव का इस्तेमाल करके या फिर मजबूरीवश ही ऐसे आपदा संभावित स्थानों पर बसेंगे ही. लेकिन प्रशासन, नियामक निकाय-इनका काम क्या है? ये घूस-रिश्वत लेकर लोगों को खतरे की जगह पर बसने दें और फिर संकट आने पर लोगों को ही दोषी ठहरा दें, क्या इतनी ही प्रशासन और नियामक निकायों की भूमिका है या होनी चाहिए?

जाहिर सी बात है कि उनकी भूमिका लोगों को खतरनाक स्थानों पर बसने से रोकने के प्रभावी उपाय और क़दम उठाने की होनी चाहिए. लगातार एक बाद एक आने वाली आपदा उत्तराखंड में नए सिरे से सड़कें, भवन बनाने के तौर-तरीके पर विचार करने, ठेकेदार परस्त, पूंजीपरस्त विकास के मॉडल पर पुनर्विचार करने का सबक लेकर आ रही है. हमारे भाग्यविधाताओं के पास आम लोगों की चिंता करने की फुर्सत ही नहीं है. इसलिए साल दर साल हम आपदा का दंश झेलने को विवश हैं.

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