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Reading: कश्मीर से लौटे एक पत्रकार की दास्तान…
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BeyondHeadlines > Mango Man > कश्मीर से लौटे एक पत्रकार की दास्तान…
Mango Man

कश्मीर से लौटे एक पत्रकार की दास्तान…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 24, 2014
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23 Min Read
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Abhishek Upadhyay for BeyondHeadlines

पूरे 10 दिन श्रीनगर रहकर लौटा हूं. इन 10 दिनों में कश्मीर ने इस क़दर अपना लिया है कि भुलाए नहीं भूलता.

दुनिया भर के भ्रमों के साथ श्रीनगर उतरा था. जाने कैसे लोग होंगे… न जाने कैसा बर्ताव करेंगे… टिकने भी देंगे या नहीं… मगर वो कहते हैं न कि जब तक आप किसी चीज़ को अहसास की नज़र से न देखो, उसका सच आपकी रूह में नहीं उतर सकता.

पहले दिन श्रीनगर उतरा तो पानी का सैलाब पूरे शहर में तारी था. एयरपोर्ट पर बने प्रीपेड टैक्सी बूथ वालों के लिए ये सुनहरा मौका था. जितना भी किराया बोलते मैं देने को तैयार था, क्योंकि मुझे शहर के भीतर दाखिल होना ही था.

मैंने बूथ पर जाकर बोला कि डल लेक जाना है. उस समय तक इस टैक्सी बूथ पर भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि डल लेक जाना मुश्किल ही नहीं, बल्कि नामुमकिन हो चुका है. पर तुरंत एक कश्मीरी ड्राइवर अपनी इनोवा लेकर आ गया. रुपए की बात आई तो सीधे बोल दिए कि 700 रुपए. वैसे 600 पड़ते हैं मगर इस समय पानी है, कई रास्ते बंद हो चुके हैं तो 100 रुपए ज्यादा देने पड़ेंगे.

उस हालात में तो उसे मैं आंख मूंद कर 2000 रुपए तक दे देता, वो भी सिर्फ शहर के भीतर दाखिल कराने के, अगर उसने एक बार भी मांगे होते. एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही और हुमहामा चौक पार करते ही समझ में आ गया कि डल लेक जाने की बात तो दूर रही, हम किसी रिहाइशी इलाके में ही पहुंच जाएं तो गनीमत है.

पूरा जम्मू-बारामूला हाईवे 7-8 फीट पानी में डूबा हुआ था. हमारे इस ड्राइवर के लिए बड़ा आसान था कि वो हमें किसी भी ठिकाने उतार दे और अपनी लाचारी जाहिर कर पैसा लेकर चलता बने. मगर इस शख्स ने कम से कम 6-7 अलग अलग रास्तों में टैक्सी घुमा दी सिर्फ इस वास्ते कि वो हमें किसी तरह डल लेक पहुंचा सके. जब कुछ नहीं मुमकिन हुआ तो हमें सलाह दी कि हम फिलहाल कहीं आस पास ही ठहर जाएं. फिर यही ड्राइवर हमें परेपोरा के एक होटल ले गया.

होटल का मैनेजर रउफ के पास सिर्फ एक कमरा खाली था. होटल तलाशने वालों की मार मची थी. हर कोई सुरक्षित ठिकाने की तलाश में था. रउफ ने बड़ी मासूमियत से हमारे सामने होटल का रेट कार्ड रख दिया. 1500 रुपए पर डे, एक कमरे का किराया. कमरे में पूरे कश्मीरी ठाठ-बाठ से कालीन बिछी हुई थी. उस हालात में वो हमसे उसी कमरे के लिए 5000 रुपए मांग लेता तो हम मोलभाव करने के लिए भी सोचते भी नहीं. पर उसी 1500 रुपए में वो हमें हमारे सामान समेत कमरे में ले गया.

ड्राइवर नीचे हमारा इंतजार करता रहा. हम सामान रखकर नीचे आए तो ड्राइवर से गुजारिश की वो पूरे दिन हमारे साथ रहे और उससे दिन भर का चार्ज पूछा. उस भले आदमी ने एक झटके में कहा कि 1500 रुपए.

आप सोचिए कि जब श्रीनगर पानी में इस कदर डूबा हो कि हर कोई अपनी जान बचाने की जद्दोजहद में हो, ये ड्राइवर सिर्फ 1500 रुपए में पूरे दिन हमारे साथ रहने को तैयार था. बर्जुला ब्रिज से लेकर रामबाग, ओल्ड छौनापोरा, सनथपोरा, टैंगपोरा, जम्मू-बारामूला हाईवे, हर जगह ये शख्स हमारे साथ गया.

हम जिस वक्त पानी के भीतर कवरेज में थे. हमारी कैमरा यूनिट का लाखों का कीमती सामान इस अनजान ड्राइवर की गाड़ी में था. लौटे तो वो हमेशा बोनट के पास खड़ा हमारा इंतजार करता मिला.

परेपोरा के हम जिस होटल में हम ठहरे थे, उसके सामने एक बेकरी की दुकान थी. खाने-पीने की रसद लगभग खत्म होने को थी. इस बेकरी से सटे होटल में 20-22 साल का जावीद मिला. ये जानकर कि मैं पत्रकार हूं और बाढ़ की कवरेज के लिए आया हूं, काफी देर तक मुझसे बातें करता रहा. बाढ़ की… कश्मीर की… आर्मी की और हां आजादी की भी…

पहली ही मुलाकात में एक अनाम सा रिश्ता बन गया हम दोनों के बीच में. जब तक मैं रहा, वो रोज़ ही कहवे और डबल-रोटी के नाश्ते पर मेरा इंतजार करता रहा. इस नानवेज़ रेस्तरां में दाल चावल सब्जी भी बनती थी, मगर उसकी सप्लाई लगभग खत्म हो चुकी थी.

मैं नानवेज नही खाता हूं. जावीद इस किल्लत में भी सिर्फ मेरे लिए ही नहीं, बल्कि मेरे होटल में ही रूके दिल्ली से आए दूसरे पत्रकारों के लिए भी फ्राइड चावल और दाल सहेज कर रखता था कि उन्हें भूखा पेट न सोना पड़े.

अगले दिन सुबह मेरा ड्राइवर नहीं पहुंचा. होटल के मैनेजर रउफ ने दूसरा ड्राइवर बुलवा दिया. ये अशरफ था. श्रीनगर में मैने जो कुछ भी रिपोर्टिंग की है, वो इस वाहिद शख्स की कर्जदार है.

ये पहले ही दिन से मेरा दोस्त बन गया. मुझे साथ लेकर ये हर उस जगह पर गया, जहां खतरा गले के भी ऊपर था. मुझसे बार-बार एक ही बात कहता- “अभिषेक भाई, तुम रिस्क बहुत लेते हो. मगर ठीक है, ये ज़रूरी भी है.”

श्रीनगर में लोग बुरी तरह भड़के हुए थे. कई-कई दिनों से भूखे-प्यासे, अपनी आंखों के सामने अपने घर-बार साजो सामान और यहां तक कि अपनो को खोते लोग बेहद गुस्से में थे. अशरफ कहां नहीं हमारे साथ था. रामबाग से लेकर हफ्तचिनार-पंडित महाल, नोगाम से लेकर हैदर पोरा और बटमालू से लेकर बादामी बाग तक ये शख्स साए की तरह हमारे साथ रहा.

कुछ जगहों पर लोगों के गुस्से का खतरा बहुत अधिक था. वहां के लिए ये अपने दोस्तों को भी साथ ले आया. ये सब हमारे साथ-साथ साए की तरह चलते थे. जहां लोग भड़कते, उनसे कश्मीरी में बात करते. समझाते कि ये लोग आपकी ही बात दिखाने आए हैं. आपको जो कहना है, कहो. वो सामने आएगा.

मेरा पहले दिन का ड्राइवर एक दिन बाद फिर से हमारे होटल आया. माफी मांगते हुए कि वो अगले दिन पानी में फंस गया था और उसका फोन भी काम नहीं कर रहा था. इसलिए आ नहीं सका और न ही हमें इत्तला कर पाया.

हमारे श्रीनगर रहने तक इस ड्राइवर से भी रोज़ ही मुलाकात होती रही. रोज़ हमारा हाल पूछता रहा- “सर आप ठीक से तो हो? आज कहां कहां गए? एक काम करो… इस जगह पर भी हो आओ… यहां बहुत पानी है… लोग बहुत दिक्कत में हैं.”

जिस दिन में लाल चौक के सरायबल इलाके में पहुंचा. यहां पानी सर से ऊपर था. हमारे होटल में ही श्रीनगर में रहने वाले और अब जापान में सेटल हो चुके एजाज साहब रह रहे थे. इनका घर लाल चौक इलाके में था. ये टोक्यो से खासतौर पर श्रीनगर पहुंचे थे. रिश्तेदारी में मेहंदी की रस्म थी. पिछले चार दिनों से इसी होटल में फंसे हुए थे. रात का खाना हम साथ ही खाते थे.

एजाज साहब अपने किसी परिचय की दुकान से एमटीआर के पैकेज्ड फूड के पैकेट रोज़ ही ले आते थे. रात में रोज़ ही हमें एजाज साहब की बदौलत चावल के साथ दो तीन तरह की सब्जी और दालें मिल जाती थीं.

एजाज साहब को जब मालूम पड़ा कि हमने सरायबल, लाल चौक जाने का इरादा किया है तो वे भी उत्साह से भर उठे. ये जानते हुए भी कि ये रिस्की है, हमसे बोले कि- “मैं भी साथ चलूंगा.”

हमारे लिए इससे बेहतर और क्या हो सकता था कि एक कश्मीरी इस सफर में हमारे साथ हो ले. अशरफ को उस दिन दूसरा काम था. एजाज साहब हमारे साथ हो लिए… लाल चौक के रास्ते में पहले बख्शी स्टेडियम और फिर इक़बाल पार्क पार करते-करते पानी का लेवल कंधे को पार कर रहा था.

एजाज साहब इक़बाल पार्क की रेलिंग के सहारे आगे आगे चल रहे थे. हमारे कैमरे वाला बैग अपने कंधों पर उठाए… उस पूरे रास्ते के चप्पे-चप्पे का अंदाजा था उन्हें. कहां मेन होल है. कहां पानी गहरा है….

इक़बाल पार्क पार हुआ तो आगे का रास्ता एक मकान की छत पार करके ही तय किया जा सकता था. यहां भी वे हमारे आगे थे. किसी तरह से तारों के सहारे हम मकान की छत पर पहुंचे तो यहां ऐसे तमाम लोग शरण लिए मिले जिनके घरों में पानी छत तक घुस आया था. सामने सरायबल की इकराम मस्जिद दिख रही थी. यहां भी लोग घरों के दूसरे माले पर शरण लिए इमदाद का इंतजार कर रहे थे. मगर यहां अभी तक कोई इमदाद नहीं पहुंची थी.

कई दिनों से फंसे ये लोग बेहद गुस्से में थे. यहां कैमरा खोलें तो कैसे? इसी उधेड़बुन में थे कि तभी एजाज साहब ने कश्मीरी में लोगों से बात शुरू कर दी. उन्हें इस बात के लिए राजी किया कि वो अपनी तकलीफ हमसे बयां करें.

हमने कैमरा खोला ही था कि सामने की छत से एक शख्स हाथों में डंडा लिए तेजी से हमारी और दौड़ा. एजाज साहब उसके और मेरे बीच में आ गए. उसे समझाया कि वो अपनी बात कहे. मैंने भी उससे गुजारिश कि वो जो दिल में हो बोले और वादा किया कि वो जो भी बोलेगा, वो रात को टीवी पर होगा.

उस शख्स ने डंडा फेंक दिया. लड़खड़ाती जुबान में बताया कि वो पिछले सात दिनों से यहां फंसा पड़ा है, पर अब तक यहां कोई नहीं आया. किसी ने भी इन लोगों की सुध नहीं ली. उस शख्स ने जो कुछ कहा वो वायदे के मुताबिक रात को टीवी पर था.

अब हमें मकान की छत से उतर कर सड़क पार सामने की गली में जाना था. ये नाज़ सिनेमा के बगल की इमारत थी. नीचे पानी करीब 5 से 6 फुट के बीच था. बेहद ठंडा और तेज़ रफ्तार वाला.

मैंने नीचे उतरने का इरादा किया, क्योंकि नीचे उतरे बगैर सड़क पार की इमारतों में फंसे लोगों तक पहुंच सकना मुमकिन नहीं था. एक बार फिर एजाज साहब मेरे साथ हो लिए. हम गर्दन तक पानी में नीचे की और झूलते बिजली के एक तार के सहारे सरायबल की ये सड़क पार कर रहे थे. दूसरी ओर जो बाशिंदे इमारतों की छतों पर फंसे थे, वे हमे आता देखकर इमारत के कोने वाली छत पर चले आए. वे छत से ही हमे गाइड करते रहे- इधर से आइए, उधर पानी ज्यादा है. इस बल्ली का सहारा लीजिए… यहां खड़े हो जाइए…

एजाज साहब को आगे लाल चौक घंटाघर के पास जाना था. हमें वापस लौटना था क्योंकि अपने टेप को दिल्ली भिजवाने का सिर्फ एक तरीका था, जल्द से जल्द एयरपोर्ट पहुंचकर किसी यात्री से रिक्वेस्ट करना कि वो उसे दिल्ली एय़रपोर्ट तक पहुंचा दे. सिर्फ हमें वापस सड़क क्रास कराने के लिए वो दोबारा पानी में उतरे और हमे दूसरे छोर पर पहुंचाकर फिर लाल चौक की ओर निकल पड़े.

यहां से आगे रामबाग तक हफ्तचिनार इलाके का उजैर हमारे साथ था. उजैर से भी हमारा परिचय सिर्फ इतना था कि हम एक दिन पहले हफ्तचिनार-पंडित महाल इलाके में कवरेज के लिए गए थे. पूरे रास्ते उजैर हमको गाइड करता हुआ, हमारे साथ पानी में डूबता- उतराता हुआ, हमें पार कराता रहा. इस बीच रास्ते में साथ चल रहे लोग, हमारे कैमरे का बैग अपने कंधों पर लिए रहे.

हमारे होटल के मालिक अशफाक भाई रोज़ ही हमारे लौटने का इंतजार कर रहे होते. आज कहां तक पहुंचे? उनका ये रोज़ का सवाल था. जब हम उन्हें बताते कि आज हम सरायबल पहुंचे. आज बटमालू पहुंचे. आज मौलाना आजाद रोड से होकर लाल चौक घंटाघर और डल लेक तक पहुंच गए तो उनकी आंखों में चमक आ जाती.

वे हर शाम कहवे पर हमारा इंतजार करते मिलते. हमारे आने के तुरंत बाद कहवे का आर्डर दिया जाता और रिसेप्शन के पास रखे सोफे की गुदगुदी पीठ पर सिर टिकाकर हम कहवे की गर्माहट में खो जाते.

अशफाक भाई का पहले फ्लोर पर एक छोटा सा आफिस है. ये आफिस रात 8.30 बजे से ही गुलजार होने लगता. अशफाक भाई अपना लैपटाप खोलकर बैठ जाते. चूंकि बाढ़ के चलते केबिल कनेक्शन कब का कट चुका था, पर बीएसएनएल का ब्राडबैंड साथ दे रहा था, सो अशफाक भाई के लैपटाप पर चैनल देखने की सुविधा मौजूद थी.

अशफाक भाई, जैसे ही हमें श्रीनगर के किसी हिस्से से टीवी पर आता देखते, एकदम से चहक उठते. उनकी आंखों में वो जगह अपनी पुरानी चकाचौंध के साथ दस्तक देने लगती. वे टीवी देखते जाते और हमसे कश्मीर के हालात पर बातें करते जाते.

हमने कई बार उन्हें भावुक होते भी देखा. पर ये भावुकता रेशम के धागों सी महीन थी. आप इसे देख नहीं सकते, सिर्फ महसूस कर सकते थे.

अशफाक साहब को नज्मों, गज़लों का पुराना शौक था और हमारी जुबान पर नज्में, गजलें यूं तैरती जाती हैं गोया कि किराए पर कुछ दिन जगह घेरने के बाद अब ये कब्जा करने पर ही आमादा हों. रात अपनी तारीकी के साथ बीतती जाती थी, पर हमारे बीच के अशआर खत्म नहीं होते थे.

कश्मीर के लोगों की दरियादिली की ये दास्तां पता नहीं कितनी लंबी होती जाएगी. मुझे रह रहकर ख्याल आती है, लाल चौक के फ्लाईओवर के पार जहांगीर होटल के सामने की वो रोड जहां पानी सैलाब की शक्ल में चारों ओर बिखरा हुआ था. यही मौलाना आजाद रोड पहले लाल चौक के घंटा घर और फिर प्रताप पार्क होते हुए डल गेट तक जाती थी. हम इसी जगह पर खड़े थे.

पीछे की एक ट्रक पर यासीन मलिक और उनके समर्थक… बेहद उत्तेजित माहौल… हमारी मंजिल इस पानी को चीरते हुए पहले लाल चौक के घंटा घर तक पहुंचने और फिर डल गेट होते हुए डल लेक पहुंचने की थी, ताकि श्रीनगर की इन बेहद मशहूर जगहों पर तबाही की शक्ल का अंदाजा हो सके.

हमारे क़दम जहांगीर होटल के करीब ही ठिठके हुए थे. सबसे बड़ी चिंता कैमरे की थी, क्योंकि अगर ये बात आम हुई कि हम मीडिया से हैं तो इस माहौल में कैमरे का निशान मिलना भी मुमकिन न था. तभी अचानक जेके पुलिस के दो जवान सादी वर्दी में हमारे पास आए. एक आमिर और दूसरे नसीर.

हमने अपने पीछे से आती एक आवाज़ सुनी- “अरे आप यहां क्यों खडे हैं, आगे जाइए. कम से कम लाल चौक का घंटा घर तो देख लीजिए.”

हम एकदम से चौंक पड़े. इन दोनों सिपाहियों ने हमें सरायबल की रिपोर्टिंग करते हुए टीवी पर देखा था. मुझे यकीन नहीं हो रहा था कि क्या ऐसा भी हो सकता है? हम आगे तक जा सकते हैं?

ये दोनों ही हमारे साथ लाल चौक घंटा घर की ओर चल पड़े. इन्हें आगे कोठीबाग पुलिस स्टेशन तक जाना था. हम इन्हीं के साथ पहले लाल चौक घंटा घर और फिर प्रताप पार्क तक पहुंचे.

रास्ते में कोठी बाग पहुंच कर इन दोनों ने हमसे विदा ली. आगे के रास्ते की ताकीद भी की. रास्ते भर ये हमारा हौसला बढ़ाते रहे. यहां से डल गेट के रास्ते में पानी का लेवल और भी ज्यादा गहरा था. चारो ओर बड़े आफिस, कालेज, स्कूल, इमारतें सब पानी में…

रास्ते में यहां भी दो कश्मीरी लड़के मिले. चूंकि रास्ते में डिवाइडर से सटे हुए कई गढ्ढे भी थे जिनमें पैर पड़ने का मतलब कैमरे का पानी में जाना तय था. ये लड़के जो रास्ते से अच्छी तरह वाकिफ थे, हमारे कैमरे का बैग अपने सिर पर रखकर हमारे आगे-आगे चलते रहे, तब तक जब तक कि हम डल गेट नहीं पहुंच गए.

इनसे भी हमारा न कोई परिचय और न किसी भी तरह की कोई जान पहचान… मगर फिर भी दिल खोलकर साथ देने को तैयार… मुश्किल में अकेले न छोड़ने का जज्बा… एक बेहद अजीब, बेहद अपरिचित जान पहचान… एक बहुत भीतर की आत्मीयता… शब्द निढाल हैं, इसकी व्याख्या कर सकने में…

कश्मीर और खासकर कश्मीरियों के बारे में क्यों इतना कुछ लिखे जा रहा हूं? शायद इस सवाल का जवाब भी मेरे पास नहीं. पर जब कोई चीज़ आपके साथ एक बार नहीं, बल्कि बार-बार हो तो उसे स्वीकार करना ही होता है.

परेपोरा के पीछे सनथपोरा मोहल्ले के आसिफ साहब अगर सिर्फ इस वास्ते मुझे अपने घर ले जाकर पूरे एक घंटा अपने लैपटाप और ब्राडबैंड कनेक्शन के साथ माथापच्ची करते रहे कि वो हमें अपने आफिस संपर्क करने का एक अदद साधन मुहैया करा सकें तो इसका मैं क्या जवाब दूं?

ये हमारे श्रीनगर पहुंचने का पहला दिन था जब श्रीनगर में नेटवर्क पूरी तरह ध्वस्त था. सिर्फ कुछ जगहों पर लैंडलाइन फोन चल रहे थे. हमे सनथपोरा इलाके में कैमरे और माइक के साथ जाता देख इन्होंने पहले हमसे श्रीनगर का हाल पूछा और ये जानने पर कि हम खुद अपने आफिस से संपर्क कर सकने में नाकाम हैं, हमें अपने घर ले जाकर अपने लैंडलाइन फोन, लैपटाप, मोबाइल सभी के ज़रिए इस बात की मशक्कत करते रहे कि हम आफिस बात कर सकें.

हमारे पहुंचते ही चाय मंगाई और खाना खाकर जाने की जिद करते रहे. ये एक अचानक हुई मुलाकात थी. न उन्हें हमसे कोई ज़रूरत थी और न ही हमने उनसे कुछ मांगा था. पर फिर भी ये अपनापन…

अजीब मंजर था ये जो इतने दिनों तक आंखों के आगे गुज़रा. इस क़दर दिल के सच्चे लोग. जो दिल में वही उपर. मदद, इमदाद को हमेशा तैयार… ये लोग इस मुल्क की अमानत हैं… ये हमारी दौलत हैं… ज़रूरत है इनके साथ संवाद की… इन्हें समझने की और खुद को इनके आगे खोलने की… इनके विकास की राह में खड़ी राजनीति की दीवारों को गिराने की…

सच्चाई तो यही है कि चाहे वो पीडीपी हो, नेशनल कांफ्रेंस हो, कांग्रेस हो या बीजेपी, इन सभी ने इन्हीं लोगों के अरमानो पर राजनीति की दीवारें खड़ी की हैं. दरअसल, इन्हीं दीवारों को तोड़ने की ज़रूरत है.

और हां! श्रीनगर से लौटकर ये भी पूरी शिद्दत के साथ लगता है कि कश्मीरी पंडितों को भी इन्हीं वादियों में उनकी पुरानी जगह दी जानी चाहिए और वो भी पूरे सम्मान के साथ. और ये बिल्कुल भी नामुमकिन नहीं है. बस ज़रूरत इच्छाशक्ति की है.

जिस दिन कोई सरकार ये ठान लेगी कि वो कश्मीर को राजनीति के चश्मे से नहीं, बल्कि इंसाफ और मानवता के चश्मे से देखगी, यहां की सूरत बदल जाएगी. यहां के लोगों के दिल में स्पेस ही स्पेस है.

अफसोस की बात यह है कि इस स्पेस को सिर्फ सत्ता की खातिर राजनीति के ज़हर से पाटने की कोशिशे होती रही हैं और आज भी हो रही है. आप कश्मीरी पंडितों को उनके घरों में पूरे सम्मान और सुरक्षा के साथ वापस भेजिए… उन्हें रोज़गार मुहैय्या कराइए… उन्हें जीने के साधन मुहैय्या कराइए… जो दहशतगर्द इसका विरोध करें, उन्हें उनकी औकात बता दीजिए…

पर कौम के नाम पर, जाति के नाम पर, मज़हब के नाम पर कश्मीरियों को अलग थलग करने की कोशिशें कतई मत कीजिए… क्योंकि हर ऐसी कोशिश देश की नींव पर चोट करती है. वैसे भी फौजें ज़मीन के टुकड़े को साथ रख सकती हैं, इंसानी दिलों को नहीं…

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