Dr. Firdous Azmat Siddiquee for BeyondHeadlines
बहुत हो गया लव जिहाद और मीट जिहाद… अब कुछ नई बात करते हैं. क्यों न अब ड्रेस जिहाद का मुद्दा उठाया जाए.
ज़रा देखिए तो हमारी संस्कृति कहां जा रही है? हमारी यह नाफरमान औरतें क्या पहनने लगीं? कहीं इनका मुल्लीकरण तो नहीं हो रहा है? शलवार-कुर्ता वो भी पाकिस्तानी कुर्ते के पीछे पागल हो रही हैं. ज़रा इनकी लगाम तो कसा जाए. कहीं ऐसा तो नहीं इस ड्रेस की वजह से मुल्ले उन्हें अपने में से एक समझ रहे हैं और नतीजे में ‘लव जिहाद’ बढ़ रहा है.
अगर इस ड्रेस के दिन प्रतिदिन बढ़ते इस्लामीकरण पर रोकथाम नहीं की गई तो मामला संजीदा हो सकता है. हमारी वह तमाम राष्ट्रवादी क़ुरबानियां फ़िज़ूल चली जाएंगी.
वह हिन्दुओं का साड़ी प्रेम और मुसलमानों का शलवार-कुर्ता से दिवानगी… पूरे स्वदेशी आंदोलन में औरतों का आहवान होता तो सूत साड़ी बनाने के लिए कातने की बात होती, शलवार क़मीज़ की बात न होती. ठीक वैसे ही जैसे नवाब मोहसिन-उल मुल्क काफी परेशान थे कि मुस्लिम औरतों मे बढ़ रहे साड़ी के प्रचलन से… एक मशहूर हिन्दी के कवि ने तो यहां तक कह दिया कि मेरी बेटी अगर शलवार कुर्ता पहन ले तो उसे मैं अपनी बेटी मानने से इंकार कर दूं.
ग़ौरतलब बात यह है कि गत कुछ महीनों से पाकिस्तानी कुर्तों ने हिन्दुस्तानी बाज़ार पर ऐसा क़ब्ज़ा कर लिया है कि क्या शंकर मार्केट (कनाट पैलेस), लाजपत नगर या सरोजनी नगर की मार्केट हर जगह पाकिस्तानी कुर्तें…. बटला हाउस की तो बात ही छोड़ दें.
एथनिक नार्मल साइज़ (घुटनों तक) की तरफ तो कोई नज़र उठाकर नहीं देख रहा. सबको चाहिए 46 से 48 सें.मी. के कुर्ते चाहे खुद का साइज़ बावना ही क्यों न हो. और हिन्दुस्तानी कुर्तों को मात देने मे हमारी पॉपुलर मीडिया का भी काफी रोल रहा. जहां संस्कृति रक्षक एकता कपूर ने विलुप्त हो रही बनारसी साड़ी को अपने सास बहू सीरियल मे जीवन दे रखा था तो किरण खेर के पकिस्तान प्रेम ने साइड लगा दिया.
अब तो घर-घर ज़िंदगी चैनल के ज़िंदगी ग़ुलज़ार हैं, मौत, हमसफर सीरियल की बात होती है और ज़ारून (फवाद खां) तो लड़कियों के ख़्वाब में आ चुका है. और चोरी-चोरी… चुपके-चुपके इन सीरियल के साथ पाकिस्नानी कुर्तों ने अपनी जगह बना ली, जो दशकों से नार्मल कुर्ते साड़ी पहनने वाली औरतों का नज़रिया नहीं बदल पाए थे. अब लोग 6 साल से चल रहे उतरन और बालिका वधू से बोर हो गए हैं. उन्हें अब ज़िंदगी ग़ुलज़ार है, में मज़ा है तभी तो किरण जी ने इसे दोबारा टेलीकास्ट कर दिया.
एथनिक कपड़ों की तलाश मे अक्सर मैं एक्ज़ीबिशन जाती हूं, पर इस बार प्रगति मैदान की एक्ज़ीबीशन (आलीशान पाकिस्तान,11-14 सितम्बर) को देखकर तो मेरा मुंह ही खुला रह गया. पूरा प्रगति मैदान खचाखच भरा. यहां तक कि आस-पास पार्किंग की भी जगह नहीं. गाड़ी चिड़िया घर पर पार्क हो रही थी. फिर भी लोगों के जोश में कोई कमी नहीं. चारों तरफ धक्का-मुक्की, दाउद, सफीना, हिलाल सिल्क, फैसलाबाद गार्मेंट कम्पनी और न जाने कितनी ब्रांड…
दुकान पर खड़ा होने की जगह नहीं. फैसलाबाद की स्टाल पर ही खड़े-खड़े एक दूसरे कस्टमर से मैंने आदतन बातचीत शुरू कर दी. वह भी हमारी तरह बतोले निकले. नाम था अशोक… और अपनी बेटी को पाकिस्तानी सूट दिलाने लाए थे. उनके साथ उनकी पत्नि भी बीच-बीच में गुफ्तगू में शरीक़ हो जाती. बोले ऐ साहब पूछिए न पाकिस्तानी कुर्तों का क्रेज़… मेरी बेटी ने तो एक हफ्ता पहले ही मुझे बुक कर लिया था कि पाकिस्तानी एक्ज़ीबिशन देखने जाना है.
अरे यह सब किरण जी की मेहरबानी है कि घर घर ज़िंदगी चैनल पहुंच गया है. सब वही पहनना चाहते हैं. अभी तक तो हिन्दुस्तानी कपड़ों का पाकिस्तानीकरण हो रहा था. अब जब सीधे पाकिस्तान के कपड़ें मिल रहे हैं तो क्या बात है. और उनके सीरियल का भी जवाब नहीं. 10-15 एपीसोड में खत्म हो जाते हैं. यहां तो हम सालों तक एक सीरियल को देखते-देखते बोर हो जाते हैं.
पास मे ही एक पाकिस्तानी बेटी, जो हिन्दुस्तान की बहू थीं, उनकी भी हौसला अफज़ाई हुई तो झट कहा कि क्या बात है किरन खेर जी की. उन्होंने तो हमारी मायके की यादों को ही भुला दिया. हमारे यहां सीरियल बड़े तहजीब के दायरे में बनते हैं. औरतों को निगेटिव नहीं दिखाते. वगैरह-वगैरह… यह किरण जी की ही हिम्मत थी कि यह चैनल शुरू कर सकीं कोई और सियासतदान यह सोच भी नहीं सकता था.
दरअसल, औरतों और कपड़े को लेकर संस्कृति रक्षक या तहजीब के नुमाइंदे तक़रीबन पिछली सदी से ही बड़े सजग रहे. इस पर काफी कुछ लिखा भी जा चुका है. किस तरह हरम में रह रही हिन्दू औरतें मुस्लिम बच्चे जन्म देकर मुसलमानों की तादात में इज़ाफ़ा कर रही हैं. वगैरह-वगैरह…
और बड़ी मुश्किल से मुसलमान औरतें जो हिन्दू अंतपुर में रहकर इज़ाफ़ागिरी की, उनके योगदान को नज़रअंदाज़ किया गया. इसका दूसरा पहलू शायद ही किसी को समझ में आए कि किस तरह हिन्दुस्तानी औरतों ने हमारी गंगा-जमुनी तहजीब को बचा रखा है.
प्यार और एहसास पर तो पहरा लगा दिया गया कि कोई मुस्लिम औरत हिन्दू के घर नहीं जाएगी और हिन्दू मुस्लिम के घर नहीं जाएगी. कई ऐसे सर्वे सामने आए हैं कि अब पड़ोस में भी लोग एक-दूसरे के घर नहीं जाते.
कहां बचपन के वो दिन. वह दिवाली पर घरौंदे बनाना. वह होली पर रंग खेलना. दशहरा पर रौशनी देखने जाना. वो एक तरफा क़तई न था. वह भी ईद-बक़रीद पर उतना ही बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते.
पर अचानक यह क्या हो गया? यह सब कुफ्र कैसे बन गया? किसी के लिए इस्लामीकरण हो गया. पहले तो नार्थ और साउथ के ड्रेस में फर्क होता था. लोकल क्षेत्र के बिना पर फर्क था. अब तो हिन्दी और उर्दू की तर्ज़ पर साड़ी और शलमार-कमीज़ में फ़र्क हो गया. जिसे मौजूदा फैशन ट्रेंड ने काफी चुनौती दी है. वर्ना मुझे वह दिन भी याद है कि हिस्ट्री डिपार्टमेंट, इलाहाबाद विश्वविधालय की हमारी एक महिला प्रोफेसर के वह अल्फाज़ –अरे यह यूनीवर्सिटी में तो शलवार क़मीज़ पहन कर आना मैंने शुरू किया. वर्ना यहां के लोगों को तो फैशन का कोई सेंस ही नहीं था. यह तो सिर्फ साड़ी पहनते थे जो कि रोज़-रोज़ पहनना मुझे सहूलियत नहीं देता.
इस बात के बाद मैंने ग़ौर किया तो सचमुच यूनिवर्सिटी मे साड़ी कल्चर ही था. और यहां जामिया में उल्टा शलवार कमीज़ आम है. साड़ी कभी-कभार… उसी तरह से जिस तरह पाकिस्तानी सीरियल में यंग एज में लड़किया सूट पहनती हैं, पर जैसे ही उनकी उम्र को उम्रदराज़ किरदार में दिखाना हो, तो उनके बाल नहीं रंगते, बल्कि ड्रेस बदल देते हैं. साड़ी पहना कर उनकी उम्र दराज़ी को दिखाने के लिए…
पाकिस्तान और हिन्दुस्तान चाहे जितना औरतों के फैशन पर रोना कर ले, पर उनका ड्रेस उनकी मर्ज़ी तय करेगी न तो संस्कृति या तहजीब. ठीक उसी तरह जिस तरह हमारे माननीय प्रधानमंत्री जी नेहरू जी के नक़्शे क़दम पर शुद्ध गंगा-जमुनी कपड़े पहनते हैं.
नेहरू पैजामा के बाद इस तथाकतिथ इस्लामी ड्रेस को मोदी जी ने ही इतना पॉपुलर किया कि आज हर लड़का मोदी कुर्ता चाहता है. गुरेज़ है भी तो सिर्फ टोपी से, वर्ना कुर्ता-पैजामा है, दाढ़ी भी बस एक कमी रह गई. सवाल सिर्फ सहूलियत का है. चाहे वह शलवार क़मीज़, कुर्ता-पैजामा या साड़ी…
(लेखिका सरोजनी नायडू सेंटर फॉर वूमेन स्टडीज़, जामिया मिल्लिया इस्लामिया में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं.)