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सिपाहियों के दम पर कभी शांति आ सकती है?

Himanshu Kumar for BeyondHeadlines

7 अक्टूबर, 2014… छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा ज़िले के बुरगुम गांव में पुलिस और अर्धसैनिक बल के जवानों ने यहां के आदिवासियों की पिटाई करी. घरों में छुपी हुई महिलाओं के गहने खींच लिए. आदिवासियों द्वारा घर में महुआ, बकरा बेच कर बचाए हुए रूपयो को लूट लिया. इनके मुर्गों तक को नहीं छोड़ा…

आपको शायद यह सब सामान्य लगता होगा… लेकिन दिल्ली में या आपके शहर में आपके घर में घुस कर अगर पुलिस आपकी पत्नी या आपकी बहन के कान से सोने के जेवर खींच ले और पुलिस की पिटाई से आपकी बहन की नाक से खून निकलने लगे. उसके बाद आपको भी बंदूक के कुंदे से पेट में मारा जाए. पुलिस आपसे कहे कि मुहल्ला छोड़ कर चले जाओ, नहीं तो फिर से तुम्हारा यही हाल करेंगे क्योंकि तुम्हारे घर पर अम्बानी साहब को कब्ज़ा करना है… तब शायद यह एक ख़बर बनेगी…

लेकिन जब यही सब आदिवासियों के साथ इसी हफ्ते हुआ. तब यह भयानक घटना किसी अखबार के अंदर के पन्नों पर भी नज़र नहीं आया. किसी मीडिया में इसकी चर्चा नहीं हुई.

पर इन आदिवासियों का भोलापन देखिए…. वो दिल्ली आकर अपनी बात मीडिया और अदालत को सुनाना चाहते हैं. लेकिन उन आदिवासियों को कौन समझाए कि उनकी बातें यहां सुनना ही कौन चाहता है?

ज़रा सोचिए! क्या आज़ादी के समय किसी ने यह कल्पना भी की होगी कि एक दिन भारत के लोग अपने एशो-आराम के लिए अपने ही देशवासियों को मारेंगे? और इस मार-काट को विकास के लिए ज़रूरी मान लिया जाएगा?

यही अंदरूनी साम्राज्यवाद है. क्योंकि जैसे अंग्रेज़ अपने एशो-आराम के लिए दूसरे देशों को लूटते थे और उन पर हमला करते थे. ठीक वैसे ही हम भी अपने ही देश के गांव और जंगलों को लूटने के लिए अपने सिपाहियों का इस्तेमाल कर रहे हैं.

लेकिन आप समझ लीजिए… आपकी इस लूट से सिर्फ युद्ध निकलेगा. इस लूट और आपके हमलों के जारी रहते हुए आप शांति की उम्मीद कर ही नहीं सकते. आपसे अगर कोई सरकार कहे कि वह और ज़्यादा सिपाही भेज कर आदिवासी इलाकों में शांती करवा देगी तो उस सरकार पर भरोसा मत कीजियेगा…

क्योंकि सिपाहियों के दम पर कभी शांति आ ही नहीं सकती. शांति का रास्ता ही दूसरा है…

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