असीमित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता…

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Vivek Singh for BeyondHeadlines

तख्त और ताज वक्त बदलने के साथ बदलते रहते हैं. एक आदर्श राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था अपने नागरिकों को कई अधिकार देती है. तो तानाशाही और रूढिवादी आधारित समाज के नए विचार फांसी के तख्ते पर चढ़ा दिए जाते हैं.

कुछ अधिकारों की ज़रूरत हर सामाजिक व राजनीतिक प्रणाली में महसूस की जाती है. यह लोकतंत्र के लिए ज़रूरी भी है. लेकिन सिर्फ लोकतंत्र तक सीमित नहीं…

लोकतांत्रिक व्यवस्था पर आधारित समाज यह सूनिश्चित करता है. उसके नागरिकों को वे तमाम अधिकार दिए जाएं, जो लोकतंत्र में ज़रूरी हैं. अभिव्यक्ति की आजादी उन सभी अधिकारों का संरक्षण करती है और वक्त पर उनकी हिफाज़त के लिए आवाज़ भी बुलंद करती है.

आज जो सवाल लोकतंत्र और मानवाधिकारों के साथ सीधे तौर पर जुड़ा है वह है –अभिव्यक्ति  की आजादी…

देश दुनिया में सरकारें और सत्ता अपनी ताक़त की बदौलत अभिव्यक्ति की आजादी के लिए दायरे बनाने का काम कर रही हैं. इसमें अभिव्यक्ति को कहीं न कहीं सत्ता के लिए एक समानांतर चुनौती मानकर इसे सरकारों, परम्परागत मान्यताओं और रूढियों पर आधारित विश्वासों का प्रबल विरोधी समझा जाता है. वहीं समाज का एक वर्ग अभिव्यक्ति की आजादी को सीमित करने के बजाए कुछ जिम्मेदारियों तय करना ज़रूरी समझता है.

बहरहाल दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अभिवक्ति की असर भी अलग हुआ है. कुछ देशों के लिए यह नए दौर का ज़रिया बनी तो किसी के लिए आग का दरिया…

अभिव्यक्ति की आजादी स्वतंत्रता का आधार है. यदि किसी देश के नागरिक को वहां का कानून तमाम अधिकार देता है, लेकिन अभिव्यक्ति की आजादी पर बिंदु लगा देता है. तो शेष अधिकारों का कोई औचित्य नहीं है.

किसी दौर में पर्दा प्रथा को शालीनता का प्रतीक माना जाता था. लेकिन आज यह व्यवहारिक नहीं है. यूरोप में पोप और धार्मिक संस्थाओं के खिलाफ बोलने वाले को जिंदा जलाया जाता था. उस दौर का कानून अभिव्यक्ति पर बंदिश को उचित मानता था, लेकिन आज यह हास्यपद लगता है. गैलीलियो जैसे कई प्रतिभावान वैज्ञानिकों को इसी वजह से कैद में जि़न्दगी गुजारनी पड़ी है.

नई सोच और विचारों के लिए यह ज़रूरी है कि हम ऐसी व्यवस्था का स्वागत करें, जो पाबंदी लगाने के पक्ष में नहीं है.

हाल ही में अमेरिका की बेडी डोनिगर द्वारा हिन्दु धर्म पर लिखी किताब ’दि हिस्ज एन अलटरनेटिव हिस्ट्री’ विवादों की वजह से चर्चा में रही. किताब के प्रकाशक पेंगुइन इंडिया ने इसे वापस ले लिया. और उसकी शेष रही प्रतियां भी नष्ट करने का निर्णय लिया गया.

जबकि इसी किताब को लगभग दो साल पहले रामनाथ गोयनका पुरस्कार से भी नवाजा गया था. यह बीते चार वर्षों से बिक रही थी. दिल्ली की शिक्षा बचाओ समिति ने इस पर हिन्दुओं के धार्मिक भावनाओं के ठेस पहुंचाने का आरोप लगाया. यह संस्था किताब के प्रकाशक के खिलाफ मुक़दमा लड़ रही थी. आखिरकार प्रकाशक पेंगुईन इंडिया ने इसे वापस लेने का फैसला किया.

वास्तविकता की स्वतंत्रता के जुड़ी अहम समस्या यह है कि इस मामले में दूरदर्शिता को शामिल नहीं किया जाता है और यही परिवर्तन का सबसे महत्वपूर्ण घटक है. लेकिन उच्चखलता में नहीं बदलना चाहिए.

सोशल साइट पर कड़ा प्रतिबन्ध आलोचनात्मक वेबसाइट या समाचार स्रोतों पर अंकुश और दार्शनिकों को देश से निकालना या मृत्यु दण्ड जैसी व्यवस्था समाज को जड़ता और पतन की ओर ले जाती है. सलमान रूश्दी और तस्लीमा नसरीन और एम. एफ. हुसैन जैसे कई मिसालें हैं,  जिनकों अपने विचारों को व्यक्त करने की सजा कहीं न कहीं भुगतनी पड़ी है.

साहित्य और कलाएं समाज निर्माण, चेतना व नवनिर्माण का ज़रिया हैं. बेहतर होगा कि हम किसी को निशाना बनाने के बजाए इनका सकारात्मक इस्तेमाल करें.

गौरतलब है कि अति विवादस्पद पुस्तकें और कार्टून साकारात्मक संदेश नहीं देते. यह सामाजिक विद्वेश और कटुता बढ़ाते हैं.

क्या होता अगर मध्य युग के धार्मिक संस्थाओं द्वारा स्वर्ग के टिकटों के खिलाफ मार्टिन लूथर आवाज़ न उठाते. अगर राजा राममोहन राय समुद्र यात्रा के विरोध और सती प्रथा को विवेक रहित न बताते. ईश्वर चन्द्र वि़द्यासागर विधवा विवाह का पक्ष नहीं लेते. और महात्मा गांधी अगर अंग्रेजी कानून को अस्वीकार न करते?

अगर मानव समाज के इतिहस में ये घटनाएं न होती तो आज हमारा समाज इतनी प्रगति नहीं कर सकता था. तब यहां धार्मिक आधार पर मध्य युग के नियम और कट्टरता, मानसिक संकुचन और रूढिवाद का खासा प्रभाव होता.

गांधी की आजादी उस समय गुलामी कानून था, आज यह बीते दौर की बात है. दरअसल अभिव्यक्ति की आजादी में भविष्य के निर्माण की संभावनाएं मौजूद होती हैं. और इस पर प्रतिबंध विकास और मानवता के विरूद्व विभिन्न समस्याएं लेकर आता है.

वर्तमान परिस्थितियां यह कभी निर्धारित नहीं कर सकती कि जो आज निषिद्व है. वह भविष्य का आदर्श है या नहीं. इसलिए मेरा मत है कि असीमित अभिव्यक्ति स्वतंत्रता होनी चाहिए, क्योंकि यही वर्तमान की मांग और भविष्य के समाज का आधार है.

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