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Reading: हक़ मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है…
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BeyondHeadlines > Mango Man > हक़ मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है…
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हक़ मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published December 10, 2014 2 Views
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4 Min Read
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Anjali Punia & Masud Alam for BeyondHeadlines

10 दिसम्बर…. अंतर्राष्ट्रीय मानव अधिकार दिवस… जामिया मिल्लिया इस्लामिया का फाईन आर्ट डिपार्टमेन्ट… अबरार अपनी पेन्टिंग बनाने में व्यस्त हैं. वो इसी डिपार्टमेन्ट में अप्लाइड आर्ट्स के छात्र हैं. हमारे दो-चार बार सवाल करने पर वो अपनी पेन्टिंग बनाते-बनाते चेहरे पर गंभीर भाव लिए सिर्फ इतना ही बोलते हैं, “सब कुछ फांसी के तख़्ते पर लटका हुआ है…”

उनका बनाया पोस्टर भी ऐसा ही कह रहा था. एक स्त्री अर्धनग्न और ज़ख्मी हाल में फंदे से लटकी हुई है. साथ में संविधान भी फंदे से झूल रहा है. इस पेन्टिंग में एक गहराई थी और कई सवाल भी…

अबरार के साथ कई और लोग अपनी-अपनी पेन्टिंग बनाने में व्यस्त थे. दरअसल, मामला प्रतियोगिता का था. जिसे जामिया के पॉलिटिकल साईंस डिपार्टमेंट की मदद से दिल्ली के ‘ओरिजिन’ नाम की एक गैर-सरकारी संस्था ने आयोजित किया था. इसके अलावा इस संस्था ने एक निबन्ध लेखन प्रतियोगिता का भी आयोजन किया था. जिसमें जामिया व जेएनयू के साथ-साथ दूसरे कॉलेज के छात्रों ने भी हिस्सा लिया था.

इस प्रतियोगिता के निर्धारित समय के बाद अब कार्यक्रम पॉलिटिकल साईंस डिपार्टमेन्ट के सेमिनार हॉल में होना था, जहां प्रतियोगियों को ईनाम से नवाज़ा जाने वाला था.

यहां मानव अधिकार के मुद्दे पर बोलने के लिए कई वक्ता भी थे. लेकिन आकर्षण का केन्द्र कार्यक्रम के मुख्य अतिथि लेनिन रघुवंशी ही थे, जो बनारस से इस कार्यक्रम में आए थे.

सबकी बातें काफी प्रेरणादायक थी. लेकिन एक सवाल हम दोनों के मन में लगातार आ रही है कि क्या वास्तव में सब कुछ फांसी के तख़्ते पर लटका हुआ है…?

आखिर मानव अधिकार की बातें हम सिर्फ एक ही दिन क्यों करते हैं? क्या यह अधिकार हमें इसलिए दिया गया है कि हम नागरिक हैं… शायद नहीं… हमें यह अधिकार किसी सरकार ने भीख में नहीं दी है. बल्कि मानव होने के नाते प्रकृति ने खुद दिया है. इसीलिए युरोप में इसे प्राकृतिक अधिकार का नाम दिया गया है.

ज़रा सोचिए! जब हम सब यह बात बखूबी जानते हैं कि इस दुनिया का प्रत्येक मानव आज़ाद पैदा हुआ है. ऐसे में क्या उसका यह हक़ नहीं है कि वो आज़ादी के साथ अपना जीवन व्यतीत करे. वो उस माहौल में जीए, जहां किसी भी प्रकार के डर व भय का स्थान न रहे. उसके साथ बदसलूकी न हो. वो किसी के ज़ुल्मों-सितम का शिकार न बने…? क्या लोगों का अधिकार नहीं है कि वो खुली हवा में सांस ले सके. प्रकृति की गोद में अपना जीवन-यापन कर सकें…

बिल्कुल हर मानव का यह हक़ है. पर हक़ीक़त में ऐसा होता नहीं है. हम बाकी दुनिया की बात छोड़ दें… तो हमारे देश भारत में हर दिन खुलेआम मानव अधिकार का उल्लंघन होते आप हर जगह अपनी नंगी आंखों से देख सकते हैं.

पर हमें इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ता. हमारे बग़ल के पड़ोसी को पुलिस उठा कर ले जाती है. और हम सवाल नहीं करते. बल्कि जो नौजवान बरसों से हमारे बीच रह रहा था, हम उसी पर शक करना शुरू कर देते हैं कि ज़रूर उसने कुछ ग़लत किया होगा.

खैर, बातें व सवाल अनगिनत हैं. लेकिन अंत में हम यही कहना चाहेंगे कि हमें अब मानव अधिकार के थ्योरी वाले दुनिया से बाहर निकल कर प्रैक्टिकली सोचना होगा. हमें हक़ के लिए खुद ही आगे आना होगा. और वैसे भी हमारे देश में हर किसी के ज़बान से आपने यह कहते हुए ज़रूर सुना होगा कि ‘हक़ मांगने से नहीं, छीनने से मिलता है….’

(लेखिका व लेखक जामिया में पत्रकारिता के छात्र हैं.)

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