बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

भारतीय संविधान में अल्पसंख्यक अधिकार

Dr. Razia Khan for BeyondHeadlines

भले ही हमारा मुल्क 15 अगस्त 1947 में आज़ाद हो गया था, लेकिन उस समय पूर्ण स्वतंत्र व सम्प्रभुत्ता सम्पन्न नहीं कहा जा सकता था, क्योंकि प्रत्येक पूर्ण स्वतंत्र देश का शासन कार्य उसके संविधान में ही समाविष्ट होता है और भारत का संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ, जिसके फलस्वरूप भारत पूर्ण स्वतंत्र और प्रभुत्व सम्पन्न गणराज्य 1950 को बना.

देश में अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर लम्बी बहस चलती रही. संवैधानिक सभा में अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर हुई लम्बी बहस के बाद भारत में अंतिम रूप से अल्पसंख्यकों के परिपूर्ण संरक्षण एवं विकास के लिए निम्न प्रावधान किये गए.

भारतीय संविधान में भाषायी तथा धार्मिक अल्पसंख्यकों के अधिकार

संवैधानिक सभा के लम्बे वाद-विवाद के बाद संविधान में धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए पृथक प्रतिनिधित्व और आरक्षण के प्रावधान को तो स्पष्ट रूप से समाप्त कर दिया गया, उनके लिए ‘सामूहिक अधिकारों’ को मौलिक अधिकारों के रूप में लागू किया गया. हालांकि प्रारम्भ में संस्कृति के संरक्षण का अधिकार केवल भाषायी अल्पसंख्यकों के लिए ही था, परन्तु बाद में धार्मिक तथा भाषायी दोनों समुदायों को संस्कृति के संरक्षण का अधिकार प्रदान किया गया और इस संर्दभ में भी अलग-अलग भारतीय नेताओं ने अपने विचार व्यक्त किए, जिसमें जयप्रकाश नारायण ने केवल भाषायी अल्पसंख्यकों को शैक्षिक तथा सांस्कृतिक अधिकार प्रदान करने का सुझाव दिया.

दामोदार स्वरूप सेठ ने यह सुझाव दिया कि अल्पसंख्यक समुदाय केवल उन्हीं समुदायों को कहा जा सकता है, जो भाषा पर आधारित हों. धर्म और समुदाय पर आधारित अल्पसंख्यक किसी भी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की पहचान नहीं है और यदि धर्म व समुदाय पर आधारित अल्पसंख्यकों को कोई भी शैक्षिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार प्रदान किया जाएगा, तो उससे राष्ट्रीय एकता के लिए ख़तरा उत्पन्न होगा तथा राष्ट्र-विरोधी व साम्प्रदायिक भावना का विकास होगा.

इसी प्रकार जी. बी. पंत द्वारा अप्रैल 1947 में उप-समिति की बैठक में अल्पसंख्यक अधिकारों से सम्बन्धित विषय पर यह सुझाव दिया गया कि अल्पसंख्यकों को प्रदान किए गए सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों को नीति-निर्देशक सिद्धांतों (Non-Justiciable Directive Principles) में सम्मिलित करना चाहिए.

लोकनाथ मिश्रा ने सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकारों का समर्थन किया, परन्तु उनके अनुसार सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकारों के द्वारा देश की एकता व धार्मिक विश्वास को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होनी चाहिए.

दामोदर स्वरूप सेठ ने संवैधानिक सभा की बहस में अल्पसंख्यक अधिकारों के सम्बंध में पुनः यही विचार प्रकट किए कि अल्पसंख्यक केवल भाषायी आधार पर मौजूद समुदाय को ही कहा जा सकता है. धार्मिक आधार पर उपस्थित समुदाय को नहीं. क्योंकि धर्म पर आधारित समुदाय को यदि अल्पसंख्यक का दर्जा दिया जाता है, तो यह देश की राष्ट्रीय एकता के लिए ख़तरा होगा और इससे साम्प्रदायिकता को बढ़ावा मिलेगा.

दूसरी ओर ज़ेड. एच. लारी जैसे अन्य सदस्यों ने इन सांस्कृतिक तथा शैक्षिक अधिकारों को प्रोत्साहन दिया. संवैधानिक सभा में इन अधिकारों के पारित होने के बाद जब प्रारूप-समिति ने इन अधिकारों में परिवर्तन किया, तो ज़ेड. एच. लारी ने उसके विरूद्ध आवाज़ उठाई.

परिणामस्वरूप फिर वर्ष 1947 में अल्पसंख्यकों से सम्बन्धित अधिकारों का प्रथम खण्ड सभा में पारित किया गया, जिसके अनुसार देश की प्रत्येक ईकाई में निवास करने वाले अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा, लिपि तथा संस्कृति के आधार पर संरक्षण प्रदान किया गया.

इस प्रकार एक लम्बे विवाद के बाद सहायक-समिति और उप-समिति के सदस्यों के द्वारा सवैंधानिक-सभा में अल्पसंख्यक अधिकारों को लेकर विभिन्न सुझाव एवं सिफारिशों पर विचार किया गया, जिसके परिणामस्वरूप अल्पसंख्यकों को भारतीय संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अनुसार अपनी संस्कृति, भाषा एवं लिपि के संरक्षण और अपनी इच्छानुसार कोई भी शैक्षिक संस्थान खोलने का अधिकार प्रदान करने पर विचार किया गया, जो संविधान के अन्तिम प्रारूप में सम्मिलित किया गया.

अल्पसंख्यकों के अधिकारों से सम्बंधित संविधान में अन्तिम प्रावधान

एक लम्बे वाद-विवाद के बाद संविधान में अन्तिम रूप से अल्पसंख्यकों के विकास के लिए शैक्षिक अधिकार और उनकी भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 29 और 30 के अंतर्गत विशेष प्रावधान किए गए.

– देश की प्रत्येक ईकाई में रह रहे सभी अल्पसंख्यकों को उनकी भाषा, लिपि तथा संस्कृति के संरक्षण का अधिकार है तथा देश में ऐसे कोई भी कानून व नीतियां नहीं बनाई जाएंगी, जिनसे इन अल्पसंख्यकों की संस्कृति, भाषा व लिपि का शोषण हो.

– सभी धार्मिक, भाषायी व सामुदायिक अल्पसंख्यकों के साथ किसी भी राज्य शिक्षा संस्थान में भेदभाव नहीं किया जाएगा और न ही उन पर किसी भी प्रकार की धार्मिक शिक्षा थोपी जाएगी.

– सभी धार्मिक, भाषायी तथा सामुदायिक अल्पसंख्यक देश की प्रत्येक ईकाई में अपनी इच्छानुसार कोई भी शैक्षिक संस्थान खोलने के लिए स्वतंत्र हैं.

– किसी भी धार्मिक, भाषायी व सामुदायिक अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित शैक्षिक संस्थानों को राज्य द्वारा अनुदान प्रदान करने में किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा.

(लेखिका जामिया मिल्लिया इस्लामिया के राजनीतिशास्त्र विभाग में रिसर्च स्कॉलर रही हैं.)

Loading...

Most Popular

To Top

Enable BeyondHeadlines to raise the voice of marginalized

 

Donate now to support more ground reports and real journalism.

Donate Now

Subscribe to email alerts from BeyondHeadlines to recieve regular updates

[jetpack_subscription_form]