Edit/Op-Ed

साल बदलने से क्या कुछ बदलता है..?

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

साल 2014 अब  हम से जुदा हो रहा है. सारे विश्व में नए साल के स्वागत में जमकर जश्न मनाने की तैयारियां चल रही हैं. नए साल के सरुर के नाम पर जमकर हंगामा होगा, इयर एंड पार्टियों में हर्ष-उल्लास से ओत-प्रोत नशे में धुत युवा बदमस्त नज़र आने शुरू हो गए हैं. धूम-धाम परोस कर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया भी आपको नए साल के नए सपने बेचने में लग चुका है. पांच सितारा होटलों में पेज थ्री महफिलें सजनी शुरू हो चुकी हैं…

छलकते जाम… टूटते गिलास और बरसते नोट… एलिट क्लास और नवदौलतिया वर्ग का धन-प्रदर्शन…. गिफ्ट हैम्पर्स…. और अत्यंत महंगे कार्ड्स के आदान-प्रदान फिजूल-खर्ची और शाह-खर्ची के पुराने रिकॉडों को तोड़ देगा. हालांकि भारत में इस वर्ष यह जश्न थोड़ा फीका रहने की उम्मीद है. क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी ने अपने मंत्रियों को न्यू ईयर पार्टी से दूर रहने की हिदायत दी है. यह फैसला पेशावर में बच्चों की मौत और असम में हुए उग्रवादी घटना में करीब 70 लोगों के मारे जाने के कारण से लिया गया है. अब देखना दिलचस्प होगा कि नेताओं व मंत्रियों पर मोदी की इस हिदायत का कितना असर पड़ता है. क्योंकि मोदी के कई नेता ऐसे हैं, जिन्हें इन दोनों घटनाओं में मारे गए बच्चों व लोगों से कोई दिलचस्पी नहीं है.

बहरहाल, राजनीति से दूर अब बात को इंसानियत की ओर लाते हैं. तो ज़रा सोचिए कि यह कितना अजीब है कि जिस 31 दिसंबर की शाम को सर्द बर्फीली रात में जब करोड़ो रुपये आतिशबाज़ी में झोंके जा रहे होंगे, झुग्गी-झोंपड़ी वाले इलाके और फुट-पाथों पर रहने वाले लोग सर्दियों से ठिठुरते हुए खुदा से एक और सूरज देखने की दुआ कर रहे होंगे. अखबार की खबरें बता रही हैं कि उत्तरी भारत में शीतलहर से  लगातार लोग अल्लाह को प्यारे हो रहे हैं… जिस रात शहरों में पार्टियों के नाम पर हज़ारों खर्च किए जा रहे होंगे, न जाने उसी रात कितने लोग पेट पर पत्थर बांध कर सोएंगे….

बातें बहुत सारी हैं… लेकिन अहम सवाल यह है कि ये नए साल का जश्न क्यों? साल 2014 के दिसम्बर की 31 तारीख खत्म होते ही अचानक “नया” क्या हो गया? जैसे तीस दिसंबर के बाद 31 दिसम्बर सूरजा उगा था ठीक उसी तरह एक जनवरी 2015 का सूरज भी उगेगा. फिर 31 दिसंबर और एक जनवरी के बीच इतना फर्क क्यों. एक ये दिन है जिसे आप जैसे भी हो काट देना चाहते हैं और एक कल है जिसके इंतेजार में आप इनते आतुर हैं कि ये भी भूल गए हैं कि आपको आज क्या करना है.

“नये वर्ष का आरंभ अगर खुशियों के साथ हो तो पूरा वर्ष खुशियों में गुज़रेगा” यह कथन स्वयं कितना वैज्ञानिक और कितना अंधविश्वास पर आधारित है, तर्क व विज्ञान की बात करने वालों की नज़र इस पर क्यों नहीं जाती? तथाकथित आधुनिकता और प्रगतिशीलता के राग अलापने वाले ‘महानगरीय जीवी’ इस पर विचार क्यों नहीं करते कि ये स्वयं कितना पुरातन एवं प्रतिगामी विचार है.

यदि हम पीछे ही मुड़कर देखें कि पिछले वर्ष का आरंभ भी हमने इसी हर्ष-उल्लास व मौज-मस्ती के साथ किया था. लेकिन ज़रा सोचिए कितनी खुशियां समेटी हमने पिछले वर्ष…?

लेकिन हां! यदि इस अवसर पर बीते वर्ष का विभिन्न स्तरों पर विश्लेषण हो और विभिन्न पहलुओं से सही लेखा-जोखा सामने लाया जाए और आने वाले वर्ष के लिए एरिया ऑफ़ एक्शन तलाश किए जाएं तो इस प्रकार की इयर एंड पार्टियां सकारात्मक और सार्थक हो सकती हैं. नए संकल्प के साथ हम नव वर्ष का वास्तविक अभिवादन कर सकते हैं और तब ये आने वाला वर्ष सही मायनों में हमारे लिए “नया” साल बन पाएगा.

साल 2014 में हमारे देश में सबसे ज्यादा ‘अच्छ दिनों’ पर ही बातें होती रहीं. जाते-जाते यह साल ‘धर्मांतरण’ एक मुद्दा भी छोड़ गया. हर तबके के लोगों ने इस विषय पर अपनी राय रखी. बहुत सी बैठकें और सभाएं हुई. लेकिन एक बात यह भी रही कि 2014 में सिर्फ भ्रष्टाचार के खिलाफ बातें ही की जाती रहीं. लोगों ने ‘अच्छे दिनों’ का सपना देखा. सरकारें बदली. काला धन वापस आने की उम्मीद जगी. पर नतीजा आप सबके सामने है. वही ढाक के तीन पात…

पर आईए!  अब एक बार फि 2015 में भ्रष्टाचार के खिलाफ कुछ ठोस करने का संकल्प लेते हैं. और हां! एक बार सर्दी में ठिठुरते उस बुजुर्ग के बारे में सोच लीजिए जो सिर्फ कल तक जिंदा रहने की दुआ मांग रहा है, यकीन जानिए आपके दिल में कुछ कर गुजरने का जज्बा अपने आप पैदा हो जाएगा… और वैसे भी देखो, तो हर सुबह सुखद है और सोचो तो कष्टों व सवालों की पोटली… इसमें कैलेंडर बदलने से फर्क नहीं आता… इन्हीं सब सवालों के साथ हमारे तमाम पाठकों को नए वर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं…

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