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तो क्या यह सिर्फ ट्रेलर है, पूरी फिल्म 26 जनवरी के आस-पास रिलीज होनी है?

Rajeev Yadav for BeyondHeadlines

कथित तौर पर पाकिस्तान से आने वाली ‘आतंकी नाव’ मामले में सरकार के दावों पर सवाल उठाने वालों को भाजपा ने तीन तरह से कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की है.

पहला, राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर आप कैसे संदेह कर सकते हैं? क्या ऐसा करने वालों को भारतीय सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों पर भरोसा नहीं है और क्या ऐसा करने से उनका मनोबल नहीं गिरेगा?

दूसरा, इन एजेंसियों ने 26/11 जैसे एक और आतंकी हमले को नाकाम कर दिया, जिससे कि देश खुशी-खुशी नव वर्ष का जश्न मना सका. लेकिन ऐसा करने वालों को बधाई देने के बजाए उन पर सवाल उठा कर उन्होंने साबित कर दिया है कि वे जनता की खुशी से दुखी हैं.

तीसरा, ऐसे सवाल उठा कर वे पाकिस्तान की मदद कर रहे हैं, क्योंकि उनकी और पाकिस्तान की भाषा एक जैसी है.

भाजपा के इन आरोपों के पीछे की वैचारिकी पर बात करने से पहले ज़रूरी है कि इस मामले से जुड़े कुछ तथ्यों पर गौर किया जाए.

पहला, रक्षामंत्री मनोहर पर्रिकर द्वारा आक्रामक तरीके से उसे पाकिस्तान द्वारा आतंक फैलाने के लिए भेजा गया नौका बताने के बावजूद अधिकृत तौर पर वह नहीं कह पा रहे हैं कि उस नौका में विस्फोटक था (Crew was in touch with Pak army. The Hindu. 6 January 2015). यानी जिस मुख्य बुनियाद पर उसके आतंकी नाव होने का दावा किया जा रहा है उसके होने पर ही स्पष्टता नहीं है.

दूसरा, तमाम दावों के बावजूद कि उसमें चार आतंकी सवार थे, जिनकी बातचीत भी इंटरसेप्ट की गई बताई जाती है, अभी तक उस पर चार लोगों के होने या किसी के भी न होने का कोई प्रमाण सुरक्षा एजेंसियां नहीं दे पाई हैं यानी चार लोगों के होने का दावा सिर्फ मौखिक है उसका कोई प्रमाण नहीं है. उनके बहुप्रचारित बातचीत के ‘इंटरसेप्ट’ किए जाने की मौजूदा हकीक़त भी यही है.

तीसरा जब नौका कि अधिकतम स्पीड 10 से 12 नॉट प्रति किलोमीटर ही हो सकती थी तब उसे क्यों नहीं पकड़ा जा सका क्योंकि जिन सैन्य जहाजों से उनका पीछा किया जा रहा था कि उनकी स्पीड लगभग 34 नॉट होती है? (was coast guard ship fast enough\ The Hindu. 4 January 2015)

चौथा, खबरों के मुताबिक (IB sore at being ignored. The Hindu. 6 January 2015) खुफिया विभाग यानी आईबी को पूरे प्रकरण में नज़रअंदाज करके रखा गया. जबकि नियमतः वह सबसे पहला संगठन था जिसे इस मामले में सूचित किया जाना चाहिए था. क्या गुजरात कोस्टल गार्ड ने ऐसा इसलिए किया कि यह कोई आतंकी घटना ही नहीं थी और पूरा मामला ड्रग्स या पेट्रोलियम पदार्थो की तस्करी करने वाले गिरोहों से जुड़ा था, जिससे कोस्टल गार्ड अपने स्तर पर निपट सकते थे? और अगर वह आतंकी नाव थी तो फिर आईबी से उसकी जानकारी न शेयर किए जाने की क्या वजह हो सकती है?

क्या ऐसा तो नहीं था कि कोस्टल गार्ड आतंकी नौका के प्रयासों को विफल कर देने का अकेले ही श्रेय लेना चाहती थी? लेकिन अगर ऐसा था तो कोस्टल गार्ड को ऐसा कर लेने का आत्मविश्वास किस बुनियाद पर था क्योंकि वे तो ‘मोटीवेटेड’ आतंकी थे, जो ‘26/11’ दोहराना चाहते थे. यानी वे पूरी तरह तैयार और अपने मिशन के प्रति समर्पित रहे होंगे और उनके पास कितना हथियार और गोला बारूद था, यह कोस्टल गार्ड्स को तो पता हो ही नहीं सकता था, क्योंकि वे उनसे काफी दूर थे.

ऐसे में क्या कोस्टल गार्ड्स द्वारा लिया गया ‘बहादुराना’ निर्णय’ कि हम खुद इससे निपट लेंगे’ स्वाभाविक मानी जा सकती है?

दरअसल ऐसा तभी हो सकता है जब मदद के लिए तमाम विकल्पों के मौजूद होने के बावजूद किसी सुरक्षा एजेंसी के लोग यह तय कर लें कि उन्हें पागलपन की हद तक आत्मघाती होते हुए अकेले ही लोहा लेना है और वीरगति को प्राप्त हो जाना है और दूसरा तब जब उसे मालूम हो कि ‘दुश्मन’ वास्तव में ‘दुश्मन’ है ही नहीं.

दूसरी सम्भावना के सच होने की सम्भावना इससे बढ़ जाती है कि पहली सम्भावना सच नहीं हो सकती. यानी युद्ध कौशल में प्रशिक्षित कोस्टल गार्ड इस तरह के अनप्रोफेशनल और मूर्खतापूर्ण निर्णय नहीं ले सकते, कम से कम उसके सभी सदस्य तो ऐसा नहीं कर सकते. तो क्या यह भी देश भर में होने वाली उन संदिग्ध आतंकी घटनाओं जैसे ही घटना थी जिसमें एक ही अपराध के लिए अलग-अलग एजेंसियां अलग-अलग मास्टरमाइंडों को पकड़ती हैं, जो दरअसल आतंकवाद से निपटने के नाम पर अलग-अलग एजेंसियों के बीच श्रेय लेने के लिए मची होड़ का नतीजा होता है जो पूरे आतंकी घटना में भी इन एजेंसियों की भूमिका को संदिग्ध बना देता है. तो क्या यह भी ऐसा ही मामला था?

पांचवा, इस घटना को 36 घंटे से ज्यादा समय तक क्यों गुप्त रखा गया और नए साल के दूसरे दिन ही इसे ब्रेक किया गया. यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि इनके जो जवाब गृह मंत्रालय ने दिए हैं वो संतोषजनक नहीं हैं.

मसलन, इसकी वजह यह बताई गई कि सुरक्षा एजेंसियां इस दरम्यान यह जानकारियां पुख्ता कर लेना चाहती थीं कि आतंकियों के टारगेट्स क्या हैं, वो अपने आकाओं से क्या बात कर रहे हैं और इसीलिए सुरक्षा एजेंसियों ने इस खबर को पहले रक्षामंत्री पर्रिकर और रक्षा सचिव आरके माथुर को दिया, जिन्हें बाद में उनसे हरी झंडी मिलने के बाद ही सार्वजनिक किया गया.

सवाल उठना लाजिमी है कि इन 36 घंटों में सुरक्षा एजेंसियां आतंकियों के बारे में कौन सी पुख्ता जानकारी इकठ्ठा कर पाईं और वो कहां हैं? क्योंकि इन जानकारियों के आधार पर रक्षामंत्री यह तक दावे के साथ नहीं कह पा रहे हैं कि नौका में विस्फोटक था भी या नहीं?

यानी पूरे नाव कथा में 36 घंटों का घपला रहस्यमई है. वहीं जब 36 घंटे में कुछ भी महत्वपूर्ण हासिल नहीं हो पाया तब किस आधार पर इसे सार्वजनिक करने की हरी झंडी पहले भी पाकिस्तान से युद्ध करने की बात कर चुके रक्षामंत्री ने दिया? क्या इसकी वजह नए साल का जश्न मना रहे लोगों में आतंकी हमले का डर भर कर उन्हें एक सम्भावित हमले से बचा लेने की वाह-वाही लूटनी थी?

वहीं जब पुख्ता तथ्य नहीं थे और सवाल गहराने लगे तब अचानक मीडिया माध्यमों में खुफिया सूत्रों के हवाले से ऐसी खबरों की बौछार क्यों होने लगी कि लश्कर ने 26/11 दोहराने के लिए नाव भेजा था और समुद्र मार्ग से वह 200 और आतंकियों को भेजने की फिराक में है. या डूबे नौका में आतंकी जो सिगरेट पी रहे थे उन पर पाकिस्तान में बने होने पता लिखा था या मलवा इसलिए नहीं मिल पा रहा है कि पानी का बहाव पाकिस्तान की तरफ था जिसके कारण मलवा कराची पहुंच गया है. जैसे की मलवा और समुद्र की धाराएं भी ‘राजनीति से प्रेरित’ हो कर पाकिस्तान परस्त हो गई थीं.

अब भाजपा द्वारा उठाए गए सवालों पर आते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर सवाल उठाना कहीं से भी गलत नहीं है. क्योंकि इस मसले पर लोगों की अपनी-अपनी समझ है.

मसलन, मोदी सरकार की वैचारिक अभिभावक संघ परिवार के गुरू गोलवलकर की पुस्तक ‘वी ऑर आवर नेशनहुड डिफाईन’ के मुताबिक राष्ट्रीय सुरक्षा के समक्ष सबसे बड़ा खतरा मुसलमान और इसाई हैं, जिन्हें या तो देश से बाहर निकाल देना चाहिए या उन्हें हिंदू बना देना चाहिए. वहीं भाजपा के पूर्ववर्ती अवतार जनसंघ के जमाने में संघ की समझदारी थी कि राष्ट्र की रक्षा के लिए ज़रूरी है कि लोग दस-बीस बच्चे पैदा करें जिसके लिए उन्होंने नारा दिया था ‘जिनके बच्चे हों दस बीस, उनकी मदद करें जगदीश’

जाहिर है राष्ट्रीय सुरक्षा के उसके इस नज़रिए से सभी लोग सहमत नहीं हो सकते. इसलिए वे अपनी समझदारी के हिसाब से सवाल उठा सकते हैं. इसलिए यह कहना कि इस मुद्दे पर सवाल नहीं उठाया जा सकता गलत और अलोकतांत्रिक है.

वहीं यह कहना कि ऐसा करने से सुरक्षा एजेंसियों का मनोबल गिर जाएगा भी गलत है. क्योंकि इशरत जहां फर्जी एंकाउंटर से लेकर कई ऐसे उदाहरण हैं जहां सवाल उठने पर गुजरात की मोदी सरकार ने मनोबल गिरने का शोर मचाया था, लेकिन जांच के बाद पता चला कि इन फर्जी मुठभेड़ों को मोदी को लाभ पहुंचाने के लिए अंजाम दिया गया, जिसमें आईबी अधिकारी राजेंद्र कुमार भी शामिल था और जिसमें कई पुलिस अधिकारी जेल में बंद हैं.

जाहिर है अगर जांच नहीं होती तो सच्चाई सामने नहीं आ पाती. दरअसल, खुफिया विभाग पर सवाल उठाना इसलिए भी ज़रूरी है कि वे अक्सर हिंदुत्ववादी राजनीतिक एजेंडे पर काम करती देखी जाती हैं. जैसा कि खुद आईबी के ज्वाइंट डायरेक्टर रहे मलयकृष्ण धर ने अपनी पुस्तक ‘ओपन सिक्रेट’ में लिखा है कि कैसे बाबरी मस्जिद तोड़ने की साजिशी बैठकें संघ परिवार के लोग उनके घर पर करते थे.

वहीं हाल ही में आई रॉ अधिकारी रहे आरके यादव ने भी अपनी पुस्तक ‘मिशन रॉ’ में बताया है कि कैसे उसे मिलने वाले बिना ऑडिट के पैसे से कई अधिकारी निजी व्यवसाय चलाते हैं और सिर्फ दिल्ली में ही कहां-कहां वे सेक्स रैकेट चलाते हैं.

जाहिर है खुफिया एजेंसियों पर सिर्फ सवाल उठाना ही ज़रूरी नहीं है उन्हें अन्य देशों की तरह संसद के प्रति जवाबदेह भी बनाने की ज़रूरत है.

दूसरा, सुरक्षा एजेंसियों के दावों को बिना परखे उन्हें ‘बहादुरी’ के लिए बधाई नहीं देना कहीं से भी देशविरोधी काम नहीं है और ना यह नए साल का जश्न मनाने वाले लोगों की खुशी में दुख घोलने जैसा है. ऐसे सवाल उठाकर सरकार खुद अपने खिलाफ पैदा हो रहे शक को और पुख्ता कर ही है कि कहीं उसने राजनीतिक लाभ उठाने के लिए तो उत्सवधर्मिता के माहौल में आतंक के हव्वे को मिलाकर राष्ट्रवाद का कॉकटेल नहीं तैयार करना चाह रही थी. जो कि दिल्ली आने से पहले मोदी गुजरात में करते रहे हैं?

यह शक चार वजहों से और गहरा जाता है. पहला, उनके पीएमओ में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल के साथ ही पीके मिश्रा जैसे शख्स हैं. जिन पर गुजरात में मोदी को कथित तौर पर मारने आने वाले लोगों को फर्जी मुठभेड़ों में मारने की साजिश में अहम भूमिका माना जाता रहा है.

यानी यह पुराना और काफी परखा हुआ आतंक का गुजरात मॉडल है, जिसे शायद अब दिल्ली से संचालित किया जा रहा है.

दूसरा, ठीक इसी तरह नोएडा से कथित तौर पर दो आतंकी जो ‘नए साल पर दिल्ली को दहलाने आए थे’ भी 19 दिसम्बर को पकड़े गए थे. लेकिन मीडिया को इसकी सूचना 1 जनवरी को दी गई.

सवाल उठता है कि आतंक की ‘आहट’ पा जाने भर पर जो सुरक्षा एजेंसियां मीडिया को खबर ब्रेक कर देती हैं वो आश्चर्यजनक रूप से नए साल के आने तक क्यों खबर को दबाए रहीं? आखिर नए साल के पहले दिन इस खबर को ब्रेक करके ऐसा क्या हासिल हो सकता था जो उसके 19 दिसम्बर के ब्रेक होने से नहीं हो सकता था?

यहां यह जानना भी रोचक होगा कि आतंकियों की गिरफ्तारी को सार्वजनिक किये जाने से ठीक एक दिन पहले यानी 31 दिसम्बर को ही गाजियाबाद के एसपी धमेंद्र सिंह यादव ने प्रेस कांफ्रेंस किया और बताया कि गाजियाबाद में 10 आतंकी घुस आए हैं जिनकी तलाश की जा रही है और यह तलाशी 26 जनवरी तक चलेगा (10 terrorists believed to be hiding in Ghaziabad: police. The Hindu 1 January 2015)

जाहिर है यह नए साल का जश्न मना रहे लोगों को आतंक का डर दिखा कर उनमें असुरक्षाबोध भरने के लिए किया गया ताकि लोग इससे उत्पन्न होने वाले सम्भावित दहशत को अपने जश्न के समकक्ष रखकर सोचें.

यह डर की राजनीति का एक बहुत ही कारगर और पुराना तरीका है, जिसे यूरोप में काफी लम्बे समय से दक्षिणपंथी राजनीति आजमाती रही है- खुश लोगों या खुशी मनाते लोगों को यह बताना कि अगर हम नहीं होते तो आप की खुशियां छिन जातीं.

तीसरा, अगर नौका कथा और नोएडा की कहानी को एक साथ देखा जाए तो कुछ और सवाल उठने लाजिमी हैं. मसलन, गाजियाबाद के एसपी ने यह क्यों कहा कि आतंकवादियों की तलाश 26 जनवरी तक चलेगी. क्या उन्हें पूरा यकीन है कि 26 जनवरी तक आतंकी पकड़ ही लिए जाएंगे? अगर ऐसा है तो किस आधार पर है? वे 26 जनवरी से काफी पहले यानी 12,13,14, या 15, 16 जनवरी तक क्यों नहीं पकड़े जा सकते? या अगर वे 26 जनवरी तक नहीं पकड़े जा सके तो क्या उसके बाद उन्हें पकड़ने का अभियान नहीं चलेगा? क्या देश को उन आतंकियों से खतरा सिर्फ 26 जनवरी तक ही है? उसके बाद वे धमाका नहीं करेंगे?

दरअसल इस पूरे मामले में 26 जनवरी का वही मतलब है जो नए साल की पहली तारीख का है, इन दोनों दिनों होने वाले आतंकी हमले या विस्फोट का राजनीतिक और मार्केट वैल्यू ज्यादा होता है. और यह कोई नई परिघटना नहीं है पहले भी होता रहा है. खास तौर से हिंदू त्योहारों के दौरान जब धार्मिक पारा काफी चढ़ा रहता है तब भी इस स्ट्रेटजी का इस्तेमाल होता है.

जैसे पिछले साल ही बहुचर्चित लियाकत शाह जो सरकार की सहमति से सरेंडर करने पाकिस्तान से भारत आया था, के मामले में हुआ था जिसे दिल्ली पुलिस ने यूपी के गोरखपुर से पकड़ने के बाद दिल्ली में गिरफ्तार दिखा दिया, इस दावे के साथ कि वह होली के दौरान दिल्ली में दहला कर अफजल गुरू की फांसी का बदला लेना चाहता था. जिसके पास से पुलिस ने एक होटल से एके 47 और भारी मात्रा में विस्फोटक बरामद करा दिया था. लेकिन गलती यह कर दी थी कि हथियार रखने वाले ने होटल की एंट्री रजिस्टर में अपना पता दिल्ली स्पेशल सेल लिख दिया था, जिससे पूरा मामला खुल गया.

या फिर जैसा कि 2008 में भी 24 जनवरी के दिन नोएडा में हुआ था. जब दो बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को आतंकी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था. तो क्या इस साल से फिर राष्ट्रीय त्योहारों के दौरान लगभग हफ्ते भर तक चलने वाले ‘एंकाउंटर सप्ताह’ की वापसी होगी?

और क्या इस बार ये ‘आतंकी’ मध्य प्रदेश की खंडवा जेल से कथित तौर पर भागे बताए जाने वाले चार नौजनाव होंगे, जो आश्चर्यजनक तरीके से पूरे देश भर में खुफिया एजेंसियों के मुताबिक ‘देखे’ तो जा रहे हैं, लेकिन पकड़े नहीं जा पा रहे हैं?

जिनके बारे में आतंक की राजनीति का कोई भी जानकार बता सकता है कि ये लड़के खुफिया एजेंसियों के ही पास हैं. तो क्या सुरक्षा और खुफिया एजेंसियां किसी आतंकी व्यूह रचना की तैयारी में हैं?

गणतंत्र दिवस के मौके पर आने वाले अमरीकी राष्ट्रपति को ये बताने के लिए कि हम आपके खिलाफ होने वाले हर हमले या उसकी ‘योजना’ को नाकाम कर सकने में सक्षम हैं.

इसीलिए इन घटनाक्रमों से संदेह उत्पन्न होना लाजिमी है कि 26 जनवरी तक दिल्ली या उसके आसपास आतंकवाद के नाम पर कोई विस्फोट या फर्जी मुठभेड़ करने की फिराक में खुफिया एजेंसियां लगी हुयी हैं, जैसा कि 2008 में भी 24 जनवरी के दिन नोएडा में हुआ था जब दो बेगुनाह मुस्लिम नौजवानों को आतंकी बताकर फर्जी मुठभेड़ में मारा गया था.

यानी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नौका और नोएडा से जो कहानी शुरू हुई है उसमें 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस जिसमें मुख्य अतिथि के बतौर अमरीकी राष्ट्रपति आ रहे हैं, एक अहम पड़ाव हो. जिसकी सम्भावना इससे भी बढ़ जाती है कि पिछली राजग सरकार के दौरान भी अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के भारत दौरे की पूर्वसंध्या पर कश्मीर के छत्तीसिंहपुरा गांव में भारतीय सेना की वर्दी पहने और हिंदू धार्मिक नारे लगा रहे लोगों ने 36 कश्मीरीयों को क़त्ल कर दिया था. जिसके बारे में क्लिंटन तक का सार्वजनिक तौर पर मानना रहा है कि उसे हिंदुत्वादी आतंकी संगठनों ने अंजाम दिया था.

यहां गौरतलब है कि इसमें आरोपी बता कर पकड़े गए सभी लोग निर्दोष साबित हो कर छूट चुके हैं. जाहिर है सुरक्षा एजेंसियों के दावों को बिना जांचे-परखे उन्हें बधाई देना कहीं से भी देशभक्ति नहीं है. क्योंकि देशभक्ति अपारदर्शी और संदिग्ध क्रियाकलापों की बुनियाद पर नहीं निर्मित होती है.

चौथा और सबसे अहम कि इस मसले पर सुरक्षा एजंसियों की भूमिका संदिग्ध इससे भी हो जाती है कि इस मुद्दे पर सरकार के दावों पर सबसे पहले सवाल उठाने वाले इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार प्रवीण स्वामी के खिलाफ ‘देशविरोधी रिपोर्टिंग’ कारण प्रदशर्न किया है. (rightwing protest against journalist Pravin Swami over ‘antinational’ news item. Outlook 7 January)

जाहिर है जिस संगठन पर पूरे देश में मुसलमानों की दाढ़ी-टोपी लगाकर सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों के सहयोग से मस्जिदों, ट्रेनों, अदालतों में बम विस्फोट करने के सबूत हों ,वे अगर इस पर सवाल उठाने वालों के खिलाफ बोल रहे हैं तो सरकार पर उठने वाले संदेह और पुख्ता हो जाते हैं. कम से कम इन संगठनों और सरकार की भूमिका को केंद्र में रखकर इस प्रकरण में जांच की ज़रूरत तो इससे ज़रूर पैदा हो जाती है.

सरकार के दावों पर सवाल उठाने वालों और पाकिस्तान सरकार दोनों की भाषा और तर्कों के एक जैसे हो जाने से कोई देश विरोधी या पाकिस्तान परस्त नहीं हो जाता. क्या ऐसे तर्क ‘पाकिस्तान समर्थक’ घोषित कर देने की धमकी जैसे नहीं हैं, जिसका मकसद इस डर को दिखा कर सवाल उठाने वालों को चुप कराना है? और क्या यही वजह नहीं है कि पिछले दिनों भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने इस मसले पर सवाल उठाने वालों के बारे में कहा कि ऐसा करने वाले भूल गए हैं कि उन्हें भारत में चुनाव लड़ना है, पाकिस्तान में नहीं.

यानी, अगर भारत में चुनाव लड़ना है तो अनिवार्यतः आपको अंधराष्ट्रवादी, अतार्किक और इस हद तक पाकिस्तान विरोधी होना होगा कि यदि पाकिस्तान के लोग दिन को दिन कहें तो आप को उसे रात कहना होगा? तो क्या भारत को विश्वगुरू बनाने का संघ का रास्ता मूखर्ता की इन्हीं संर्कीण गलियों से हो कर जाता है. और अगर मान लिया जाए कि ये तथ्य पाकिस्तान जो इस मसले पर भारत सरकार पर उसे बदनाम करने का आरोप लगा रहा है, के पक्ष में हैं तो क्या सिर्फ इस वजह से इन तथ्यों को नहीं उठाना चाहिए.

दरअसल सच्चाई को सच्चाई की तरह ही लेना चाहिए. उसमें नफा नुकसान नहीं देखा जाना चाहिए. मसलन क्या इस बात के लिए नाराज़ होते समय कि मुम्बई हमलों के मास्टरमाइंड कहे जाने वाले लखवी को ज़मानत कैसे मिल गई, हमें इस बात पर नाराज़ नहीं होना चाहिए कि समझौता एक्सप्रेस धमाके के मास्टरमाइंड असीमानंद को क्यों ज़मानत दे दी गई. क्योंकि पाकिस्तान सरकार इस मामले में हमसे ज्यादा इमानदार निकली और उसने लखवी की जमानत को चैलेंज किया.

लेकिन हमारी सरकार जिसके मुख्यिा के साथ असीमानंद की तस्वीरें भी सार्वजनिक हो चुकी हैं, ने असीमानंद के मामले में ऐसा नहीं किया. यानी यह नहीं हो सकता कि हमारा मारा जाना सच्चाई हो और उनका मारा जाना अफवाह.

दरअसल, सच्चाई सिर्फ सच्चाई होती है. वह भारतीय या पाकिस्तानी और भाजपाई या वामपंथी नहीं होती. और इस समय सच्चाई यही है कि नौका मामले में जो सरकार कह रही है वह सच्चाई नहीं है.

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