Farhana Riyaz for BeyondHeadlines
अगर हमें किसी से इश्क़ हो जाता है तो रातों की नींद और दिन का सुकून ख़त्म हो जाता है. क्या नबी का इश्क़ इतना आसान है कि सिर्फ नअत पढ़ने से, मीलाद करने से, या जुलूस निकाल कर झंडे लहराने और नारे लगाने से ही मोहब्बत ज़ाहिर हो सकती है? क्या नबी का इश्क़ इस बात का तकाज़ा नहीं करता कि हमें अपनी ज़िन्दगी को नबी के बताये हुए तरीके पर गुज़ारना चाहिए? नबी से मोहब्बत का दावा उसी वक़्त सही मन जायेगा, जब नबी के बताये हुए रास्ते पर चला जाये.
जब हज़रत मुहम्मद साहब का जन्म हुआ था, उस वक़्त अरब देश की सामाजिक हालात बहुत खराब थी. महिलाओं का कोई सम्मान नहीं था. लोग अपनी बेटियों को जिंदा दफन कर देते थे. क़बीलों के लोग आपस में लड़ते रहते थे, जिसमें हजारों लोग जान से हाथ धो बैठते थे. लोग शराब जुए के आदि हो चुके थे. आपसी भाईचारा और प्यार मुहब्बत ख़त्म हो चुका था. इन बुराइयों के ख़िलाफ़ हज़रत मुहम्मद साहब ने पहल की.
हज़रत मुहम्मद साहब ने लोगों को इंसानियत पाठ पढ़ाया. एक वाक़्या है… जब हज़रत मुहम्मद साहब एक घर के आगे से गुज़रते थे तो एक महिला उन पर कूड़ा डाल देती थी. कई दिन तक ये सिलसिला चलता रहा. एक दिन जब हज़रत मुहम्मद साहब पर कूड़ा नही पड़ा, तो उन्होंने लोगों से उस महिला के बारे में मालूम किया. लोगो ने बताया कि वो बीमार है. हज़रत साहब उसका हालचाल मालूम करने उसके घर गये.
वो महिला हज़रत साहब के अच्छे व्यवहार के आगे अपने व्यवहार से बहुत लज्जित हुई और उसने पैगम्बर हज़रत मुहम्मद से माफ़ी मांगी. पैगम्बर हज़रत मुहम्मद के ऐसे कई किस्से हैं, जिनसे इंसानियत की बेहतरीन मिसाल मिलती है. इसलिए उनको रहमत-उल-आलमीन (सारी दुनिया पर कृपा करने वाला) कहा जाता था.
लेकिन आज हम नबी से मुहब्बत करने का दावा करने वाले अपने अख़लाक़ पर नज़र डालें तो हममें से बहुत ही मुश्किल से कोई इतना बेहतरी अख़लाक़ वाला मिलेगा.
आप (स०) की एक हदीस है जिसका मफ़हूम है कि ‘वह मुसलमान, मुसलमान नहीं जिसका पड़ोसी भूखा सो जाये.’ अगर आज हम मुआशरे की हालत देखें तो कितनी ग़ुरबत और परेशानियां हैं. ईद मिलाद-उन- नबी के मौक़े पर जिस तरह से जुलूस सजावट और दीगर चीज़ों पर जो बेतहाशा पैसा खर्च किया गया. कितना अच्छा होता कि उस पैसे को बिला लिहाज़ मज़हब–व–मिल्लत, रंगों नस्ल, ज़ात पात के ग़रीब, बेसहारा और मज़लूम लोगों की मदद के लिए खर्च किया जाना चाहिए था और अपने अखलाक़ से इंसानियत की बेहतरीन मिसाल पेश की जाती, उसी वक़्त नबी से मोहब्बत का दावा सही मन जाता वरना ये मोहब्बत का दावा फर्ज़ी है.
इसी बात को देखते हुए किसी शायर ने सही कहा है ‘बाज़ार तो सजा दिया मीलाद मुस्तुफ़ा की खातिर… पैग़ाम-ए-मुस्तुफ़ा क्या है हमने भुला दिया…’