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मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक हूं… अब मुसलमां बनने का जी चाहता है…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published January 30, 2015
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13 Min Read
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Amit Rajpoot for BeyondHeadlines

भारत को लोग धार्मिक बहुलता वाला देश कहते हैं. किन्तु भारतीय समाज में जिस दशा को कुछ समय पहले तक हम धार्मिक बहुलता के रूप में देखते थे, वही धीरे-धीरे धार्मिक विसमरसता के रूप में बदलती चली जा रही है.

यहां हम भारतीय मुसलमानों की बात कर रहे हैं, क्योंकि हमारा सरोकार फिलहाल उन्हीं से है. यद्यपि उनकी नीतियां और शिक्षा-दीक्षा कायदे कानून भारत से बाहर इस्लाम धर्म के साथ मिलता है, अपितु आवश्यक नहीं कि दूसरे देशों के मुसलमानों की गतिविधियां या धार्मिक कर्मकाण्ड व तथाकथित मान्यताएं भी भारतीय मुसलमानों से मिलें.

भारतीय लोकतंत्र की इस क्षुद्र घड़ी में यह अधिकाधिक महत्वपूर्ण होता जा रहा है कि दूसरे लोग मुसलमानों के बारे में क्या सोचते हैं? इनका एक बड़ा तबका वह है जो भारत के मुस्लिम जीवन को अपने पूर्वाग्रहों के अनुसार अनुशासित करना चाहता है. कई तबके ऐसे भी हैं जिन्हें मुसलमान मात्र चुनाव में प्रयोग होने वाले पदार्थ के सिवाय और कुछ नहीं समझ में आते और इसके लिए वे मुसलमानों को तरह-तरह से लुभाना चाहते हैं. पर वे भूल रहे हैं कि हिन्दुस्तान की इस सहिष्णु हिन्दू संस्कृति में तमाम लोग आयें और चले गए, लेकिन हमारा किसी से इतना सरोकार नहीं है जितना कि यहां के मुसलमानों से.

आज भारतीय मुसलमान हिन्दुस्तान की पहचान है. मुसलमानों ने यहां आकर हिन्दी संस्कृति सीखी व अपनायी है, जिससे उनमें सहिष्णुता और राष्ट्रप्रेम की भावना बलवती हुई है. इस तरह हम यह भी कह सकते हैं कि अन्य इस्लामी मुल्कों से परे भारतीय मुसलमान राष्ट्रवादी हैं.

राजकिशोर व अशोक भारद्वाज ने अपनी पुस्तक ‘मुसलमान क्या सोचते हैं’ में लिखा है कि मुसलमानों को हिन्दुस्तान की ज़िन्दगी में एक नया अध्याय शुरू करना है. अब तक शिकवे-शिकायत बहुत हो चुके, लेकिन शिकवे तो कोई सुनता ही नहीं.

आज हिन्दुस्तान की छाती पर मुसलमान बोझ बनकर नहीं रहना चाहते. बल्कि आज मुसलमानों से हिन्दुस्तान की ताक़त है. अब मुसलमानों की निगाह मुल्क के अतीत पर नहीं, उसके भविष्य पर है. वे मुल्क की तरक्की में क़दम मिला के चल रहे है. यहां की खुशहाली और खुशअंदेशी में मुसलमानों का हिस्सा है. ये सारी बातें जब तक हम अमल से साबित न कर दें और देशवासियों से मनवा न लें, तब तक चैन से न बैठें.

लेकिन वास्तव में हिन्दुस्तान में आज भी मुसलमानों को हेय दृष्टि से देखा जा रहा है. किन्तु वो सब ग़ैर तालीमी, अहिंसक और इस्लाम के वास्तविक मूल्यों को न समझने वाले लोग हैं, जिन्हें हम मुस्लिम माताओं की कोख से जन्में होने के कारण मुसलमान कह देते हैं. ऐसे हेय दृष्टि से देखे जाने वाले लोग हिन्दू कहे जाने वाले धर्म में भी हैं.

अगर मुसलमानों को कौम का नेतृत्व करना है तो मर्द मुजाहिद सद्दाम हुसैन की तरह कौम का नेतृत्व करना होगा. लेकिन इसके लिए उन्हे पहले खुद मैदान में उतरना पड़ेगा. किन्तु समस्या यह है कि मुसलमान मैदान में तो उतरना चाहता है, लेकिन अयोध्या के मैदान पर…

कलकत्ता का एक दैनिक अख़बार “आज़ाद हिन्द” 09 दिसम्बर, 1992 के सम्पादकीय ‘अयोध्या का अजाब’ में अयोध्या विवाद पर लिखता है, “बाबरी मस्ज़िद का विवाद एक फोड़ा बनकर इतने वर्षों से कौम के जिस्म में पक रहा था. 06 दिसम्बर को मस्जिद को गिरा दिये जाने पर जो धमाका हुआ, उसमें वह फोड़ा फूट गया. उससे जो लहू और पीब निकलकर बहा उसमें ऐसी बदबू है कि दुनिया वाले अपनी नाक पर रूमाल रखकर गुस्से और हिकारत भरी नज़रों से हमारी तरफ देख रहे हैं कि इस ज़माने में भी ऐसी हरकतें किसी सभ्य मुल्क में है सकती है क्या?”

और अब सवाल मुसलमानों की परीक्षा का… क्या बाबरी मस्ज़िद के पुनर्निर्माण के बगैर हिन्दुस्तान में इस्लाम बाकी रह सकता है? हमारे ख़्याल से मुसलमानों का पहला फर्ज़ यह है कि वे अल्लाह से नाता जोड़ें, बुराई से तौबा करें, इस्लाम का पूरी तरह से पालन करें और शरीयत के ढांचे में ढल जायें.

वे सच्चे मुसलमान बन जायें तो तारीख का पहिया ज़रूर घूमेगा और ज़ालिम लोग फ़ना हो जायेंगे. हमें तो गुमान करना चाहिए कि जब हमारे पास देश की प्राचीर लाल किले की छाती से छाती मिलाती जामा मस्ज़िद है तो फिर बाबरी क्या चीज़ है, क्योंकि एक बुराई का बदला दूसरी बुराई नहीं हो सकती. ज़ुल्म के बदले ज़ुल्म… इंसाफ नहीं, सिर्फ इंतकाम है. इससे पूरी सख़्ती से बचने की ज़रूरत है, ताकि सैकड़ों कीमती जानें जो जाया हो चुकी हैं, उनमें और इज़ाफा न हो.

आज इस दुनिया में मुसलमान ही वे खुशकिस्मत लोग हैं, जिनके पास रब्बुल आलेमीन का हिदायतनामा “कुरआन-मजीद” मौजूद है. किन्तु बड़े अफसोस की बात यह है कि आज मुसलमान ही दुनिया में वे बदकिस्मत लोग भी हैं, जो  इतनी बड़ी दौलत अपने पास रखते हुए भी इतने ज़्यादा बेबस, कमज़ोर, बेइज्ज़त व रुसवा दिखाई देते हैं.

उनके समाज को देखने के बाद ऐसा लगता है कि न तो उनके पास ज़िन्दगी गुजारने का कोई तरीका है और न ही उनका कोई रहनुमा है. कितनी अजीब स्थिति है. सोचो कि यदि उनके पास इतना कीमती और शिफ़ा हासिल करने का बेहतरीन अकसीर नुस्खा मौजूद हो और वे स्वयं इस तरह की बीमारियों का शिकार हों. साथ ही वे इस मुसीबत से निजात पाने की कोई राह भी न पा रहे हों.

इस मुल्क पर जितना हक़ बाहर से आये उन आर्यों का हो सकता है, जो आज भी प्राचीन भारत के मूल बाशिंदों को अपना गुलाम समझकर उन्हें पिछड़ेपन की अंधेरी गुफा में धकेले हुए हैं. उतना ही हक़ इस मुल्क के तमाम अल्पसंख्यकों का भी है. आज़ादी की लड़ाई में इनकी कुर्बानियां फरामोश नहीं कही जा सकतीं. इनका लहू इसी भारत-भूमि की पाक रज में सना हुआ है.

भारत का सच्चा मुसलमान तो अपने को अल्पसंख्यक ही नहीं कहलाना चाहता है. वह कहता है कि हम हिन्दुस्तान में अल्पसंख्यक कब से हो गए? जबकि यहां की संस्कृति को हमने बढ़-चढ़ कर संवारा है. हमने यहां की राज-व्यवस्था को चलाया है. कौन हैं वो राजनीतिक कठमुल्ले जो हमे अल्पसंख्यक समझते हैं?

संख्या के अतिरिक्त बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के विभेद का दूसरा आधार एक विशेष समुदाय की राजनीतिक और आर्थिक शक्ति भी है, इसे समझने की ज़रूरत है. उदाहरण केलिए ब्रिटिश शासन के अंतर्गत हिन्दुओं की तुलना में मुसलमानों और ईसाईयों की संख्या कम होने के बाद भी उनकी राजनीतिक शक्ति अधिक थी. इसी कारण उन्हें अल्पसंख्यक नहीं माना जाता था.

दरअसल, व्यवहारिक रुप से संसार के विभिन्न भागों में जिस समुदाय को धर्म, संस्कृति या प्रजाति के आधार पर कुछ विशेष अधिकारों से वंचित कर दिया जाता है, उसी को अल्पसंख्यक समुदाय कहा जाता है. और वैसे भी भारत में स्वतंत्रता के बाद संविधान के द्वारा सभी धर्मों के मानने वाले लोगों को समान दिकार दिये गए हैं. इसके बाद भी राजनीतिक कारणों से हिन्दुओं के अतिरिक्त दूसरे सभी धर्मों को मानने वाले लोगों को अल्पसंख्यक मानकर उन्हें विशेष सुविधाएं दी जाने लगीं. विभिन्न राजनीतिक दलों ने भी अपने वोट बैंक बनाने के लिए अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच विभेद बढ़ाने में योगदान किया. इसी दशा ने धीरे-धीरे यहां हिन्दुस्तान की माटी में बिगाड़ पैदा कर दिया.

अब यह समय नौजवान हिन्दुस्तानी मुसलमानों का है. वो वास्तविक मायनों में हिन्दुत्व को समझें. अल्पसंख्यक की राजनीति के संकुचन से बाहर निकलें और एकजुट होकर भारत माता की जय बोलें.

भारत में सेक्युलरिज़्म को लेकर भी हमारे कुछ पड़ोसियों और दुनिया को चिन्ता है. उनका मानना है कि भारत में भाईचारा की परंपरा एक मृगतृष्णा है. यहां सेक्यूलरिज़्म का दावा एक फरेब है. चलो माना हम तो सेक्यूलर राज्य का कोई भी अच्छा नमूना दिखाने में अब तक कामयाब नहीं हो सके. किन्तु पाकिस्तान और बांग्लादेश इस्लामी राज्य का नमूना दिखाते तो फ़र्क मालूम होता.

पागलपन तो सब जगह एक सा ही है. सच तो यह है कि आज़ादी से पहले अंग्रेज़ों ने फिरकापरस्ती और नफ़रत का जो बीज बोया था, आज़ादी के बाद वह बीज पौधा और अब पौधे से दरख़्त बन गया है. आज़ादी मिल जाने के बाद भी मुल्क इस अभियान से छुटकारा हासिल न कर सका.

आज कोई दिन मुश्किल से गुजरता है जब अख़बार के पन्ने पर किसी नये फिरकावाराना फसाद की ख़बर से खाली हो. किन्तु यह भी सत्य है कि आज़ादी के लिए शुरू हुई छद्म राजनीति से पहले, जिसमें ख़िलाफत आंदोलन के समय से ही मुसलमानों को अलगाव का मोहरा समझा गया. कोई भी प्रमाण हिन्दू-मुसलमानों के फिलहाल संघर्ष का तो एक भी नहीं मिलता है.

इसकी वास्तविक जड़ तो मोहम्मद अली ज़िन्ना थे. ‘काफ़िर’ ज़िन्ना का भारतीय मुसलमानों को मोहरा बनाकर अपनी राजनैतिक रोटियां सेकना ज़्यादा गवारा गया. अन्यथा यदि वह कभी इस्लाम में आस्था रखता, आस्तिक होता और सच्चा मुसलमान होता तो आज न हिन्दू-मुसलमान विवाद होता और न ही भारत-पाकिस्तान के बंटवारे के बाद कश्मीर का विवाद खड़ा होता.

यदि ईश्वर मेरे अन्दर इतनी शक्ति दे दे कि मैं समय की परिधि पर नियंत्रण पा सकूं. तो मैं फिर से गुलामी के दिनों में जाता और ज़िन्ना की आत्मा में समाकर ख़ुदा से यही दुआ करता कि ऐ ख़ुदा इस बार मैं इंसाफ के साथ ठीक-ठीक तौलूं और ज़मीन में मेरे कारण कोई बिगाड़ व फसाद न फैले.

इसके बरक्स जनता आज आरएसएस से भी ऐसे ही अल्फ़ाज सुनना चाहती है, जो कि कौमी जमाअत नहीं बल्कि हिन्दू जमाअत है, जहां से वास्तविक मायनों में आज ‘हिन्दू’ भी स्वयं नदारत है.

वास्तव में मैं हिन्दू हूं. मैं राष्ट्रीय स्वयं सेवक हूं. किन्तु मैं आरएसएस का सदस्य नहीं हूं. यही बात मेरे मुस्लिम दोस्त मो. दानिश और रिज़वान भी स्वीकारते हैं कि वे हिन्द के हैं तो हिन्दू हैं. अपने कर्मों से अपनी सेवा देश को दे रहे हैं तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक भी हैं. लेकिन वो कहते हैं कि वे आरएसएस के सदस्य नहीं हैं.

इस तरह से आज हिन्दुस्तान की हालत बदल रही है और हिन्दुत्व के मायने भी… क्योंकि आज हिन्दू अपना हिन्दुत्व खोता जा रहा है, जबकि मुसलमान हिन्दुत्व को समझकर उसे आत्मसात कर रहा है. इसलिए भारत की उन्नति और शान्ति के लिए आज मुसलमान हिन्दुत्व का पोषक है. अतः आज मुझे ऐसा हिन्दुत्व का मर्म समझने वाला मुसलमां बनने का जी चाहता है.

(लेखक भारतीय जनसंचार संस्थान, नई दिल्ली के छात्र हैं. और ये उनकी निजी विचार हैं.)

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