हम मज़दूरों के लिए जो सबसे अहम सवाल है वह यह है कि क्या अरविन्द केजरीवाल और उनकी ‘आम आदमी पार्टी’ हमारी दोस्त है? या क्या वह कांग्रेस या भाजपा जैसी पार्टियों से वास्तव में भिन्न है या उनसे बेहतर है? क्या हम उससे कुछ उम्मीद रख सकते हैं? इस बात की पड़ताल किस पैमाने पर की जानी चाहिए हम मज़दूर केवल एक पैमाने पर इसकी पड़ताल कर सकते हैं और वह है मज़दूर वर्ग का पैमाना… आइये देखते हैं कि केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ का इस बारे में क्या मानना है.
‘अमीर और ग़रीब दोनों साथ में दिल्ली पर राज करेंगे।’ क्या वाकई?
हाल ही में, ‘आम आदमी पार्टी’ के चाणक्य योगेन्द्र यादव ने बताया कि कि ‘आम आदमी पार्टी’ वर्गों के संघर्ष में भरोसा नहीं करती. उसका मानना है कि अमीरों से कुछ भी छीना नहीं जाना चाहिए. ग़रीबों को जो भी मिलेगा वह भ्रष्टाचार ख़त्म करके मिलना चाहिए, न कि अमीरों से छीनकर. यही बात अरविन्द केजरीवाल ने भी कई बार अलग-अलग टीवी चैनलों को कही है. लेकिन इस पूरी बात में एक बड़ा गोरखधन्धा है. हम मज़दूरों के लिए सोचने का सवाल यह है कि अमीर अमीर हुआ कैसे? ग़रीब ग़रीब क्यों है? और अमीर के अमीर रहते और ग़रीब के ग़रीब रहते समाज में खुशहाली कैसे आयेगी? समाज में धन-सम्पदा पैदा कौन करता है उसका बँटवारा कैसे होता है? क्या हम जानते नहीं हैं कि अमीर वर्ग, मालिक वर्ग, पूँजीपति वर्ग अमीर इसीलिए है क्योंकि वह हम मज़दूरों की मेहनत को लूटता है? क्या हम जानते नहीं हैं उसकी अमीरी, उसकी शानो-शौक़त और ऐयाशियों की कीमत हम मज़दूर अपना खून और पसीना बहाकर अदा करते हैं?
हम अच्छी तरह से जानते हैं कि पूँजीपतियों की भारी सम्पत्ति आसमान से नहीं टपकी है; उनका विशालकाय बैंक बैलेंस ‘ईश्वर की देन’ नहीं है; उनके नौकरों-चाकरों की फौज ‘देवताओं’ ने नहीं भिजवायी है! इस सबकी कीमत हम अदा करते हैं. निजी सम्पत्ति और कुछ नहीं बल्कि पूँजी है; पैसा अपने आपमें कुछ भी नहीं अगर उससे ख़रीदने के लिए तमाम वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन न हो; वस्तुएँ व सेवाएँ दुकानदार, व्यापारी, पूँजीपति, मालिक या ठेकेदार नहीं पैदा करते! उन्हें हम मज़दूर बनाते हैं! सुई से लेकर जहाज़ तक-हरेक वस्तु! इन वस्तुओं को बनाने के बावजूद ये वस्तुएँ हमसे छीन ली जाती हैं और हमें बदले में मुश्किल से जीने की खुराक मिलती है. यही लूट तो हमारी ग़रीब का कारण है!
ऐसे में, हम तब तक ग़रीब बने रहेंगे जब तक कि पूरा उत्पादन पूँजीपतियों के हाथों में है, जब तक कि यह उत्पादन समाज की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए नहीं बल्कि पूँजीपति के मुनाफ़े के लिए होता हो. पूँजीपति की मुनाफ़े की शर्त हमारी ग़रीबी और बदहाली है! हमें ग़रीब, बेकार और बदहाल बनाये बगै़र पूँजीपति अपना उत्पादन कम लागत में कर ही नहीं सकता और मुनाफ़ा कमा ही नहीं सकता. आपस में कुत्तों की तरह लड़ते पूँजीपति पर हमेशा बाज़ार का यह दबाव काम करता है कि वह हमें लूटे और बरबाद करे; वह हमें कम-से-कम मज़दूरी दे और हमसे ज़्यादा से ज़्यादा काम करवाये! चाहे पूँजीपति अच्छी नीयत और सन्त प्रकृति का ही क्यों न हो, अगर उसे पूँजीपति के तौर पर ज़िन्दा रहना है तो उसे मज़दूर को लूटना होगा, उसे बेकारी के दलदल में धकेलना ही होगा.
सवाल नीयत या इरादे का है ही नहीं, सवाल वर्ग का है! सवाल पूरी व्यवस्था और सामाजिक ढाँचे का है! केजरीवाल और ‘आम आदमी पार्टी’ इस पूरी पूँजीवादी व्यवस्था पर कहीं सवाल नहीं खड़ा करते, बल्कि उसका समर्थन करते हैं. वे बस उस भ्रष्टाचार को ख़त्म करने की बात करते हैं जिससे मध्यवर्ग दुखी रहता है और पूँजीपति वर्ग परेशान रहता है. इसीलिए वे ग़रीबी और अमीरी का बँटवार ख़त्म करने की बात नहीं करते, बल्कि यह हवा-हवाई बात करते हैं कि ‘दिल्ली पर ग़रीब और अमीर साथ में राज करेंगे और खुशी-खुशी रहेंगे!’
ग़रीब के ग़रीब रहते और अमीर के अमीर रहते, ऐसा मुमकिन नहीं है क्योंकि अमीर इसी शर्त पर अमीर होता है कि ग़रीब और ग़रीब होता जाय. समृद्धि मज़दूर वर्ग अपनी मेहनत झोंक कर, अपनी ज़िन्दगी और वक़्त लगाकर पैदा करता है. वह उससे पूँजीपति ले लेता है और बदले में उसे जीने की खुराक भर दे देता है. इसी प्रक्रिया से अमीर अमीर बनता है और मज़दूर ग़रीब होता जाता है. ऐसे में, केजरीवाल सरकार का यह कहना कि अमीर से वह कुछ नहीं लेगी और ग़रीब को सबकुछ देगी, मज़ाकिया है और केवल यह दिखाता है कि या तो केजरीवाल और उसके लग्गू-भग्गू मूर्ख हैं, या फिर दिल्ली के ग़रीब मज़दूरों को मूर्ख बना रहे हैं.