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बियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

क्या एक बर्तन लेकर कहीं जाने पर आप को जेल हो सकती हैं?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published April 6, 2015
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7 Min Read
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Himanshu Kumar

अगर आप एक आदिवासी हैं और किसी माओवाद प्रभावित इलाके में रहते हैं, तो हाँ! ज़रूर हो सकती है.

तथाकथित निचले स्तर के माओवादी कार्यकर्ताओं के विवादास्पद आत्मसमर्पण और आदिवासियों को आर्म्स एक्ट और धारा 307, यानी हत्या की कोशिश के मुक़दमे बनाकर लंबे समय तक जेलों में रखने के मुद्दे पर छत्तीसगढ़ पुलिस आजकल काफी चर्चा बटोर रही है. और आदिवासियों के ऊपर जो आरोप लगाये जाते हैं उनमे शामिल हैं; बड़ा बर्तन लेकर कहीं जाना, छाता, परम्परागत धनुष वाण, सब्ज़ी काटने का चाकू उनके पास होना.

इनमें से कई आदिवासी जेलों में कई साल गुज़ार चुके हैं. हांलाकि इन लोगों के नाम किसी भी चार्जशीट में नहीं लिखे हुए थे, ना ही कभी किसी गवाह ने कभी आरोपी के तौर पर इन्हें पहचाना.

ये चौंकाने वाले तथ्य डीएनए अख़बार द्वारा विभिन्न मुक़दमों में पुलिस द्वारा अदालतों में जमा किये गए कागजातों के अध्ययन से सामने आये हैं. इस अध्ययन से साफ़ हो जाता है कि पुलिस द्वारा बस्तर के इस इलाके में जिस तरह से मामलों में जांच करी गयी है, वह भयानक गलतियों और ग़लत पूछताछ से भरा हुआ है जिससे इस इलाके में बड़े पैमाने पर अन्याय फ़ैल गया है.

उद्धाहरण के लिए सन 2012 एक मामला सुकमा ज़िले के जगरगुंडा थाने में दर्ज़ किया गया है. इस मामले में पुलिस ने 19 लोगों को आरोपी बनाया है और उनमें से नौ लोगों को गिरफ्तार किया है. इस मामले में ज़ब्त किये गए सामान की सूची के मुताबिक़ इन लोगों के पास से धनुष वाण ज़ब्त किये गए हैं.

इसी मामले में आरोपी संख्या आठ दोरला जनजाति के सल्वम सन्तों से ज़ब्त किए गए सामान में खाना बनाने का बड़ा बर्तन लिखा गया है. इन सभी आदिवासियों को हत्या की कोशिश करने, आर्म्स एक्ट, विस्फोटक एक्ट, घातक अस्त्र-शस्त्र से लैस होकर दंगा फैलाने और राज्य के अन्य कानून की धाराएं लगाईं गयी हैं.

बीजापुर और दंतेवाड़ा के कई और मामलों में भी इसी तरह के सामान की ज़ब्ती दिखाई गयी है.

बीजापुर ज़िले के एक अन्य मामले में दो आदिवासी मीडियम लच्छु और पुनेम भीमा को पुलिस ने सन 2008 में गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया था. इन दोनों आदिवासियों का नाम पुलिस के किसी भी कागज में नहीं था. सिर्फ गिरफ्तार किये गए लोगों की सूची में इनका नाम लिखा हुआ था. इन लोगों पर हथियार लेकर दंगा करने और हत्या की कोशिश करने, आर्म्स एक्ट आदि का मामला बनाया गया था. हांलाकि पुलिस द्वारा इस मामले में बनाए गए गवाहों में से किसी ने भी अपने बयानों में इन दोनों के नाम का ज़िक्र नहीं किया था.

इन दोनों के ऊपर अभी भी मुक़दमा चल रहा है. हांलाकि ये दोनों आदिवासी ज़मानत पर जेल से रिहा हो चुके हैं, लेकिन तब तक ये दोनों जेल में छह साल गुज़ार चुके थे. इस दौरान बहिन को छोड़कर लच्छु के परिवार के सभी सदस्यों की मृत्यु हो गयी. इसी मामले में एक और आरोपी इरपा नारायण को भी पुलिस ने पकड़ कर जेल में डाला हुआ है. पुलिस के मुताबिक पुलिस ने इरपा नारायण को नक्सलियों से भयानक मुठभेड के बाद पकड़ा था, लेकिन इरपा नारायण के पास से मात्र तीर धनुष ही ज़ब्त दिखाया गया है.

जगदलपुर लीगल एड ग्रुप द्वारा किये गए एक स्वतंत्र अध्ययन से पता चला है कि छत्तीसगढ़ में सन 2012 तक आपराधिक मामलों में से कुल 95.7 लोगों को अदालत द्वारा रिहा कर दिया गया.

राष्ट्रीय स्तर पर इस तरह से रिहा होने वाले आरोपियों का प्रतिशत 38.5 है. छत्तीसगढ़ में मुक़दमों में बहुत ज्यादा समय लगता है. इससे आरोपियों को जेलों में बहुत लंबा समय बिताना पड़ रहा है. सन 2012 में मात्र 60 प्रतिशत मुक़दमों का फैसला दो साल के भीतर किया गया. जबकि बड़ी संख्या में मुक़दमों का निपटारा 6 साल के बाद किया गया.

इस सब के कारण छत्तीसगढ़ की जेलें खचाखच भरी हुई हैं. सन 2012 में छत्तीसगढ़ की जेलों में 14,780 लोग बंद थे. जबकि इन जेलों की कुल क्षमता 5,850 कैदियों को रखने की ही है. छत्तीसगढ़ की जेलों में क्षमता से अधिक कैदियों का प्रतिशत 253 है, जबकि राष्ट्रीय स्तर पर यह प्रतिशत 112 ही है.

पुलिस की जांच में त्रुटियों का पता आदिवासी भीमा कड़ती के मामले से लग जाता है. भीमा कड़ती की उम्र मात्र 19 साल की थी, पुलिस ने उस पर 12 मामले बनाए थे, जिनमें दो रेल पलटाने के भी थे. हांलाकि किसी भी मामले में कुछ भी सिद्ध नहीं कर पायी. कड़ती भीमा को अदालत ने सभी मामलों में बरी कर दिया, लेकिन तब तक तो कड़ती भीमा जेल में ही चिकित्सीय लापरवाही से मर चुका था.

इसी तरह के एक मामले में आदिवासी महिला कवासी हिड़मे को 2008 में गिरफ्तार किया गया था. उस पर 23 सिपाहियों पर हमला करने का आरोप लगाया गया था. उसका नाम गिरफ्तारी के कई महीने बाद 50 आरोपियों की सूची में जोड़ा गया. लेकिन उसे किसी भी चश्मदीद गवाह ने नहीं पहचाना. उसका मुक़दमा अभी भी कोर्ट में है.

जब इस विषय में हमने बस्तर के पुलिस महानिरीक्षक एसआरपी कल्लूरी से उनकी प्रतिक्रिया लेने के लिए बात करने की कोशिश करी तो उन्होंने यह कहकर फोन काट दिया कि “नई दिल्ली की मीडिया माओवादी समर्थक है. मैं आप लोगों से नहीं मिलना चाहता. मुझे मेरा काम करने दीजिए”.

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