Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines
आज से ठीक 98 साल पहले आज ही की तारीख़ यानी 23 अप्रैल, 1917 को गांधी पहली बार बेतिया आएं. सच पूछे तो ये पीर मुहम्मद मूनिस के क्रांतिकारी शब्द ही थे जो गांधी को चम्पारण खींच लाया था. और गांधी के सत्याग्रह के कारण चम्पारण की एक अलग पहचान बनी.
उन दिनों चनपटिया के हाजी दीन मुहम्मद के आर्थिक सहयोग से राजकुमार शुक्ल व शीतल राय के साथ शेख़ गुलाब 1916 के दिसम्बर महीने में कांग्रेस के 31वें लखनऊ अधिवेशन में गए थे, ताकि कांग्रेस के किसी बड़े लीडर को चम्पारण आने के लिए तैयार किया जा सके.
वहां जाकर सबसे पहले ये लोग लोकमान्य तिलक से मिले. तिलक ने यह कहकर टाल दिया कि –‘देश में बड़े-बड़े काम पड़े हैं. वहां जाने की फुर्सत नहीं.’[1] उसके बाद मदन मोहन मालवीय ने भी यह कहकर पल्ला झाड़ लिया कि ‘क्षेत्रीय स्तर पर काम करना कठिन है.’[2] गांधी ने भी कहा कि –‘देखा जाएगा.’ राजकुमार शुक्ल ने दुबारा गांधी से गुज़ारिश की कि बस एक बार चम्पारण को देख लीजिए तो फिर गांधी ने वादा किया –‘मार्च या अप्रैल में कुछ दिनों के लिए आने की कोशिश करेंगे.’[3]
लखनऊ अधिवेशन के बाद गांधी जी कानपूर गए. राजकुमार शुक्ल वहां भी पहुंच गए.[4] तब गांधी जी पहली बार कानपूर में ही ‘प्रताप’ में छपे मूनिस के लेखों के ज़रिए चम्पारण के इतिहास व भूगोल से रूबरू हुए. मूनिस की अंतर्राष्ट्रीय मुद्दों की समझ से गांधी जी काफी प्रभावित हुए. सच तो यह है कि मूनिस साउथ अफ्रीका वाले गांधी को भी जानते थे और अपने लेखनी के माध्यम से भारत की जनता को गांधी से रूबरू करा रहे थे. और मूनिस के लेखों से चम्पारण को जानकर ही गांधी जी ने वहां जाने का मन बना लिया. उन्होंने कानपुर से राजकुमार शुक्ल को यह कहकर विदा किया वो कोलकाता अधिवेशन के बाद चम्पारण ज़रूर आएंगे.
चम्पारण लौटने के बाद राजकुमार शुक्ल ने गांधी जी को 27 फ़रवरी, 1917 को पत्र लिखा. उस पत्र ने भी गांधी जी को काफ़ी प्रभावित किया और इसे पढ़ते ही गांधी जी का चम्पारण आने का मन और पक्का हुआ. दरअसल यह पत्र राजकुमार शुक्ल ने पीर मुहम्मद मूनिस से लिखवाया था. पटना कॉलेज के प्रिसिंपल व इतिहासकार डॉ. के.के. दत्ता को गांधी जी को लिखा यह पत्र मूनिस के घर से मिला था.[5] पत्र में मूनिस ने गांधी को ‘मान्यवर महात्मा’ कहकर संबोधित किया था. पत्र में एक जगह मूनिस जी ने लिखा था –‘किस्सा सुनते हो रोज़ औरों के, आज मेरी भी दास्तान सुनो! आपने उस अनहोनी को प्रत्यक्ष कर कार्यरूप में परिणत कर दिखाया, जिसे टालस्टॉय जैसे महात्मा केवल विचार करते थे. इसी आशा और विश्वास से वशीभूत होकर हम आपके निकट अपनी रामकहानी सुनाने को तैयार हैं. हमारी दुख भरी कथा उस दक्षिण अफ्रीका के अत्याचार से –जो आप और आपके अनुयायी वीर सत्याग्रही बहनों और भाईयों के साथ हुआ –कहीं अधिक है.’
पत्र के आख़िर में उन्होंने लिखा है –‘चम्पारन की 19 लाख दुखी प्रजा श्रीमान के चरण-कमल के दर्शन के लिए टकटकी लगाए बैठी है और उन्हें आशा ही नहीं, बल्कि पूर्ण विश्वास है कि जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्र जी के चरणस्पर्श से अहिल्या तर गईं, उसी प्रकार श्रीमान के चम्पारन में पैर रखते ही हम 19 लाख प्रजाओं का उद्धार हो जाएगा.’
‘इसके बाद एक दूसरा पत्र खुद पीर मुहम्मद मूनिस ने गांधी जी को 22 मार्च 1917 को भेजा, जिसमें उन्होंने चम्पारण के संबंध में बहुत सी बातों और घटनाओं का उल्लेख किया. इसके उत्तर में गांधी ने 28 मार्च 1917 को यह पूछा कि वह मुज़फ्फरपुर किस रास्ते से पहुंच सकते हैं? और यह भी जानना चाहा कि यदि वह तीन दिनों तक चम्पारण में ठहरें, तो जो कुछ देखने की आवश्यकता थी, वह सब देख सकेंगे या नहीं? यह पत्र अभी पहुंचा भी नहीं था कि 3 अप्रैल 1917 को उन्होंने शुक्ल जी को तार दिया कि मैं कलकत्ता जा रहा हूं, वहां श्रीयुत् भूपेन्द्रनाथ वसू के मकान पर ठहरूंगा, आकर वहीं मिलो. इस तार के मिलते ही फौरन राजकुमार शुक्ल कलकत्ता चले गए…’[6]
गांधी जी जब ‘निलहे अंग्रेज़ों’ के ख़िलाफ़ जंग करने के लिए जब पहली बार 23 अप्रैल 1917 को बेतिया पहुंचे तो हज़ारीमल धर्मशाला में थोड़ा रूक कर शाम 5 बजे सीधे वो पीर मुहम्मद मुनिस के घर उनकी मां से मिलने पैदल चल पड़े. वहां मुनिस के हज़ारों मित्र पहले से ही मौजूद थे. द्वार पर जाकर कुछ देर बैठे रहे. बाद में उनकी माता जी से मिलने उनके घर के अंदर चले गए. कुछ देर उनकी मां से बातचीत की और फिर द्वार पर चले आए. यहां मूनिस के मित्रों ने महात्मा गांधी को एक अभिनन्दन-पत्र दिया.[7]
गांधी जी यह अभिनन्दन पत्र सेवक समिति की ओर से दिया गया था. इस अभिनन्दन पत्र को मुहम्मद जान नामक एक व्यक्ति ने पढ़ा. अभिनन्दन पत्र लेकर गांधी जी राजकुमार शुक्ल जी के डेरे पर गए. वहां कुछ देर ठहर कर वे फिर से वापस धर्मशाला में चले आएं.
[1] सच्चिदानन्द सौरभ, चम्पारण का स्वर्णिम इतिहास, सुरभि प्रकाशन, बिहार, पृष्ठ -40.
[2] सच्चिदानन्द सौरभ, चम्पारण का स्वर्णिम इतिहास, सुरभि प्रकाशन, बिहार, पृष्ठ -40.
[3] D.G. Tendulkar, Gandhi in Champaran, Publications Division, Ministry of Information & Broadcasting, Govt. of India, 2005, Page -27.
[4] D.G. Tendulkar, Gandhi in Champaran, Publications Division, Ministry of Information & Broadcasting, Govt. of India, 2005, Page -27.
[5] विन्ध्याचल प्रसाद गुप्त, नील के धब्बे, संवाद प्रकाशन, बेतिया, 1986, पृष्ठ -106.
[6] डॉ. शोभाकांत झा, स्वतंत्रता संग्राम और चम्पारन, प्रजापति शैक्षणिक विकास एवं समाज उन्नयन संस्था, बेतिया, 1997, पृष्ठ -18.
[7] अशरफ़ क़ादरी, तहरीक आज़ादी-ए-हिन्द में मुस्लिम मुजाहिदीन चम्पारन का मुक़ाम (उर्दू), अशरफ़ क़ादरी, 1992, पृष्ठ -57.
