अवसरवादी दोस्ती : बिहार की जनता शायद इतनी कन्फ्यूज़ कभी नहीं रही होगी!

Beyond Headlines
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Deepshikha Singh for BeyondHeadlines

“राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं होता है, न दोस्ती न दुश्मनी” लेकिन आज के राजनैतिक परिदृश्य में एक चीज़ स्थायी है, वह है अवसरवादी दोस्ती… अब किसने सोचा था कि बीजेपी जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ मिलकर सरकार बना सकती है. बीजेपी ने सरकार बनाने के लिये बक़ायदा अपने मुख्य अजेंडा धारा-370 तक से समझौता कर लिया.

रामविलास पासवान तो अवसरवादी दोस्ती के सिरमौर हैं. जिस एनडीए की बुराई करते वे थकते नहीं थे, आज वे इसी का हिस्सा हैं. नेताओं के पास इन सब पलटी-मार करामातों का एक ही जवाब होता है कि वे जनता की भलाई के लिये ऐसा कर रहें हैं. अब हाल-फिलहाल बिहार में भी ऐसा ही कुछ हो रहा है.

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद बिहार के राजनीति का स्वरूप ही बदल गया है. हालांकि इस राजनीतिक भूचाल की पटकथा इस चुनाव से बहुत पहले ही लिखी जा चूकी थी. बिहार में नितीश कुमार अपने मुख्यमंत्रित्व के पहले कार्यकल की बदौलत पूरे भारत में लोकप्रिय हो रहे थें, परन्तु यह लोकप्रियता इतनी ज्यादा नहीं थी कि नरेंद्र मोदी को राष्ट्रीय स्तर पर चुनौती दी जा सके. यही नितीश कुमार की निजी महत्वकांक्षा के आड़े आ रहा था. यहीं से शुरू हुआ नितीश कुमार की राजनैतिक हैसियत कम होने का दौर…

भाजपा की तरफ से नरेंद्र मोदी के प्रधानमन्त्री पद के उम्मीदवार के तौर पर घोषणा होने के बाद से नितीश कुमार को भाजपा साम्प्रदायिक पार्टी नज़र आने लगी, उसके पहले सत्ता का सुख में अंधे नितीश कुमार को भाजपा का केसरिया रंग नज़र नहीं आ रहा था. खैर, भाजपा से अलग होकर लोकसभा चुनाव लड़ने का फैसला जदयू और नितीश कुमार दोनों के लिये घातक सिद्ध हुआ.

उधर चारा घोटाला के आरोपी लालू यादव की संसदीय मान्यता अगले छः साल के लिये रद्द हो चुकी थी. वे अगले छः साल तक चुनाव नहीं लड़ सकते थे. यहीं से शुरू हुआ एक दुसरे के कट्टर विरोधी के अवसरवादी दोस्त बनने का दौर… ये कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी कि नितीश कुमार भाजपा द्वारा लोकसभा चुनाव की हार से इतने घबरा गये कि उन्होंने सत्ता तक अपने सहयोगी जीतन राम मांझी को सौंप दी. नितीश कुमार जैसे मंझे और पुराने राजनैतिक खिलाड़ी से ये उम्मीद किसी को नहीं थी. बाद में जीतन राम मांझी ने नितीश कुमार की कितनी फ़ज़ीहत की ये सबको मालूम ही है.

चारा घोटाला में आरोप सिद्ध होने के बाद लालू यादव के राजनीतिक जीवन का सूर्यास्त लगभग शुरू हो चूका था. इसके अलावा अपने परिवार के सदस्य को ही राजनीतिक कमान देने की उनकी अभिलाषा ने, उनकी तथा उनकी पार्टी का बेड़ा गर्क किया. उधर नितीश कुमार भी अपनी ताज़ातरीन हार से छटपटा रहे थे और इधर लालू यादव को भी अपने आप को प्रासंगिक बनाये रखने का कोई उपाय सूझ नहीं रहा था. ऐसे में भाजपा और साम्प्रदायिकता के नाम का चोला ओढ़ना दोनों की राजनैतिक मजबूरी बन चूकी थी.

इसमें कोई शक़ नहीं है कि लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा के पूरे देश में उदय की वजह से छोटे और राजकीय दल का अस्तित्व संकट में नज़र आने लगा. संकट इतना भी बड़ा नहीं था कि नितीश कुमार, लालू यादव से मिलकर चुनाव लड़ने की घोषणा करें. नितीश कुमार ने अपने कट्टर विरोधी लालू यादव को दूबारा राजनैतिक टॉनिक पिलाकर उन्हें फिर से प्रासंगिक बना दिया है. एक ही झटके में उन्होंने बिहार के विकास और अपनी जमी जमाई राजनितिक पूंजी को ताक में रख दिया. जिस जंगल राज का विरोध कर वे सत्ता में आये, आज उन्हीं के साथ गले मिल रहे हैं. बिहार की जनता शायद इतनी कन्फ्यूज़ कभी नहीं रही होगी.

दोनों मिलकर क्या मोदी कर रथ को रोक पाएंगे? अब यह प्रश्न ही अप्रासंगिक है. जनता अब लोकसभा चुनाव की खुमारी से बहुत आगे निकल चुकी है. ताज़ा भूमि अधिग्रहण बिल और दिल्ली में भाजपा की करारी हार के बाद भाजपा अब फिलहाल उतनी मज़बूत स्थिती में नहीं दिख रही है. फिर भी भाजपा के बेस वोटरों को कोई कन्फ्यूजन नहीं है और वे भाजपा को ही वोट करेंगे.

दूसरी तरफ मांझी भी निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं. अब देखना ये होगा कि भाजपा या खुद माँझी को एनडीए में शामिल होने पर कितना अपने वोटरो को लुभा सकते है. खैर, ताज़ा दिखावी और अप्रासंगिक जनता परिवार ने बिहार में नितीश कुमार को अपना नेता तय किया है, उम्मीद से विपरीत लालू यादव ने नितीश कुमार के नेतृत्व को स्वीकार कर लिया है. इसको रटी-रटायी साम्प्रदायिकता के खिलाफ़ गठबंधन का अमली जामा पहनाने की कोशिश की जा रही है.

बहरहाल, यह गठबंधन और अवसरवादी दोस्ती विधानसभा उपचुनाव में 6-4 से आगे चल रही है. यह देखना काफी दिलचस्प होगा की यह गठबंधन विधानसभा चुनाव में कैसा परफोर्मेंस करती है. कन्फ्यूज़ जनता विकास पुरुष और विकास विरोधी के गठबंधन को चुनेगी या हालिया मज़बूती से पूरे देश में अपना एकछत्र राज्य स्थापित करने की कोशिश में लगे भाजपा को. हालांकि दिल्ली विधानसभा चुनाव भाजपा के लिये सफलता की नींद से उठ जाने का अलार्म बजा चुकी है.

(यह लेखिका के अपने विचार हैं.)

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