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बिहार विधानसभा चुनाव के सियासी समीकरण और गठबंधन राजनीति

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 22, 2015
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12 Min Read
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Jaidev Pandey for BeyondHeadlines

बिहार कभी मगध साम्राज्य का महत्वपूर्ण परिक्षेत्र रहा और इस बौद्ध भूमि पर सत्ता के संघर्ष का अपना पुराना इतिहास रहा है. और पाटलिपुत्र और राजगीर शुरू से ही सियासी संघर्षों के मुख्य केन्द्र रहे हैं और इस भूमि पर अधिकार करने वाला वास्तव में भारत भूमि का अधिपति रहा है.

भारत में राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न परिवेशों से गुज़रते हुए बिहार तमाम राजनीतिक और सामाजिक मुद्दों को आत्मसात कर एक बार फिर उसी सियासी समीकरण के नज़दीक पहुँचा है, जो कभी इतिहास के सुनहरे पन्नों में ठसक के साथ उपस्थित रहा है.

कभी महाजनपदों के काल में शेरशाह के समकालीन मुग़ल काल के दिल्ली सल्तनत हो या अंग्रेजी काल में बक्सर के निर्णायक युद्ध ने या राष्ट्रीय आंदोलन के विभिन्न संघों और कृषक आंदोलनों ने गठबन्धन की नींव रखी थी और कभी विभिन्न प्रदेशों के राजाओं, सुल्तानों, शासकों और जातीय गठबंधनों ने बिहार की राजनीति के पैमाने को बड़ी शिद्दत से गढ़ा है, जिसकी बानगी आज भी उतनी ही मज़बूती के साथ बिहार की राजनीति में समायी हुई है.

आज भारतीय राजनीति का केन्द्र दिल्ली न होकर बिहार हो गया है, क्योंकि लोगों का मानना है कि बिहार के चुनावी परिणाम आगामी लोकसभा चुनाव में नए समीकरणों को जन्म दे सकता है या चुनावी रणनीतियों को बदलने पर मजबूर भी कर सकता है.

अभी विगत 2 जुलाई से बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार ने “हर घर दस्तक“ कार्यक्रम की शुरूआत कर चुनावी बिगुल फूंक दिया है. ऐसा माना जा रहा है कि आगामी अक्टूबर-नवम्बर में बिहार विधान सभा के चुनाव होंगे, जिसमें प्रमुख दलीय गठबंधनों ने अपनी-अपनी जीत सुनिश्चित करने हेतु चुनावी अभियान शुरू कर दिया है. इसी दौर में बिहार में सत्तासीन जदयू ने पटना के विभिन्न क्षेत्रों में चुनावी होर्डिंग लगवा रखे हैं जिस पर यह रेखांकित दिखता है कि “आगे बढ़ता रहे बिहार, फिर एक बार नीतिश कुमार” वहीं नीतिश ने एक और नये नारे का इजाद किया “उगता बिहार, नूतन बिहार” साथ ही जदयू के 400 बसों को बिहार के विभिन्न जिलों में चुनावी अभियान पर भेज दिया गया है, जो वर्तमान सरकार की उपलब्धियों का गुणगान करेगी.

एक महत्वपूर्ण बात है कि विगत लोकसभा चुनाव में भाजपा और नरेन्द्र मोदी के चुनाव प्रचार की बागडोर सम्भालने वाले प्रशांत किशोर ही जदयू और नीतिश कुमार के प्रचार के खेवनहार बन चुके हैं. देखना यह होगा कि प्रशांत किशोर क्या दूसरी बार सफल हो पाते हैं. इस चुनावी जंग की रणभेरी में जदयू जहाँ गाँव स्तर पर चौपाल आयोजित कर रही है वहीं उसकी सहयोगी राजद मंडल स्तर पर सम्मेलन कर रही है.

यदि गठबंधनों की चर्चा की जाए तो इस बार बिहार में तीन प्रकार के गठबंधन चुनाव में नज़र आएंगे. पहला गठबंधन जिसे महागठबंधन कहा जा रहा है, वह सत्ताधारी जदयू, राजद, कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की है, जो बिहार से साम्प्रदायिक शक्तियों को दूर करने के उद्देश्य से बनी है. लेकिन अचरज वाली बात है कि कल जदयू उन्हीं दलों के साथ मिलकर राजद और लालू विरोधी सरकार को संचालित कर रही थी, यानी जदयू ने अपने-अपने दोस्त और दुश्मनों को एक दूसरे से शिफ्ट कर दिया है.

वहीं दूसरी ओर भाजपा और उसके सहयोगी दलों का गठबंधन है, जिसमें मुख्य विपक्षी दल भाजपा, रामविलास की पारिवारिक पार्टी लोजपा और कोइरी जाति के नेता उपेन्द्र कुशवाहा की रालोसपा है.

तीसरे गठबंधन के रूप में भाकपा और कांग्रेस विरोधी वामपंथी पार्टियां हैं, जो कभी भूत में बिहार के मजदूरों और किसानों की जुबान होती थी. जिसमें भाकपा, माकपा और माले हैं. वहीं महागठबंधन में अपनी हिस्सेदारी न मिलने के कारण जदयू और राजद के विरोध से निकली पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की हिन्दुस्तानी आवाम मोर्चा (हम),  मधेपुरा से राजद सांसद पप्पू यादव की जन अधिकार पार्टी और कभी लालू के चहेते साले रहे साधू यादव की गरीब जनता दल प्रमुख रूप से चुनाव में भागीदारी करेगें.

यदि बिहार के बाहर के राज्यों की राजनीतिक दलों की बात की जाए तो मुख्य रूप से उत्तर प्रदेश को समाजवादी पार्टी, जो पहले भी चुनावी समर में उतरती रही है, साथ ही बहुजन समाज पार्टी है जो अपने सीमावर्ती बिहार के पश्चिमी क्षेत्रों में दलित वोटों के सहारे चुनाव जीत चुकी है, जिसका अभियान 1995 से ही शुरू है.

जब बिहार के कैमूर ज़िले में चैनपुर और मोहनिया (सु.) सीटें बसपा ने जीती थी. वहीं 2005 के चुनाव में गोपालगंज के कटैया से अमरेन्द्र पाण्डेय और गोपालगंज सीट से रेयाज़ुल हक़ राजू ने बसपा को सफलता दिलाई. लेकिन 2010 के विगत चुनाव में बसपा को कोई सफलता नहीं मिली और इस बार महादलित वोटों की राजनीति कर रहे जीतन राम मांझी की पार्टी ‘हम’ से मायावती और बसपा को चुनावी नुक़सान हो सकता है.

बिहार के पड़ोसी झारखण्ड से बाबुलाल मरांडी की झारखण्ड विकास मोर्चा और शिबू सोरेन की झारखण्ड मुक्ति मोर्चा भी चुनाव में भागीदारी करेगें. साथ ही दक्षिण भारत की देवगौड़ा वाली पार्टी जनता दल (सेक्यूलर) ने लगातार अपने निर्माण काल से ही बिहार के चुनावों में हिस्सा लेती रही है.

विगत दिनों जनता परिवार के गठन में भी उसकी भूमिका रही है. बिहार चुनाव के लिए बने गठबंधन पूरी तरह से जातीय समीकरणों के आधार पर आधारित दिख रहे हैं. जहाँ केन्द्र में सत्ता चला रही भाजपा ने बिहार के राजपूत के 5.2 फ़ीसद वोट के लिए राजीव प्रताप रूढ़ी जैसे राजपूत नेता और 4.5 फीसद भूमिहार वोटों के लिए मुसलमानों को पाकिस्तान भेजने वाले भूमिहार नेता गिरिराज सिंह की केन्द्र में ताजपोशी हुई. वहीं दूसरी ओर रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जैसे राष्ट्र कवि के जन्मदिन को भी सी.पी. ठाकुर जैसे भूमिहार नेताओं ने चुनावी आहट को ध्यान में रखते हुए आयोजित कराया.

वहीं केन्द्रीय मंत्री रामविलास पासवान और उपेन्द्र कुशवाहा अपने-अपने जाति के क्रमशः 4 फ़ीसदी दलित वोट तथा 6.5 फ़ीसदी कोइरी वोटों के साथ भाजपा के समीकरण को मज़बूत कराते नज़र आ रहे हैं. भाजपा ने महादलित वोटों में सेंधमारी के लिए ‘हम’ के महादलित नेता जीतन राम मांझी को भाजपा में लाने का अनवरत प्रयास कर रही है. वहीं दूसरी ओर महागठबंधन में राजद के लालू प्रसाद अपने पुराने माय यानी मुस्लिम-यादव समीकरण को भुनाने का भरसक प्रयास करते रहेगें, जबकि पप्पु यादव, रामकृपाल यादव और रंजन यादव जैसे पुराने उनके चहेते नेता अब उनके समीकरण को ध्वस्त करते दिखेगें.

नीतिश कुमार 5.5 फ़ीसदी कुर्मी वोटों को साधने हेतु लगातार प्रयासरत हैं, साथ ही पिछड़ी जाति के 21 फ़ीसदी वोटों पर नज़र गड़ाये हुए हैं, जिसने उन्हें लगातार दो बार बिहार का मुख्यमंत्री बनने का अवसर उपलब्ध कराया.

महा-गठबंधन ने फासिस्ट पार्टियों के खिलाफ़ एकजुटता के नाम पर वामपंथी दलों से भी गठबंधन में शामिल होने की बात कही थी, जो मुकर गये. महागठबंधन ने जिस तरीक़े से नीतिश को अपना नेता माना जबकि लालू परिवार लगातार 15 वर्षों तक बिहार में एकछत्र राज्य किया, वह उनकी सियासी मजबूरी है कि लालू को मुलायम सिंह जैसे रिश्तेदार डॉक्टर के कहने पर ज़हर पीने को मजबूर होना पड़ा.

पिछले दिनों बिहार विधान परिषद के 24 सीटों के परिणाम से महागठन के माथे पर बल पड़ गया है क्योंकि भाजपा ने 24 सीटों में 11 सीटें जीतकर आगामी चुनाव के बनते-बिगड़ते समीकरणों को एक बार फिर से विचार करने पर विवश किया है. लेकिन सामान्यतः यह माना गया है कि विधान परिषद के वोटर विधान सभा की तरह सीधे चुनाव की बानगी साबित नहीं हो सकते. क्योंकि 2010 के चुनाव के पहले हुए विधान परिषद में लालू की राष्ट्रीय जनता दल ने उपस्थिति दर्ज करायी थी, लेकिन विधानसभा चुनाव में हाशिये पर चली गई.

यदि बात भाजपा की कही जाए तो उसे भी आत्ममुग्ध होने की ज़रूरत नहीं है, जिसे पटना के भाजपा सांसद शत्रुधन सिन्हा ने भी चेताया है. भाजपा की चुनावी रणनीति में मुख्य रूप से लालू और नीतिश निशाने पर रहेगें. उसके लिए भाजपा ने 1990 के दशक के वीडियो फुटेज तथा 2010 में लालू के जंगल राज के खिलाफ़ दहाड़ते नीतिश के वीडियो तैयार कर रखे हैं, जिसे 250 गाडि़यों में वीडियो रथ बनाकर पूरे बिहार के विधानसभा में जनता के बीच इनके महागठबंधन की पोल खोलेगें तथा साथ ही भाजपा 90 सीटों पर राजद और जदयू के तालमेल से असंतुष्ट बागियों को भी तवज्जो देने में पीछे नहीं हटेगी.

यदि पिछले लोकसभा चुनाव में बिहार के तस्वीर पर नज़र डाली जाए तो जदयू, राजद और कांग्रेस ने अलग-अलग चुनाव लड़ा था और तीनों को प्राप्त वोट प्रतिशत 45.06 भाजपा को मिले   36.48 प्रतिशत वोट से काफी अधिक था. इस तरह महा-गठबंधन की नींव बिहार में मज़बूत दिखाई पड़ती है. बशर्ते कि राजद और जदयू के अपने-अपने वोट एक दूसरे को मिल सकें.

वहीं भाजपा गठबंधन में मनमुताबिक सीटें प्राप्त न होने की स्थिति में जीतन राम मांझी और राजेश रंजन उर्फ पप्पु यादव की पार्टी तीसरे मोर्चे की बात कहने लगी है. वास्तव में बिहार के 6 फ़ीसदीफHफफफप मुसहर आबादी के ऊपर मांझी की पार्टी का प्रभाव हो सकता है और वहीं सीमांचल के जिलों में पप्पु यादव महागठबंधन के गणित को प्रभावित तो कर ही सकते हैं.

यह बात दीगर है कि 2010 का विधानसभा चुनाव में निर्माण एजेण्डा रहा और अब 2015 में विकास एजेण्डा हो गया है. सभी दल और गठबंधन चुनाव को अपने-अपने तरीके से साधने में लगे हैं. 25 जुलाई से मुज़फ्फरपुर में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की जनसभा से भाजपा और गठबंधन को नई ऊर्जा का कितना संचार होगा यह तो बाद में देखा जाएगा, लेकिन यह सच है कि भाजपा के यादव प्रभारी भूपेन्द्र यादव और अमित शाह बिहार में जातीय समीकरणों को भुना पाते हैं या फिर एक बार नीतिश कुमार का नारा सच साबित होगा.

(लेखक सामाजिक बहिष्करण एवं समावेशी नीति अध्ययन केन्द्र, बी.एच.यू. के छात्र और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली के  जूनियर रिसर्च फेलो हैं.)

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