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‘औलाद बदल जाती है… मां बाप से नहीं बदला जाता’

औलाद की परवरिश में जान लगा देने वाले मां-बाप को बच्चे उनके हाल पर छोड़ दें तो भी उनकी जुबां पर उफ़्फ़ नहीं होता. ऐसे ही एक बूढ़े बाप का अनकहा दर्द…

Farha Fatima for BeyondHeadlines

पिछले 4-5 सालों से हर सुबह कॉलेज जाते समय (अब ऑफिस) जब भी सड़क पार करने के लिए फुट ओवरब्रिज से गुजरती हूं, तो एक शख्स पर मेरी नज़र खुद बखुद मुड़ जाती है. इन्हें देखते ही मेरे चेहरे पर ममता और सम्मान भरी मुस्कान आ जाती है. साथ ही ज़ेहन में कई सवाल भी…

फिर उन सवालों को झटक कर आगे बढ़ जाती हूं कि चलो! अच्छा है, इस उम्र में भी मेहनत से कमा तो रहे हैं. किसी के सामने हाथ तो नहीं फैला रहे. क्योंकि उनके दूसरी तरफ़ उन्हीं के बराबर में बैठे अच्छे-खासे जवान भी भीख मांग रहे होते हैं. बल्कि आजकल तो भिखारियों की टोली में एक नई औरत अपने दो बच्चों के साथ शामिल हो गई है. उसकी उम्र मुश्किल से 30 साल भी नहीं है. शुरूआत में यह अपने तीन व दस साल के दो बच्चों  के साथ एक ही जगह भीख मांग रही थी. अब मां बेटी अलग- अलग भीख मांग रही हैं.

ख़ैर, उनकी उम्र तकरीबन 85 साल है. वो वज़न तौलने का काम करते हैं. उनके हाथों में अक्सर उर्दू का अख़बार होता है. बगैर छुट्टी के हर मौसम में एकदम उजले कपड़े पहने अपने काम पर पाबंदी से आते हैं.

मैंने हमेशा सोचती रहती थी कि किसी दिन उनसे अपने सारे सवालों को पूछ कर खुद के मन को शांत कर लूंगी. लेकिन पिछले 4-5 सालों तक बस सोचती ही रही, लेकिन आज तय कर लिया कि आज तो बात करके ही रहूंगी…

सारे झिझक को झटक बस उनके पास पहुंच गई. और बोला -अंकल आपसे बात करनी है. हां बेटा! ज़रूर करो…

बस फिर क्या था… मैंने सवालों की झरी लगा दी.

लेकिन वो मेरे सवालों से घबराए नहीं… बल्कि एक-एक करके मेरे सवालों का जवाब देते रहें. उन जवाबों से उनके लिए मेरे दिल में सम्मान और बढ़ गया. उन्होंने अपना नाम मोहम्मद शफ़ी बताया.

आप दिल्ली में कब आए? पूछने पर वो बताते हैं कि 1951 में जिला बुलंदशहर (गांव अहमद नगर) से दिल्ली आए थे. दिल्ली आकर शुरूआती दिनों में जामा मस्जिद के नज़दीक कटरा मुहल्ला में रिक्शा चलाया.

उसके बाद नेता अब्दुल गनीदार के यहां 40 साल कार ड्राइवर की नौकरी की. गनीदार साहब कांग्रेस पार्टी से थे. उन्होंने दो बार इलेक्शन भी लड़ा. बाद में वह विपक्ष पार्टी अकाली दल के मेम्बर बने और वहां से भी दो बार इलेक्शन में खड़े हुए.

मोहम्मद शफ़ी ने इसी ड्राइवर की नौकरी के दौरान शादी की. शुरूआत में उनकी सैलरी 100 रूपए महीना थी. 1998 में उनके मालिक गनीदार साहब अपने परिवार के साथ अमेरिका चले गए. जब नौकरी छूटी तो सैलरी 135 रुपए महीना थी.

आप अक्सर अख़बार पढ़ते रहते हैं? कौन सा अख़बार पढ़ते हैं? मेरे इस सवाल पर हंसते हुए बोलते हैं –‘इंकलाब… उर्दू अख़बार… अनपढ़ नहीं हूं भई मैं! पढ़ा लिखा हूं…’

कहां तक पढ़ाई की है आपने? थोड़ा रूकते हैं फिर बोलते हैं -स्कूल नहीं गया. मदरसे से शुरूआती उर्दू तालीम ली. फिर आगे खुद से कहने लगे कि हां! नौकरी छूटने के बाद हमने 10 सालों तक ऑटो चलाया. उस वक्त एक दिन में 10 से 15 रुपए कमाया करते थे. तब ऑटो की कीमत 12000 थी.

अपनी तमाम जिंदगी की हुई मेहनत को उन्होंने बहुत गर्व से बताया. एक-एक साल की मेहनत हिसाब उन्हें आज भी बहुत अच्छी तरह से याद है. जैसे हम अपने सीवी में सबकुछ लिख डालते हैं बिल्कुल वैसे. यह उनका मुंह ज़बानी बायोडाटा था…

आपके परिवार में कौन-कौन है? ‘5 बेटियां!’ इस जवाब से मुझे लगा कि बेटियां शादी करके चली गई होंगी, इसीलिए काम करते हैं. लेकिन फिर भी मैंने पूछा -बेटे नहीं है? नहीं… नहीं… 5 बेटियां 2 बेटे हैं. सभी की शादी हो गई. हालांकि बेटों का जिक्र करने से वो थोड़ा झिझक रहे थे. इसीलिए औलाद के जिक्र में पहले बेटीयां ही गिनवाईं.

बेटों से कोई सहारा नहीं मिलता? मेरे इस सवाल पर बहुत गुस्से में बोले अगर वो देते, मैं यह क्यों करता? गुस्सा कुछ ऐसा था कि मानो मैंने उनकी सबसे बड़ी तकलीफ पर तंज कस दिया हो.

इस कमाई के अलावा कोई मदद? एक-एक हज़ार रुपए महीना वृद्धावस्था पेंशन मिलती है. मुझे और मेरी बीवी को.

आप रहते कहां हैं? ‘मेरा अपना घर है भई… पहले ही बताया न आपको…’

बेटे कहां रहते हैं? बेटे भी उसी घर में रहते हैं. अपना खाते-कमाते हैं. एक बेटा ऑटो चलाता है. दूसरा बेटा कपड़ा बेचने का काम करता है.

औलाद होने के नाते जब मैंने यह सुना तो बहुत दुख हुआ. मन ही मन सोच रही थी कि कैसे बेटे हैं. अगर दोनो 50-50 रुपए भी देंगे तो भी वृद्धावस्था पेंशन के साथ इनका खर्च चल ही जाएगा. बेटों का यह रवैया एक ऐसे पिता के लिए है, जिसने तमाम जिंदगी मेहनत से कमाकर इनकी परवरिश की.

ख़ैर, आज भी इस 85 साल के बूढ़े लेकिन मजबूत कांधों में बहुत ताक़त है. वह किसी की मदद के इंतज़ार में नहीं रहते. उनके मुताबिक वो पिछले 7 सालों से फुट ओवर ब्रिज में बैठे वज़न तोलने का काम करते हैं. आज उनकी एक दिन की कमाई 70 से 100 रुपए के बीच में होती है.

इस तरह से उनसे काफी देर बात हुई… वो मेरे कुछ अच्छे और कुछ बेतुके सवालों का जवाब देते रहे… फिर इसी बीच बात करते हुए उन्होंने मुझसे कहा –आप बात करके अपनी फॉर्मेलिटी पूरी कर लो. क्योंकि इस सबसे होना तो कुछ है नहीं. कुछ नहीं देती मीडिया… ये सब बताकर हमें कहां नौकरी मिलेगी? कुछ होगा?

इस बात में आम आदमी के अंदर मीडिया से उम्मीद और उसके लिए गुस्सा साफ़ झलक रहा था. उन्होंने आगे कहा कि हम नहीं चाहते हैं कि हमारा यह मज़मून (लेख/कहानी) कहीं छपे. इससे कुछ बेहतर नहीं होगा. उल्टे हमारे बेटों को दुनिया और परेशान करेगी. वो हमें कुछ नहीं देते हैं तो ना दें. बस खुश रहें, हमें किसी से कोई शिकायत नहीं है.

यह हारा हुआ बूढ़ा बाप है, जिसे अब भी बेटों की इज्ज़त की फिक्र है. बेटों को किसी भी तरह की परेशानी हो, ये उन्हें गवारा नहीं. इनकी बातों से बचपन में सुना जुमला याद आ गया ‘औलाद बदल जाती है… मां बाप से नहीं बदला जाता’

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