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अवैध पत्थर क्रशिंग, कटिंग, पोकलैण्ड मशीनों व विस्फोटों को रोकने हेतु एक आंदोलन

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 8, 2015 1 View
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8 Min Read
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By Sandeep Pandey

उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से कोई 40 कि.मी. दूर अहरौरा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर अवैध पत्थर क्रशिंग, कटिंग व पोकलैण्ड मशीनें खुलेआम काम कर रही हैं. पत्थर को तोड़ने में आसानी हो, इस उद्देश्य से रोजाना पहाड़ों में विस्फोट, जो अवैध है, भी किया जाता है.

क्षेत्र के दो नागरिकों सुरेन्द्र सिंह व पारसनाथ यादव ने स्वतंत्र रूप से जिलाधिकारी, मिर्जापुर से सूचना के अधिकार के तहत पूछा कि क्या इन पत्थर क्रशिंग, कटिंग व पोकलैण्ड मशीनों व विस्फोट को कहीं से अनुमति प्राप्त है? उन्होंने इन गतिविधियों के संचालन हेतु उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड द्वारा तय की गई नियमावली भी मांगी.

15 दिसम्बर, 2014 के एक जवाब में 64 ऐसी क्रशिंग एवं कटिंग इकाइयों की सूची दी गई है, जिन्हें अधिकारियों ने ज़ब्त किया है. 17 ऐसी क्रशिंग एवं कटिंग संयंत्र इकाइयों की सूची दी गई है, जो नियमानुसार चल रही हैं. जिले में कुल 108 क्रशिंग एवं कटिंग इकाइयां स्थापित की गई हैं.

4 मार्च, 2015 के एक जवाब में बताया गया है कि विस्फोट हेतु किसी को भी अनापत्ति प्रमाण पत्र नहीं दिया गया है. जिन दो लोगों, बृकेश्वर प्रताप सिंह व सौमित्र मौर्य को विस्फोट करने हेतु अनुज्ञप्तियां प्राप्त थीं, वे क्रमशः 24 जून 2012 व 11 फरवरी, 2014 को समाप्त हो गईं.

19 जून, 2015 को प्राप्त एक जवाब में बताया गया कि क्रशिंग व पोकलैण्ड मशीनों को कोई अनुमति प्राप्त नहीं है. इन सभी जवाबों से पता लगता है कि ज्यादातर पत्थर क्रशिंग व कटिंग मशीनें तथा सभी पोकलैण्ड मशीनें व पहाड़ों में विस्फोट अवैध रूप से संचालित किए जा रहे हैं. यह आश्चर्य का विषय है कि इतने बड़े पैमाने पर ये अवैध गतिविधियां चल रही हैं और कोई इनके खिलाफ़ कार्यवाही करने को नहीं तैयार है.

उत्तर प्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों के हिसाब से कोई भी क्रशिंग मशीन मानव आबादी से एक कि.मी. से ज्यादा दूरी पर होनी चाहिए. दो क्रशिंग मशीनों के बीच कम से कम 400 मीटर की दूरी होनी चाहिए. बाउण्ड्री दीवार से मशीन 50 मीटर दूर होनी चाहिए. हाईवे से 500 मीटर व अन्य मार्गों से 300 मीटर से ज्यादा दूरी होनी चाहिए. राष्ट्रीय पार्कों, अभ्यारण्य व बगीचों से 3 कि.मी. दूर, नदी के बाढ़ प्रभावित क्षेत्र से 500 मीटर दूर, संयंत्र के अंदर की सभी सड़कें पक्की होनी चाहिएं. 33 प्रतिशत भूमि पर वृक्षारोपण होना चाहिए. ज़मीन पर पानी छिड़कने की व्यवस्था और संयंत्र के पास न्यूनतम 1 हेक्टेयर ज़मीन होनी चाहिए. मालिक को धूल व ध्वनि प्रदूषण से अपने स्तर से निपटना होगा. यदि क्षेत्र में लगी मशीनों को देखा जाए तो मालूम होगा कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के मानकों की कैसे धज्जियां उड़ाई जा रही हैं.

जिला स्तर के अधिकारियों से जवाब पाकर लोगों में काफी जोश आ गया और 26 जुलाई, 2015 को अहरौरा क्षेत्र के धुरिया, मदाचक, जिगना, हुसैनपुर, बगहिया, डकही, आनंदीपुर, पैगम्बरपुर, कंचनपुर, बाराडीह व बिंदपुरवा गांव के हजारों लोगों ने सड़क पर निकल कर अवैध गतिविधियों को संयंत्र स्थलों पर जाकर शांतिपूर्ण तरीके से रूकवा दिया. मालिक संयंत्र छोड़कर चले गए.

लेकिन 27 जुलाई, 2015 को एक क्रशिंग संयंत्र के मालिक अमरनाथ सिंह ने पारसनाथ यादव व दस अन्य लोगों के खिलाफ़ नामजद तथा सैकड़ों अज्ञात लोगों के खिलाफ़ भारतीय दण्ड संहिता की धाराओं 147, 323, 504, 506, 427, 336 व 7 आपराधिक कानून (संशोधन) अधिनियम 1932 के तहत अहरौरा थाने में प्राथमिकी दर्ज करा दी। यह मालिकों की ओर से जवाबी कार्यवाही थी.

इस प्राथमिकी ने लोगों की गोलबंदी में और मदद की. 12 अगस्त, 2015 को ट्रैक्टर ट्रालियों में भरकर सैकड़ों लोग चुनार तहसील पहुंचे व उप-जिलाधिकारी से प्राथमिकी वापस लेने की मांग की. उन्होंने पत्थर दोहन सम्बंधित अवैध गतिविधियों पर स्थाई रूप से प्रतिबंध लगाने की मांग की जो उनके पर्यावरण, रोज़गार, स्वास्थ्य, गर्भवती महिलाओं व अन्य पशु मादाओं, वृक्ष, फसल, मृदा, बच्चों की शिक्षा, घरों के ढांचों एवं सम्पूर्ण जीवन के लिए खतरा हैं.

स्वास्थ्य से सम्बंधित खतरों में टी.बी., सांस की बिमारी, हृदय एवं मानसिक रोग प्रमुख हैं. फ़सलों व फलदार वृक्षों का उत्पादन प्रभावित हुआ है. गतिविधियों के अवैध स्वरूप के कारण सरकार को भी राजस्व की भारी हानि हो रही है. धुरिया, जिगना, कंचनपुर, मदापुर डकही व बाराडीह के ग्राम प्रधानों ने भी लोगों की कार्यवाही का समर्थन किया है. बिना ग्राम पंचायतों की अनुमति के ये पत्थर के दोहन की गतिविधियों असंवैधानिक हैं क्योंकि ये 73वें संशोधन की भावना के विपरीत हैं.

प्राथमिकी लोगों के उत्साह पर अंकुश लगाने के लिए थी. धीरे-धीरे जो संयंत्र बंद कराए गए थे वे एक-एक कर पुनः शुरू हो गए हैं. जाहिर है कि प्रशासन संयंत्र मालिकों की अवैध गतिविधियों के खिलाफ कोई कार्यवाही नहीं करना चाह रहा है.

एक दुष्प्रचार किया जा रहा है कि इन संयंत्रों के बंद होने से बेरोजगारी बढ़ जाएगी. हकीक़त यह है कि मशीनों के आ जाने से क्षेत्र में करीब डेढ़ लाख मज़दूर बेरोज़गार हो गए हैं. मज़दूरों का कहना है कि स्थानीय लोगों की सहकारी समितियां बनाकर उनको ठेके देकर पहले की तरह हाथ से पत्थर तोड़ने का काम कराया जाए.

इस आंदोलन से एक सवाल खड़ा हो गया है कि किस किस्म की प्रौद्योगिकी वांछनीय है? तेज़ गति से बड़े पैमाने पर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन ही विकास का पर्याय मान लिया गया है. किंतु इससे इंसान समेत पर्यावरण का बड़ा नुक़सान हो रहा है. हम कितना समझौता करने को तैयार हैं? हमारे लिए क्या ज्यादा जरूरी है?

पश्चिम के विकास का मॉडल जिसमें बड़ी आबादी की कीमत पर कुछ सम्पन्न लोगों को उच्च स्तरीय सुविधाएं मिल जाती हैं अथवा अपनी ज़रूरत को ध्यान में रखकर, समावेशी, सभी को रोज़गार प्रदान करने वाला व पर्यावरण को कम से कम नुक़सान पहुंचाने वाला विकास? पहले तरीके को चुनने का आधार लालच होता है तो दूसरे का विवेक… महात्मा गांधी ने इस बहस को अपनी पुस्तक हिंद स्वराज में अच्छी तरह से प्रस्तुत किया है.

महात्मा गांधी ने मशीनीकरण की उस हद का विरोध किया, जहां वह लोगों के रोज़गार के लिए खतरा बन जाता है. उनके बारे में एक दुष्प्रचार किया गया कि वे सभी मशीनों के खिलाफ़ थे. वे नियमित चरखा चलाते थे. चरखा एक यांत्रिक उपकरण है. चरखे की मदद से रुई से धागा निकालने की प्रक्रिया मनुष्य के कुछ मौलिक आविष्कारों में से रही होगी जिसने मनुष्य के तन को कपड़े से ढका. गांधी उन मशीनों के पक्षधर थे तो मनुष्य को रोज़गार उपलब्ध कराती हैं या कम से कम मनुष्य का रोज़गार छीनती नहीं.

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