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Reading: आरटीआई ने खोली मोदी के हिन्दी-प्रेम की पोल
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BeyondHeadlines > Edit/Op-Ed > आरटीआई ने खोली मोदी के हिन्दी-प्रेम की पोल
Edit/Op-Edबियॉंडहेडलाइन्स हिन्दी

आरटीआई ने खोली मोदी के हिन्दी-प्रेम की पोल

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published September 12, 2015
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8 Min Read
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By Sandeep Pandey

14 सितम्बर हिन्दी दिवस होता है, क्योंकि इसी दिन 1949 में संविधान सभा ने देवनागरी लिपि के साथ हिन्दी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया. अब भारत में 22 आधिकारिक भाषाएं हैं. इसके पहले भोपाल में 10वां विश्व हिन्दी सम्मेलन आयोजित हुआ. प्रधानमंत्री ने यहां तक कह डाला कि आने वाले दिनों में कम्प्यूटर की दुनिया में हिन्दी, अंग्रेजी व चीनी का ही वर्चस्व होगा. भारत में हरेक चौथे व्यक्ति की मातृभाषा हिन्दी है और बोल सकने वालों की संख्या तो इससे भी ज्यादा है.

किंतु हिन्दी का महिमामण्डन करने वाले सिर्फ दिखावा कर रहे हैं, क्योंकि भारत में हिन्दी को अंग्रेजी के बाद दोयम दर्जे का स्थान दिया गया है. इस बात पर कोई चर्चा नहीं करना चाहता. भारत में सिर्फ हिन्द के ज्ञान से कोई आई.ए.एस., आई.पी.एस., न्यायाधीश, या राष्ट्रीय स्तर के संस्थानों से अभियंता, चिकित्सक या प्रबंधक नहीं बन सकता.

उत्तर प्रदेश के सुलतानपुर जिले के सूरापुर गांव के शिक्षक राकेश सिंह ने सूचना के अधिकार अधिनियम, 2005 के तहत प्रधानमंत्री कार्यालय से पूछ डाला कि देश के ग़रीब, किसान, मज़दूर का बेटा या बेटी, जिसे सब कुछ तो आता है किंतु अंग्रेजी नहीं आती, क्या संविधान स्वीकृत राजभाषा अथवा अपनी मातृभाषा के जरिए सर्वोच्च न्यायालय में वकील तथा न्यायाधीश, संघ लोक सेवा आयोग द्वारा प्रशासनिक व पुलिस इत्यादि सेवाओं के लिए आयोजित परीक्षा में सफल होकर आई.ए.एस., आई.पी.एस., आई.एफ.एस. इत्यादि अधिकारी बन सकता है, और भारत सरकार के मेडिकल, इंजीनियरिंग, व प्रबंधन संस्थाओं में चयनित हो सकता है?

इस आवेदन के जवाब से ही हिन्दी के प्रति उदासीनता की स्थिति स्पष्ट हो जाती है. प्रधान मंत्री कार्यालय से जवाब आया कि पत्र को कार्यालय की संचिका में दर्ज कर लिया गया है, क्योंकि प्रधानमंत्री कार्यालय में प्राप्त पत्रों के निस्तारण हेतु प्रचलित दिशा-निर्देशों के अनुसार उस पर कोई कार्यवाही अपेक्षित नहीं है.

जब राकेश सिंह ने दूसरा आवेदन भेज कर सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत उन प्रचलित दिशा निर्देशों की छाया-प्रतियां मांगी जिसके अंतर्गत उनका प्रत्यावेदन प्रधान मंत्री के समक्ष न प्रस्तुत कर कार्यालय की संचिका में दर्ज कर लिया गया है, तो प्रधान मंत्री कार्यालय हरकत में आया. जहां पहले बताया जा रहा था कि कोई कार्यवाही अपेक्षित नहीं है. वहीं सूचना उपलब्ध कराने हेतु पत्र की प्रति पांच विभागों – न्याय विभाग, विधि एवं न्याय मंत्रालय, उच्च शिक्षा विभाग, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, गृह मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय व कार्मिक, लोक शिकायत एवं पेंशन मंत्रालय – को भेज दी गई.

कानून एवं न्याय मंत्रालय ने संविधान के अनुच्छेद 348 (1) का हवाला देते हुए सूचित किया कि सर्वोच्च न्यायालय और देश के सभी उच्च न्यायालयों के कामकाज की भाषा अंग्रेजी होगी. किंतु राष्ट्रपति की अनुमति से राज्य का राज्यपाल न्यायालय में हिन्दी या अन्य किसी राजभाषा के इस्तेमाल को अधिकृत कर सकता है.

अभी तक बिहार, मध्य प्रदेश, रास्थान व उत्तर प्रदेश के न्यायालयों में हिन्दी के इस्तेमाल की अनुमति मिली है. यह जवाब अंग्रेजी में था. इस मंत्रालय ने हां या न में जवाब देने से मना कर दिया. बार काउंसिल ने तो, यह कहते हुए कि सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत कोई राय नहीं मांगी जा सकती, जवाब देने से ही मना कर दिया.

कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रालय ने अंगेज़ी में जवाब देते हुए बताया कि सिविल सर्विसेज की मुख्य परीक्षा में एक और भाषा के साथ अंग्रेजी भाषा की परीक्षा उत्तीर्ण करना अनिवार्य है.

मेडिकल काउंसिल ऑफ इण्डिया ने बताया कि अभी स्थिति इतनी परिपक्व नहीं हिन्दी को चिकित्सा शिक्षा का माध्यम बनाया जाए.

मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने अपने जवाब में यह बताया कि उनके पास सूचना उपलब्ध नहीं है.

अतः देश में शासन-प्रशासन, न्यायालय व पेशेवर सेवाओं में ऊंचे पदों पर अंग्रेज़ी का ज्ञान रखने वाले ही बैठ सकते हैं. हिन्दी या स्थानीय भाषा में अपनी पढ़ाई पूरी करने वाले निचले पदों पर ही अपनी सेवाएं दे सकते हैं. यह कितने शर्म की बात है. अंग्रेजों के समय की गुलामी की व्यवस्था कायम है. अंग्रेजी जानने वाले स्थानीय भाषा बोलने वालों पर राज कर रहे हैं. अब शासक वर्ग की चमड़ी का रंग बदल गया है. वह देखने में अपने देश-वासियों जैसा दिखता है किंतु सोच में अभी भी अंग्रेज़ ही है.

संविधान में तो कल्पना की गई थी कि आजादी के 15 वर्षों के अंदर हम अंग्रेजी से छुटकारा पा जाएंगे. किंतु स्थिति उल्टी हो गई. हमारी अंग्रेजी पर निर्भरता बढ़ती गई.

शिक्षाविदों का मानना है कि बच्चों की शिक्षा उनकी मातृभाषा में ही होनी चाहिए. लेकिन धीरे-धीरे करके शासक वर्ग ने अपने बच्चों के लिए निजी विद्यालयों की व्यवस्था को मज़बूत किया, जहां पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी होता है, जिससे वे ऊंचे पदों वाली नौकरियों व विदेश में उच्च शिक्षा के लिए दावेदार बन सकें.

सरकारी विद्यालयों में हिन्दी में ही पढ़ाई होती रही. किंतु जब लोगों को समझ में आया कि बिना अंग्रेजी के ज्ञान के ऊपर के पद हासिल ही नहीं किए जा सकते, जो सरकारी विद्यालयों में भी अंग्रेजी पढ़ाने की मांग जोर पकड़ी. और अब तो सरकार अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाने का भी प्रयोग कर रही है.

हमारी गुलाम मानसिकता ने हमको अंग्रेजी के चंगुल से मुक्त नहीं होने दिया. दुनिया के ज्यादातर देश अपनी स्थानीय भाषा में ही शिक्षा देते हैं. जो लोग यह मानते हैं कि खासकर तकनीकी विषय जैसे अभियांत्रिकी या चिकित्सा की पढ़ाई हिन्दी या अन्य किसी भारतीय भाषा में नहीं हो सकती है, उन्हें सोचना चाहिए कि रूस, चीन या जापान कैसे उच्च शिक्षा अपनी भाषाओं में ही देते हैं और किसी भी मायने में अमरीका, इंग्लैण्ड या यूरोप के किसी देश से कम नहीं हैं, बल्कि कुछ मामलों में उनसे आगे ही हैं.

यदि कोई वाक़ई में हिन्दी प्रेम प्रदर्शित करना चाहता है तो देश में शिक्षा का माध्यम हिन्दी व अन्य स्थानीय भाषाओं को बनाने की बात करनी चाहिए. हिन्दी का इस्तेमाल सिर्फ चुनाव जीतने के लिए नहीं होना चाहिए.

(Sandeep Pandey is an Indian social activist. He co-founded Asha for Education with Dr. Deepak Gupta and V.J.P Srivastava while working on his PhD in Mechanical engineering at the University of California, Berkeley. He was awarded the Ramon Magsaysay Award in 2002 for the emergent leadership category.)

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