कर्तव्य पूरा करना ही अधिकार है…

Beyond Headlines
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Nikhat Perween for BeyondHeadlines

पार्क मे बैठे कुछ लोग, पेड़ पौधे, सीटें जो कुछ गंदी थी कुछ साफ़ भी, कई तरह के झुले…  इन सबको छोड़कर मेरी नज़र उस बच्चे पर जा टिकी, जो बड़ी दिलचस्पी के साथ पार्क में बने स्लाईडिंग करने वाले झुले पर पड़ी धुल को बिना किसी झिझक के अपने छोटे छोटे हाथो से हटा रहा था. वो इस काम मे इतना खोया हुआ था कि उसे पता भी नहीं चला कि मैं खुद उसे कितनी सहजता से देख रही थी और उसकी तस्वीर भी ले रही थी. मेरे कैमरे के चमकती फलैश भी उसका ध्यान खींचने में नाकाम रही.

कितनी लगन, कितनी शालीनता, कितनी गहराई थी उसके इस काम में… जैसे किसी बड़े और अहम काम की बुनियाद रख रहा हो. लेकिन क्यों? पार्क के एक कोने मे लगा हुआ ये झुला उसका अपना तो नहीं था. वो तो सिर्फ पार्क में लगे और झुलों-बेन्च की तरह पार्क का एक हिस्सा था.

शायद इसलिए कि वो उसे बहुत पंसद करता होगा. उस पर वो अक्सर ही अपनी फिकी ज़िन्दगी के कुछ खट्टे-मिट्ठे पल गुज़ारता होगा और उसके दोस्त भी इस झुले पर उसके साथ खेलते होगें. इसलिए वो उस झुले से इतना जुड़ा हुआ दिखा, ठीक वैसे ही जैसे हम बचपन में किसी गुड़िया या तरह तरह की आवाजें निकालने वाले बंदुक, चाभी देकर ज़मीन पर रखा तो फुरफुर करके भागने वाली किसी हेलिकाप्टर से जुड़ जाते थे. वो गंदी हो जाए तो अपने दुपट्टे, फ्राक या शर्ट की निचली स्तह से साफ़ भी कर लेते थें.

इतना लगाव था उन खिलौने से कि कोई मज़ाक में भी मांग ले, तो हाथ में कसकर पकड़ी गई ढेरों टॉफियां भी पलभर में ज़मीन पर बिख़र जाया करती थी. भोली-भाली सूरत ऐसी बन जाती थी कि मानो किसी ने जान ही मांग ली हो, जिसे दे देना कभी आसान नहीं होता.

हां! खिलौना कभी दिया भी तो कब? जब कभी मां ने, भय्या ने  या दीदी ने एक खिलौने के बदले कहीं घुमाने या उससे भी अच्छे खिलौने लाकर देने का पक्का वादा हाथों में हाथ देकर किया था. उस स्थिति में भी दिल पर पत्थर रखकर किसी को देना गवारा होता था वो खिलौना…

इतना प्यार था उन बेजान चीजों से, जिनमें हमारी जान बसती थी. शायद उसी तरह इसे भी प्यार है, इस झुले से और क्यों न हो? इसके पास इस झुले के सिवा और कोई खिलौना है भी तो नहीं. और कैसे हो सकता है वो खिलौने जो हर बच्चे को पंसद आता है, अक्सर इतना मंहगा होता है कि वो उसे चाह कर भी खरीद नहीं सकता. और अब इस झुले के सिवा उसका और उसके दोस्तों का और कोई खिलौना नहीं. तभी तो उस मासुम से ये देखा नहीं गया कि जिस झुले पर खेलते-खेलते उसके मैले कपड़े और मैले हो जाते हैं. वो झुला भला थोड़ी देर के लिए भी क्यों मैला रहे.

बस फिर क्या था. बिना किसी की परवाह किए अपने कोमल हाथों से ही धीरे-धीरे करके पूरा झूला अपने हाथों से साफ़ कर दिया. वो भी इतने प्यार से कि जैसे कोई मां अपने नवजात शिशु की कोमलता का ध्यान रखते हुए उसे नहलाती है. ठीक वैसे ही उसने झूले पर पड़ी धुल को तब तक साफ़ किया जब तक वो पुरी तरह साफ़ न हो गई.

अब उसके चेहरे पर जो खुशी की चमक थी, वो बिल्कुल वैसी ही जैसी आजकल जनाब लालू और नीतीश कुमार के चेहरे पर रहती है.

झूले को साफ़ करने के बाद वो इत्मिनान और सुकून के साथ चल पड़ा. शायद अपने घर जा रहा था. बस एक बार झूले को मुड़कर देखा, मानो अपने ही द्वारा की गई सफाई का आंकलन कर रहा हो. खुद से ही पुछ रहा हो कि मैंने अपना काम ठीक ढंग से किया या अभी और मेहनत करने की ज़रुरत है.

उसके हाव-भाव देख समझ नहीं आ रहा था कि कहां से आई उसमें ये समझदारी? काम के प्रति ये सर्मपण? कुछ देर सोचने के बाद अहसास हआ कि यक़ीनन उसकी गरीबी कम उम्र में आने वाली ज़िम्मेदारियों के बोझ ने उसे इतना जिम्मेदार, इतना समझदार बनाया है, जिसके कारण उसने उस झूले को निस्वार्थ होकर बड़े प्यार से साफ़ किया, वो भी वो झूला जो न आज उसका है न कभी होगा.

फिर भी क्यों? क्योंकि वो उसे अपना समझता है. इस बात को जानता है कि जिस झूले पर वो हर दिन अपने दोस्तों के साथ कुछ मुस्कुराहटें, कुछ खिलखिलाहटें बटोरता है. उस झूले के प्रति उसका भी कुछ कर्तव्य है. कितना बड़ा संदेश दे गया वो जिसे हम अक्सर समझ नही पाते या समझना नहीं चाहते. शायद इसलिए हमेशा अधिकार की लड़ाई में उलझे रहते हैं, जबकि देश और समाज के प्रति अपना कर्तव्य पूरा करना ही हमारा पहला अधिकार है…

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