2013 में जब सरबजीत और उनके अपनों को लड़ाई लड़ते-लड़ते 23 साल बीत गए थे. तब बस मुझे इतना पता था कि भारत-पाक सरहद से सटे पंजाब के गांव भिखिविंड के सरबजीत सिंह पाकिस्तान की जेल में बंद थे. उनकी बड़ी बहन दलबीर कौर ने उन्हें छुड़ाने के लिए जी-जान से लड़ाई लड़ी. सरबजीत जेल से रिहा होने ही वाले थे कि ख़बर आई जेल में कुछ कै़दियों ने उन्हें मार डाला और फिर पाकिस्तान से उनकी लाश यहां आई थी.
अब उसी सरबजीत के अपनों की लड़ाई और उनके साथ हुई ज़्यादती की दास्तां बयां करती फ़िल्म ‘सरबजीत’ देखी. मैं फ़िल्म के डायरेक्शन, लेखन या एक्टिंग का ज़िक्र करके आपके लिए लिखे ख़त के साथ बेईमानी नहीं करुंगी. फ़िल्म की कहानी सच थी (डायलॉग कहीं-कहीं फ़िल्मी लगे) ये बात मायने रखती है.
सरबजीत के परिवार और अवैस शेख़ जी… फिल्म के सहारे आप सभी के संघर्ष को देखा. मैंने देखा, सरबजीत की घुटन उनका दर्द और तड़प, बहन दलबीर कौर की मां-जाये के लिए लड़ाई, उनकी पत्नी सुखप्रीत कौर का तक़लीफ़ में भी होंठों के सिए इतनी ख़ामोशी से इंतज़ार… बेटियों की बाप के लिए तड़प… बूढ़े बाप की बेटे को वापस लाने की आस, उसी आस में बेटी को शहर भेजने का फैसला लेने का बूढ़े बाप का दिलेर कलेजा… इसके अलावा इंसानी शक़्ल में अवैस शेख़ जैसा फ़रिश्ता और मंजीत सिंह (फिल्म में रंजीत सिंह) जैसा हैवान भी देखा.
मैंने ये सब सिर्फ देखा. अगर मैं कहूं कि मैंने ये सब महसूस नहीं किया तो बेईमानी होगी. महज़ सवा दो घंटे में एसी वाले कमरे में बड़े पर्दे पर फ़िल्म देखकर मैं 23 सालों में आपके हर पल में किए संघर्ष को महसूस कैसे कर सकती हूं. इसलिए पूरे यक़ीन के साथ कह रही हूं जो आपने सहा मैंने उस दर्द के हिस्से का एक क़तरा भी महसूस नहीं किया.
दलबीर जी, पता नहीं लड़कियों को मां-जाये से इतना दुलार क्यों होता है. आप, अपना पति, घर और अपनी दुनिया एक झटके में भाई के लिए छोड़कर चली आईं. ऐसा फैसला लेने का कलेजा कहां से लाईं आप?
मैंने बचपन से एक कहावत सुनी है ”ख़स्म करले, पूत जनले पर मय्या जना बीर ना मिलेगा” इस कहावत को ध्यान में रखकर मैं अंदाज़ा लगा रही हूं कि शायद भाई को ढूंढने के लिए अपना घर छोड़ने का फैसला लेते वक़्त आपने भी ऐसा ही कुछ सोचा होगा.
सुखप्रीत जी, आपकी तकलीफ़ और ख़ामोशी भरा इंतज़ार कलेजा चीर गया. एक औरत जिसका पति 23 सालों से दूसरे देश की जेल में ग़लत इल्ज़ाम में बंद था. वो ख़ामोशी से घर संभालते हुए, बच्चियों की परवरिश करती रही. दलबीर जी सब कुछ छोड़कर भाई के लिए लड़ीं. उनके बलिदान को सलाम, ये आसान नहीं था पर फिर भी उन्होंने किया. लेकिन आपकी लड़ाई की हदें ही अलग थीं. आप सरबजीत के आने की आस में हर पली मरी होंगी… आपके अरमान दिल ही दिल में करवटे लेते होंगे.
सरबजीत जी की दोनो बेटियों, आप दोनों ने बचपन से ही मां और बुआ का पल्लू पकड़े पापा की आज़ादी की लड़ाई लड़ी. जब आप दूसरे बच्चों को पिता के कांधे पर बैठा देखती होंगी तो आपके मासूम से दिल के कोने पिता की कोई याद भी नहीं होती होगी ना… आता होगा तो सिर्फ़ खुली आंखों में पिता का ख़्वाब और उनके आने की आस…
दलबीर और सुखप्रीत जी, जब सरबजीत की आठ महीनों तक कोई ख़ैर-ख़बर नहीं मिली थी. क्या गुज़री होगी आप सब पर… फिर जब एक दिन पाकिस्तान से बैरंग चिट्ठी आई होगी. उस चिट्ठी ने आपके मन में उन्हें वापस लाने एक आस जगाई होगी. अपने जिगर के टुकड़े सरबजीत का पहला ख़त आपने जब पढ़ा होगा क्या बीती होगी आप पर… मैं सोच नहीं पा रही हूं. सोचने भर से कलेजा मुंह को आ रहा है.
दलबीर जी, भाई की रिहाई के लिए अपने इलाक़े के विधायक से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री तक हर एक की चौखट पर गुहार लगाई, लेकिन कुछ नहीं हुआ. गांव भिखिविंड की रहने वाली दलबीर प्रधानमंत्री से मिलने दिल्ली जैसे शहर आई.
क़रीब आठ महीने के बाद आपको महज़ एक अपॉइंटमेंट मिला. ये लिख पाना कितना आसान है, पर उन आठ महीनों में हर दिन तीन दफ़ा आठ-आठ घंटे आप कैसे पिसी होंगी. इन आठ महीनों में आपके पिता और सुखप्रीत के इंतजार की हद क्या होगी… इसे मैं नहीं सोच पाई.
8 महिनों के बाद भी ‘देखते हैं’ जैसे दो अल्फ़ाज़ का दिलासा मिला था आपको. बेशक आप टूट गई होंगी, लेकिन हिम्मत नहीं हारी थी.
सरबजीत की पैदाइश के बाद उनके खाना खाने के लिए घर में चांदी के बर्तन बनवाए गए थे. (आप ही के एक इंटरव्यू से पता चला) बहन के दुलार में पला, कुश्ती का शौकीन पंजाब का ऐसा मस्तमौला लड़का, जो बहन से फैमिली फोटो खिंचवाते वक्त पत्नी को ‘मेरे सुख.. मेरे चैन’ कहकर चूम लेता था. वह पाकिस्तान की काल कोठरी में बगैर किसी ग़लती के बंद था और ऐसे हाल में था कि घर से आई चिट्ठी पढ़ने के लिए रौशनी पाने की जद्दोजहद में था.
रणदीप ने सरबजीत के किरदार को ऐसे पेश किया कि जब मन में आया रुला दिया. आप सभी का जेल जाकर सरबजीत से पहली दफ़ा मिलना. परिवार के आने की ख़ुशी में उनका अपनी काल कोठरी को रगड़-रगड़ कर धोना. परिवार के लिए फ़ूंक फ़ूंक कर चाय बनाना… आप सबसे मिलकर उनका मुंह फेर-फेर कर रोना. पिता का बेटियों को पहली दफ़ा देखना. जेल में वक़्त के पाबंद सिपाहियों ने नज़र भरके एक दूसरे को देखने भी ना दिया था… काल कोठरी में जवानी गंवा चुके पंजाब के सरबजीत का बेटी के ब्याह के लिए परांदा बना कर भेजना. क्या-क्या लिखूं… समझ नहीं पा रही हूं.
आखिर में भी उनके आने की आस बस आस ही बनी रह गई और घर आई तो उनकी लाश… जी भर के रो भी ना पाएं आप सब… अगस्त 1990 से मई 2013 के बीच की आप सभी की दास्तां ने झकझोर दिया है.
फ़िल्म ख़त्म होने पर मैं बेहद भारी मन से बाहर आई थी. मैं रोज़ाना 10 बजे तक सो जाती हूं. फ़िल्म देखकर सो नहीं पाई और रात के लगभग 1 बजे मैंने आपके लिए ये ख़त लिखा. मेरे मन से ये भारीपन शायद वक़्त के साथ कम होगा और फिर ख़त्म हो जाएगा. पर दलबीर, सुखप्रीत और उनकी दोनों बेटियों आपकी दास्तां ने ये सोचने पर मजबूर कर दिया है कि पिछले 23 सालों से लेकर आज तक आप कैसे सोते होंगे…
सरबजीत को नम आंखों से श्रद्धांजली… उनके परिवार और वकील अवैस शेख़ के सब्र और जज़्बे को लाखो सलाम!
(आप सब को मेरा सलाम)
फ़रहा फ़ातिमा