कहां से लाते हैं ये बुजुर्ग इतना सारा प्यार?

Beyond Headlines
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Nikhat Perween for BeyondHeadlines

दिल्ली मेट्रो में कभी-कभी इस क़दर भीड़ होती है कि पैर रखने की भी जगह नहीं मिलती है. आज भी कुछ ऐसा ही भीड़ था. जैसे-तैसे मैं एक बोगी में दाख़िल होने में कामयाब हो गई. किसी तरह से आगे बढ़ते हुए उस सीट के पास जा खड़ी हुई, जहां एक अंकल बैठे थे. उनकी उम्र क़रीब 60- 65 साल के बीच होगी.

देखा उनके दाहिने हाथ पर प्लास्टर लगा हुआ था. समझ गई कि किसी कारण अंकल का हाथ कुछ दिन पहले टूटा है. मुझे खड़ा देखकर अंकल ने किसी तरह मेरे बैठने की जगह बनाई और कहा बैठ जाओ बेटा…

ये शब्द ही ऐसा है, जिसे जितनी बार सुनती हुं, उतनी बार अहसास होता है बेशक बेटे को बेटी कहकर कभी पुकारा नहीं जाता, लेकिन हर बेटी एक बेटे के बराबर होती है. तभी तो खुश रहो बेटा… खा लो बेटा… मेरा बहादुर बेटा और जो अंकल ने कहा –बैठ जाओ बेटा… ये सब अक्सर हमें सुनने को मिलता है.

खैर अंकल के कहने पर मैंने जवाब दिया -नहीं अंकल! आप आराम से बैठ जाईए. मैं ठीक हूं. लेकिन उन्होंने ज़ोर देते हुए कहा -अरे नहीं! मेरे लिए इतनी जगह काफी है. तुम बैठ जाओ… और मैं बैठ गई. तभी मैंने देखा कि अंकल के हाथ में एक ट्रांसपैरेन्ट फाईल थी, जिसमें उनका प्रिसक्रिप्शन और कई छोटे-बड़े कागज़ात दिख रहे थे, जो साफ़ बता रहे थे कि अंकल डॉक्टर के पास जा रहे हैं या फिर डॉक्टर से मिलकर लौट रहे हैं.

इतने में अगला स्टेशन आ चुका था. अब यहां थोड़ी भीड़ हो गई थी. यहां कुछ गिने-चुने लोग ही चढ़ें, इनमें एक दूसरे अंकल भी थे. उन्होंने अपना दाया हाथ उपर की तरफ उठाया हुआ था और बाये हाथ में एक छोटा सा बैग ले रखा था. उनकी हालत बता रही थी कि उनके हाथ में कुछ न कुछ दिक्क़त ज़रूर है.

उन्हें देखते ही मैंने अपनी सीट छोड़ दी और उन्हें बैठने के लिए कहा. लेकिन उन्हें सीट पर बैठने में भी काफी परेशानी हो रही थी. तब वो अंकल जिनका हाथ टूटा हुआ था, उन्होंने अपने एक हाथ से उनका बैग पकड़ा. पास खड़े एक लड़के ने उनका हाथ थामा. तब जाकर वो बमुश्किल सीट पर बैठ पाए.

ये सब देखकर मैं सोचने पर मजबुर हो गई कि एक बूढ़ा इंसान जिसका खुद का एक हाथ टुटा हुआ है, वो फिर भी किसी की मदद को बढ़ता है. अपनी सीट के सामने खड़ी लड़की को बैठने की जगह देता है. बेशक ये हमारे बुजुर्ग ही कर सकते हैं. क्योंकि वो कभी नहीं चाहते कि उनकी वजह से कहीं किसी को तकलीफ़ हो. उनके बच्चों को किसी तरह की तकलीफ़ हो.

उनकी दरियादिली का आलम तो ये है कि वो अपना प्यार अपने और पराये के आधार पर नहीं बांटा करते, बल्कि उम्र में छोटा हर लड़का उनका बेटा, पोता और नाती है. और हर लड़की उनकी बेटी, पोती और नतनी जैसी है.

कहां से लाते हैं ये इतना सारा प्यार? और कैसा खजाना है इनके पास, जो कभी ख़त्म नहीं होता? लेकिन हमारे पास ये सब क्यों नहीं है? हम क्यों इतने स्वार्थी बने जा रहे कि दुसरो की तो बात ही छोड़िए, जन्म देने वालों की सेवा भी फ़ायदा औऱ नुकसान देखकर किया करते है? क्यों हम अपने बुजुर्गो का साथ उस वक़्त छोड़ देते हैं, जब उन्हें सबसे ज्यादा हमारे सहारे और प्यार की ज़रुरत होती है… क्यों…?

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