Nikhat Perween for BeyondHeadlines
उस दिन सुबह जैसे ही मेट्रो में क़दम रखा, एक आदमी के भारी-भरकम बैग से मुझे सिर पर जोरो की चोट लगी.
आप सोच रहे होगें क्यों? क्योंकि उस जनाब ने अपना बैग फ़र्श पर रखने के बजाए अपने सर पर उठा रखा था.
चोट लगते ही उसने सॉरी बोल दिया तो माफ़ करना ही था. और अगर सॉरी ना भी बोलता तो भी मैं क्या कर सकती थी. उससे झगड़ा तो करती नहीं.
हालांकि कुछ लोग ऐसा करते भी हैं ज़रा-ज़रा सी बात पर और ये ज़रा-ज़रा सी बात अक्सर भंयकर झगड़े का रुप ले लेती है.
जब आगे बढ़ी तो बैठने के लिए जगह तो नहीं मिली, लेकिन खड़े रहने के लिए मैंने जगह बना ली. इसी बीच सामने वाली सीट पर नज़र पड़ी और मैं चौंक गई.
दरअसल, जब सीनियर सिटीजन की सीट पर कोई नौजवान बैठा हो और वो भी तब जब सीट के ठीक सामने एक बुर्जुग अंकल खड़े होकर उस लड़के को घुर रहे हों, तो किसी का भी चौंक जाना तो लाज़िमी है. लेकिन बेचारे अंकल कुछ बोल नहीं पा रहे थे, उस लड़के को. बोलते भी कैसे. वो सोने में जो व्यस्त था. फिर भी कुछ देर बाद अंकल ने उसे उठाकर सीट छोड़ने के लिए कहा. मगर जनाब को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा.
ये सब देखकर मैंने सोचा लाओ एक कोशिश मैं ही कर लूँ. अच्छी बात ये रही कि मेरी कोशिशों में बाकी यात्रियों ने भी मेरा साथ दिया औऱ आखिरकार उस लड़के को अपनी सीट छोड़नी ही पड़ी. हालांकि कुछ देर बाद एक्सटेंशन पर अंकल उतर कर अपनी मंज़िल की तरफ़ चल पड़े. जबकि वो लड़का वहीं खड़ा था सर और नज़रें दोनों झुकाए हुए… शायद अपनी ग़लती पर शर्मिंदा था.
बहरहाल जब मेरा स्टेशन आया और मैं अपनी मंज़िल की तरफ़ जाने लगी तो मेट्रो की घटना बार-बार याद आ रही थी. उस दिन इस बात का अहसास हुआ कि बेशक बदलाव छोटा हो या बड़ा, बदलाव लाना तब और आसान हो जाता है जब आपके साथ कुछ अच्छे लोग जुड़ जाएं.
हाँ! तब भी कुछ मुश्किलें ज़रुर आ सकती हैं और आएंगी ही. लेकिन हमारा आपसी सहयोग उनसे लड़ने की हिम्मत भी दे देता है. इसलिए तो कहा जाता है यूनीटी इज स्ट्रेंथ यानी एकता में बल है…
