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Reading: डियर ‘आंटी नेशनल’ को एक पत्रकार का खुला पत्र
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डियर ‘आंटी नेशनल’ को एक पत्रकार का खुला पत्र

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 17, 2016
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3 Min Read
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परम् श्रद्धेय स्मृति ईरानी ‘जी’,

बचपन से डिबेटर रहा हूँ. इलाहाबाद विश्वविद्यालय से लेकर नेशनल लेवल तक एक उम्र डिबेट करते हुए बिता दी है. हमेशा से ही डिबेट की शुरुआत इन शब्दों में माँ सरस्वती को याद करके की है  -‘परम श्रद्धेय माँ शारदे.’

लीजिए सम्मान का वो चरम आपके नाम के पहले लगा देता हूँ. कहीं ये आरोप न लगने पाए कि आपकी शान में गुस्ताख़ी कर रहा हूँ. अब सीधे मुद्दे पर आता हूँ. न जाने कौन सी तक़लीफ़ हो गई कि ‘डियर’ का स्नेह भरा सम्बोधन भी आपको स्त्रीत्व की गरिमा से छेड़छाड़ करता हुआ लगा. आपने स्त्री मुक्ति के मुद्दे पर एक दनदनाता हुआ ब्लॉग दे मारा. अपनी मध्यमवर्गीय पृष्ठभूमि के दर्द के साथ…

मैं हैरान हूँ. आपने कभी मध्यमवर्गीय लड़कियां देखी भी हैं क्या? हाँ! वही लड़कियां जो रात के अंधेरों में जब घर की सारी लाइटें बन्द हो जाती हैं. टेबल लैंप की रौशनी में टिगनामेट्री के equation हल करती हुई नीली बत्ती वाली गाड़ियों के ख़्वाब देखती हैं. जो अपने दुपट्टे वाले पल्लू पर हमेशा अपने माँ-बाप की उम्मीदों का वज़न रखती हैं. जो शाम होते ही जल्दी घर लौटने की जद्दोजहद में बस की अगली सीटों पर झूल जाती हैं. जो बारात में भाइयों को झूमकर नाचता देख बस मनमसोस कर रह जाती हैं. जो हर तीज त्योहार अपने दो पाँवों में लाल रंग का आलता लगा परम्परा की क्यारियों में केसर के फूलों सी महक उठती हैं. कॉलेज जाते हुए जिनकी साँसे एक अजनबी डर से तेज़ हो जाती हैं. जिनका भरी भीड़ में खिलखिलाकर हँसना भी अजनबी घूरती नज़रों के नेज़े (भाले) पर होता है. हाँ, वही बेचारियां जो सीरियल की सुपरस्टार हिरोइनो में खुद का अक्स तलाशतीं हैं और एक रोज़ गुमनामियों के जंगलों में खो जाती हैं.

स्त्रीत्व इनके लिए अभिमान होता है, अहंकार नहीं. जिस दुनिया में चमक-दमक के परदों से निकले लोग अपनी ‘इमेज’ की खातिर ‘छुई-मुई’ में तब्दील हो जाते हैं. उसी दुनिया में ये छुई-मुई सी लड़कियां हालातों के काले तूफान के आगे एक रोज़ चट्टान बन जाती हैं.

परम श्रद्धेय स्मृति ईरानी जी, कभी स्त्री विमर्श पर बात करना हो तो इन लड़कियों के साथ दो रोज़ जीकर देखिएगा. ‘डियर’ को मुद्दा बना लेने और खुद को खुद ही ‘आंटी नेशनल’ लिख डालने से चर्चा तो ज़बरदस्त होती है पर स्त्री विमर्श नहीं होता!

सादर

Abhishek Upadhyay

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