India

तब्लीग़ी जमाअत : अमीर बनने के लिए हो रही है ‘गुंडागर्दी’

Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines

नई दिल्ली : हिन्दुस्तान की एक ऐसी जमाअत जो दुनिया की सबसे मुख़लिस जमाअतों में शुमार है, खुद अपने ही चिराग़ से जल रही है. यह ‘आग’ कोई बाहरी नहीं, बल्कि अंदर से लगाई गई है, जिसकी चिंगारी को सालों से हवा मिल रही थी, जो अब आग में तब्दील हो गयी है. और ये आग है जमाअत के अमीर की दावेदारी की.

ये आग यानी ‘तब्लीग़ी जमाअत’ के अमीर की लड़ाई इस क़दर बढ़ गई है कि इसे लेकर मुसलमानों में काफी बेचैनी पाई जा रही है, क्योंकि पहली बार दिल्ली के हज़रत निजामुद्दीन की गोद में बनी बंगले वाली मस्जिद के सेहन और दरो-दीवार खून के छींटों से लाल हैं.

दरअसल, तब्लीग़ी जमाअत के सबसे सीनियर रुक्न मौलाना ज़ुबैर कांधलवी का इंतक़ाल एक साल पहले हो गया, जिसके बाद इस जमाअत के अमीर के लिए दो सीनियर रुक्न गुत्थमगुत्था हुए पड़े हैं. लगातार अपनी-अपनी दावेदारी पेश कर रहे हैं. इन दोनों रुक्न में पहला नाम मौलाना साद का है, तो दूसरा मौलाना ज़ुबैर कांधलवी के बेटे मौलाना ज़ुहैर का है. इन दोनों के गुटों बीच पिछले एक साल से लगातार लड़ाई जारी है.

लेकिन आज से चार दिन पहले बंगले वाली मस्जिद से प्रसिद्ध तब्लीग़ी मर्कज़ में इन दोनों ‘बुज़ुर्गों’ में सत्ता की हनक इस क़दर चढ़ी कि मर्कज़ का पूरा मंज़र ही बदल गया. हाथापाई और मारपीट तक की नौबत आ गई. खून बहा, चोटें लगीं, जो शोर बरपा हुआ, वह अलग.

हद तो यह है कि जो मामला मर्कज़ के अंदर बैठकर सुलझा लेना चाहिए था, वह एम्स और पुलिस थानों तक पहुंच गया. मामला इतना अधिक गंभीर हो गया कि आठ थानों की पुलिस लगानी पड़ी. 15 से अधिक लोग इलाज के लिए एम्स में भर्ती हुए. शायद बंगले वाली मस्जिद की तारीख़ में यह पहला मौक़ा था कि मामले को सुलझाने के लिए खुद दिल्ली पुलिस के बड़े अधिकारियों को आना पड़ा. असिस्टेंट कमिश्नर ऑफ़ पुलिस अनिल यादव और एडिश्नल डीसीपी मंदीप यादव रांधवा को हालात पर नज़र रखना पड़ा.

कुल मिलाकर मज़हब के नाम पर काम करने वाली इस जमाअत में खुलेआम भाईचारे का खून हुआ. और सबसे शर्मिन्दगी की बात यह है कि ये सब कुछ रमज़ान के पाक व बरकत वाले महीने में इफ़्तार के दस्तरख्वान पर हुआ.

Nizamuddin
 

इस सिलसिले में BeyondHeadlines  ने निजामुद्दीन जाकर तहक़ीक़ात करने की कोशिश की, लेकिन यहां कोई कुछ बोलने को तैयार नहीं हुआ. बल्कि उल्टा मर्कज़ के बाहर फोटो लेने पर हमारे संवाददाता के साथ बदतमीज़ी की गई. वहां मौजूद पुलिस से शिकायत की गई.

खैर, इस मर्कज़ के दफ़्तर में सिर्फ़ दो महीने के लिए ज़िम्मेदार बने सुल्तान अहमद से बात करने पर वो बताते हैं, ‘लड़ाई हर दौर में रही है. क्या आपको नहीं पता कि हमारे तीन सहाबा को विवाद के चलते मार दिया गया.’ वो आगे क़ौम का वास्ता देते हुए बताते हैं, ‘आपके लिए बेहतर सुझाव है कि आप मामले में कोई रिपोर्ट न करें.’

वहीं यमुना पार रहने वाले मर्कज़ में दिल्ली कैम्प की ज़िम्मेदारी संभाल रहे राशिद हुसैन बातों-बातों में बताते हैं, ‘मर्कज़ ऐसी जगह है, जहां हर रोज़ लाखों-करोड़ों रूपये आते हैं. और इसका कोई हिसाब-किताब नहीं रखा जाता है. बस यही पैसा लड़ाई का अहम कारण है. बस इसीलिए बाहर के लोग भी मर्कज़ में दिलचस्पी लेने लगे हैं और चाहते हैं कि उनका अपना आदमी अमीर बन जाए, ताकि कुछ पैसे का फ़ायदा हो जाए.’

मर्क़ज़ के बाहर दुकानदार भी अब लड़ाई से परेशान हो चुके हैं. बावजूद इसके यहां कोई इस संबंध में कुछ बोलना नहीं चाहता. मर्कज़ के सामने पान की दुकान चलाने वाले नजमुद्दीन साहब चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘जहां दो मुर्गे रहेंगे, वहां लड़ाई तो होगा ही.’

फिर वे आगे हंसते हुए कहते हैं, ‘सारा मामला पेट का है. अब दिनभर रोज़ा रखने के बाद पेट में अनाज चला गया तो जोश तो आएगा ही.’ बातों-बातों में वो आगे बताते हैं, ‘यहां लड़ाई कोई नई बात नहीं है. ये सब यहां हमेशा चलता रहता है.’

सामने ही टोपी बेचने वाले एक नौजवान से पूछने पर कि परसों यहां क्या हुआ था, वह हंसते हुए बताता है, ‘मेवात और यमुनापार से आए कुछ मुल्ला-रूपी गुंडे आपसे में लड़े थे बस. इससे ज़्यादा मुझे नहीं मालूम…’ आगे उससे नाम पूछने पर बोलता है, ‘मरवाओगे क्या? मैं अपना नाम नहीं बताउंगा.’

चाय वाले चांद भाई भी बताते हैं, ‘दो लोगों की आपसी जंग है. यह सब चलता ही रहता है. लेकिन इस बार मामला कुछ ज़्यादा ही बढ़ गया. जो पुलिस कभी भी इस मस्जिद के अंदर नहीं आई है, वहां पुलिस कमिश्नर तक को यहां आना पड़ा.’

एबीपी न्यूज़ से जुड़े सीनियर पत्रकार इस पूरे मामले में अपनी बातों को कुछ इस प्रकार रखते हैं. उनके मुताबिक़ तब्लीग़ी जमाअत में अमीर की लड़ाई तकलीफ़दह है, लेकिन इसकी नींव 1995 में तत्कालीन अमीर इनामुल हसन कांधौली उर्फ हज़रत जी के इंतक़ाल के साथ ही पड़ गई. विवाद इतना गहरा गया कि बंगलेवाली मस्जिद में अमीर के बजाय शुरा (advisory Committee) का निज़ाम बनाया गया, फौरी तौर पर झगड़ा तो टल गया, लेकिन उठी चिंगारी बुझी नहीं, बल्कि रफ्ता-रफ्ता शोला बनती गई.

वे आगे कहते हैं, ‘अक़ीदत का पर्दा हटाकर हक़ीक़त की कसौटी पर इसका विश्लेषण करें पाएंगे कि जिस खूबी ‘खुलूस’ के लिए तब्लीग़ी जमाअत जाना जाता है, इसके ‘बुजुर्गों’ में इसकी कमी झलकती है. इसकी सीधी वजह है कि तब्लीग़ी जमाअत के अब तक के जो भी अमीर हुए हैं, सबका ताल्लुक इसके बानी (संस्थापक) मौलाना इलियास हुसैन के खानदान से रहे हैं. जिसे न इस्लाम के अक़्दार और न ही 21वीं सदी की कसौटी पर जायज़ ठहराया जा सकता है.’

अब इस घटना के बाद तब्लीग़ी जमाअत का पूरा ज़ोर इस मामले को दबाने का है. अब इन्हें अपनी बिगड़ती छवि की चिंता सता रही है. इनकी पूरी कोशिश है कि ये मामला बाहर न जाने पाए ताकि जमाअत की छवि को कोई नुक़सान न पहुंचे. लेकिन सवाल यह है कि जो भीतर के दाग़ हैं, आख़िर उसे कब तक और क्यों छिपाकर रखा जाएगा.

यहां यह भी स्पष्ट रहे कि हिन्दुस्तान में खासतौर पर मुस्लिम तंज़ीमों के बीच आपस में लड़ाई कोई नई बात नहीं है. ओहदे की लड़ाई हमेशा से तक़रीबन तमाम मुस्लिम तंज़ीमों में हमेशा से रही है. 80 के दशक में दारूल उलूम देवबंद में दो खेमों में लड़ाई हुई और मदरसा दो टुकड़ों में बंट गया. मज़ाहिर उलूम, सहारनपुर में लड़ाई हुई और मदरसा दो भागों में बंट गया. जमीअतुल उलेमा-ए-हिन्द में चचा-भतीजे की जंग में जमीअत दो भागों में बंट गया. जमीअत अहले हदीस में लड़ाई हुई और यह भी दो गुटों में बंट गया. अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या तब्लीग़ी जमाअत के भी दो-दो मर्कज़ बनाने की तैयारी है?

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