Nikhat Perween for BeyondHeadlines
हर बार की तरह उस दिन घर से ऑफिस के लिए कुछ समय पहले निकली थी, ताकि अगर रास्ते में कहीं कुछ देर भी हो जाए तो भी मैं समय पर ऑफिस पहुंच सकूं. लेकिन जैसे ही मेट्रो में क़दम रखा दो-तीन स्टेशन के बाद ऐसा महसूस होने लगा कि जैसे मैं देश की राजधानी दिल्ली के दिल्ली मेट्रो में नहीं, बल्कि किसी पैसेंजर ट्रेन में सफ़र कर रही हूं. क्योंकि हर स्टेशन पर 2-3 मिनट और बहुत देर भी हो तो 4 मिनट रुकने वाली मेट्रो हर स्टेशन पर 10-15 मिनट रुक- रुक कर चल रही थी.
मेट्रो की इस स्थिति के कारण सभी यात्रियों को परेशानी तो हो ही रही थी, लेकिन ये परेशानी तब और बढ़ गई जब राजीव चौक पर लोगों का एक हुजुम मेट्रो में दाखिल हुआ. एक तो मेट्रो की धीमी रफ्तार और दुसरी तरफ़ लोगों की बढ़ती भीड़ का सिलसिला उतना ही तेज़…
दिल्ली मेट्रो एक ऐसी जगह जिसमें अनजान लोग जल्दी एक दूसरे से बात नहीं करते. उसमें हर परेशानहाल चेहरा ये चर्चा कर रहा था कि आज मेट्रो इतनी देर क्यों चल रही है? क्या हो गया है आज मेट्रो को?
ऐसे कई सवाल और सवालों की ऐसी आवाज़े हर तरफ़ से सुनाई दे रही थी. लेकिन जवाब देने वाला कोई मौजूद नहीं था. थी तो बस एक सूचना जो अक्सर मेट्रो के देर चलने पर बार-बार होती है और वो ये कि ‘इस यात्रा सेवा में थोड़ा विलंब होगा, असुविधा के लिए हमें खेद है. हम जल्द ही आपको अगली सूचना देगें, कृप्या प्रतिक्षा करें.’
उस दिन भी बार-बार यही आनाउसमेंट हो रहा था और हर अनाउसमेंट के साथ बढ़ रही थी चारों तरफ़ से बंद मेट्रो में यात्रियों की बेचैनी… सिर्फ़ इसलिए नहीं, क्योंकि उन्हें घर, ऑफिस और कॉलेज वक़्त पर पहुंचना था, बल्कि इसलिए कि हर स्टेशन पर बढ़ती भीड़ के कारण मेट्रो के अंदर घुटन बढ़ती ही जा रही थी.
ये घुटन तब और बढ़ गई जब अचानक मेट्रो की एसी बंद हो गई. आखिरकार जब एक अंकल से बर्दाशत नहीं हुआ तो उन्होंने आपातकाल के लिए लगाई गई लाल बटन को दबाकर गुस्से से अपील की कि –‘एक तो वैसे ही मेट्रो इतनी धीरे चला रहे हो, उपर से एसी बंद कर दिया है तुम लोगो ने. मारने का इरादा है क्या.’
खैर अंकल की इस बात का असर ये हुआ कि कि फौरन एसी चला दी गई, लेकिन मेट्रो की गति में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और धीरे-धारे मेट्रो वहां तक पहुंची, जहां मुझे उतरना होता है.
परेशानहाल चेहरा लेकर मैं भी अपने ऑफिस पहुंची. पर उस दिन मुझे अहसास हुआ कि जितनी तेज़ी से हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं. विकास के इस सफ़र में सुरक्षा की गारंटी को हमने उतना ही पीछे छोड़ दिया है. शायद यही कारण है कि अपने ही द्वारा किए गए विकास के कारण पैदा होने वाली मुसीबतों का हल हम लाख कोशिशों के बावजुद तलाश नहीं कर पा रहें है. आखिर ये किस तरक़्क़ी की तरफ़ बढ़ रहे हैं हमारे क़दम…?
