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तीन तलाक़ पर बहस करने से पहले ये लेख ज़रूर पढ़ें…

तलाक, तीन तलाक, बहुविवाह, मुस्लिम पर्सनल ला, हिंदू कोड बिल और यूनिफॉर्म सिविल कोड ये वो शब्द हैं जो आजकल आपके कानों में जोरदार तरीके से गूंज रहे हैं. आखिर ये शब्द क्या हैं? आज इसके क्या मायने हैं? क्या यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना आसान है? देश में बसने वाले अलग-अलग समुदायों के बीच शादी ब्याह, तलाक, उत्तराधिकार के क्या नियम हैं. देश में क्या कोई शख्स अपनी चचेरी बहन से शादी कर सकता है. क्या कोई मामा अपनी भांजी से शादी कर सकता है. बेटियों को अपने पिता की दौलत में अधिकार है?

आज हम यहां जानने की कोशिश करेंगे कि इस्लाम में तलाक का सही तरीका क्या है और रिवाज की आंधी में मुसलमान कैसे कुचले जा रहे हैं?

तलाक की बहस पर पहुंचने से पहले हमें ये जानना पड़ेगा कि इस्लाम में शादी का कॉन्सेप्ट क्या है? इस्लाम में शादी जन्म-जन्मांतर का बंधन नहीं होता है, बल्कि एक अहदो पैमान यानी पक्का समझौता (सिविल कॉन्ट्रैक्ट) होता है, जो एक मर्द और एक औरत की आपसी रज़ामंदी के बाद क़रार पाता है. इस्लाम ने पति-पत्नी को इस कॉन्ट्रैक्ट को निभाने के लिए सैकड़ों हिदायतें दी हैं. यानी इसे तोड़ने से मना किया है. इस्लामी शरीअत में इसकी भरपूर कोशिश की गई है कि औरत और मर्द जब एक बार रिश्त-ए-निकाह में जुड़ गए हैं तो एक खानदान बनाएं और आखिरी वक़्त तक इसको क़ायम रखने की पूरी कोशिश करें. कुरआन ने निकाह को मीसाक-ए-गलीज़ (मज़बूत समझौता) क़रार दिया है.

लेकिन ज़िंदगी के सफर में उतार चढाव आते रहते हैं, नर्म-गर्म हालात पैदा होते रहते हैं, और कभी कभी ऐसे भी हालात बन जाते हैं कि निबाह के तमाम रास्ते बंद हो जाते हैं तो ऐसी स्थिति में इस्लाम ने शादी (कॉन्ट्रैक्ट) को तोड़ने करने की इजाज़त दी है, लेकिन सख्त ताकीद के साथ कि जब साथ-साथ रहने की बिल्कुल कोई सूरत बाकी नहीं हो तभी शादी तोड़ी जाए. इसलिए इस्लाम में जायज़ कामों में तलाक को सबसे बुरा काम कहा गया है.

कब तोड़ी जा सकती है शादी?

अब मियां बीवी ये समझते हैं कि इख़्तिलाफात (मतभेद, झगड़े) इतने हो गए हैं कि साथ-साथ रहना नामुमकिन है तो उन्हें अलग होने की छूट है. लेकिन उससे पहले उन्हें अपने खानदान को इस मतभेत को बताना होगा. मियां-बीवी दोनों के खानदान से एक-एक हकम (पंच) चुने जाएं. पंच उसे चुना जाए जो हमदर्द और खैरखाह हों, जिनका असल मक़सद झगड़े को ख़त्म करना हो. फिर भी जब बात नहीं बने तो अलग होने का रास्ता साफ़ हो जाता है.

शादी ख़त्म करने के क्या तरीके हैं?

इस्लाम में शादी खत्म करने के चार तरीके हैं. तलाक, तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह. शादी तोड़ने के लिए तलाक़ का अधिकार मर्दों को है तो इसी तरह शादी को खत्म करने के लिए तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह का अधिकार औरतों को है. तलाक की बात विस्तार से बाद में करते हैं उससे पहले तफवीज़-ए-तलाक़, खुलअ और फ़स्ख़-ए-निकाह के बारे में जानते हैं.

तफवीज़-ए-तलाक़

मियां-बीवी के जुदा होने का ये एक तरीक़ा है. इस तरीके के तहत शादी तोड़ने का अधिकार औरत को है. इसमें मर्द तलाक देने का अपना अधिकार बीवी के सुपुर्द कर देता है. लेकिन इसमें एक पेंच है. ये तभी मुमकिन है जब मर्द ने औरत को ये अधिकार दिए हों. मर्द कभी भी ये हक औरत को दे सकता है. निकाह के वक़्त या निकाह के बाद इस्लाम में शादी एक कॉन्ट्रैक्ट है ऐसे में निकाह के वक़्त कॉन्ट्रैक्ट पेपर में भी इस अधिकार को दर्ज किया जा सकता है. जिन मर्दों ने अभी तक अपनी बीवी को ये अधिकार नहीं दिया है वो अब भी दे सकते हैं. चाहे शादी कितनी पुरानी क्यों न हो?

ख़ुलअ

शादी तोड़ने का ये भी एक तरीक़ा है और इसका भी हक महिलाओं को है. अगर औरत को लगता है कि वो शादीशुदा जिंदगी की जिम्मेदारियों को पूरा नहीं कर सकती है या मर्द के साथ उसका निबाह नहीं हो सकता है तो वो अलग होने का फैसला कर सकती है. इसके लिए औरत को महर (निकाह के वक़्त शौहर की तरफ से दी गई रक़म) वापस देनी होगी. और उसके बदले मर्द उसे तलाक़ दे देगा. यहां भी एक पेंच है अगर मर्द राजी नहीं हुआ तो खुलअ नहीं हो पाएगा. अगर खुलअ की मदद से औरत शादी तोड़ने में नाकाम रह जाती है तो फ़स्ख़-ए-निकाह का रास्ता अख्तियार कर सकती है.

फ़स्ख़-ए-निकाह

इसके लिए औरत को इस्लामी अदालत या मुस्लिम काज़ी की मदद लेनी होगी. इस तरीके में औरत को काज़ी के सामने निकाह तोड़ने की मुनासिब वजहें साबित करने होगी. जैसे मर्द नामर्द है, खाना खर्चा नहीं देता. बुरा बर्ताव करता है, शौहर लापता है, पागल हो गया है आदि… काज़ी मामले की जांच पड़ताल करेगा. अगर काज़ी को लगता है कि वजहें सही हैं तो वो खुद ही औरत का निकाह ख़त्म कर देगा.

तलाक़

तलाक़ का अधिकार मर्द को है और सारा झगड़ा इसी को लेकर है. हालांकि, तलाक देने का तरीका बहुत ही साफ़ है. तलाक के तीन स्टेज हैं. तलाक-ए-रजई, तलाक-ए-बाइन और तलाक-ए-मुगल्लज़ा.

तलाक-ए-रजई

ये तलाक का पहला स्टेज है. इस्लाम का हुक्म है कि अगर कोई मर्द अपनी बीवी को छोड़ना चाहता है तो पहले वो एक तलाक दे. ये तलाक भी माहवारी के समय न दे, बल्कि महिला अगर माहवारी में है तो उसके खत्म होने का इंतजार करे. पहला तलाक देने के बाद अगले एक महीना तक दोनों सोचते रहें. और इस दौरान राय बदल गई तो मर्द अपने तलाक को वापस लेकर अपनी बीवी के साथ रह सकता है और अगर तलाक वापस नहीं लिया तो दूसरे महीने पति को दूसरा तलाक देना होगा. दूसरे महीने भी मर्द को ये अख्तियार है कि वो तलाक को वापस ले सकता है. इसिलए इसे तलाक-ए-रजई यानी लौटा लेने के हैं.

तलाक-ए-बाइन

ये तलाक का दूसरा स्टेज है. अगर शुरुआती दो महीनों में मर्द ने तलाक वापस नहीं लिया और तीसरा महीना शुरू हो गया तो अब तलाक पड़ गई. इसको तलाक-ए-बाइन कहा जाता है. इस तलाक के बाद भी पति-पत्नी साथ आ सकते हैं, लेकिन इसके लिए पति के चाहने के बावजूद अब पत्नी का राजी होना जरूरी है. अगर दोनों राजी होंगे तो दोबारा निकाह होगा और फिर शौहर-बीवी बने रह सकते हैं.

तलाक-ए-मुगल्लज़ा
ये तलाक का आखिरी स्टेज है. तीसरे महीने में अगर मर्द ने ये कहा कि मैं तुमको तीसरी बार तलाक देता हूं, ऐसा कहने के बाद आखिरी तलाक भी पड़ गई. इसे तलाक-ए-मुगल्लज़ा कहते हैं. अब इसके बाद दोनों के बीच निकाह नहीं हो सकता है.

क्या तलाक देने का सिर्फ यही तरीक़ा है?

जवाब है, जी नहीं. इस्लामी समाज में तलाक देने के तीन तरीके चलन में हैं. तलाक-ए-हसन, तलाक-ए-अहसन और तलाक-ए-बिद्अत. और यहीं से झगड़ें की वजहें पनपती हैं. दरअसल एक साथ तलाक, तलाक, तलाक का मामला तलाक-ए-बिद्अत की पैदावार है. मुसलमानों के बीच तलाक-ए-बिद्अत का ये झगड़ा 1400 साल पुराना है, जबकि भारत में मुस्लिम पर्सनल के झगड़े की नींव 1765 में पड़ी.

तीन तलाक यानि तलाक-ए-बिद्अत क्या है?

तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन यानी तलाक देने के सही तरीके पर सबको शिया-सुन्नी को इत्तेफाक है. तकरार तलाक-ए-बिद्अत पर है. शिया और सुन्नी का वहाबी समूह अहल-ए-हदीस तलाक-ए-बिद्अत को नहीं मानता. तलाक-ए-बिद्अत ये है कि अगर कोई मर्द तलाक के सही तरीके की नाफरमानी करते हुए भी एक ही बार में तलाक, तलाक और तलाक कह देता है तो तीन तलाक मान लिया जाएगा, यानि तलाक-ए-मुगल्लज़ा हो गई. अब पति-पत्नी साथ नहीं रह सकते. दोबारा शादी नहीं हो सकती, समझौता नहीं हो सकता. तलाक वापस नहीं लिया जा सकता… चाहे मर्द ने गुस्से में ही तीन तलाक क्यों नहीं दिया हो.

दुनिया में सुन्नी मुसलमानों के चार स्कूल ऑफ थॉट हैं और ये चारों स्कूल तलाक-ए-बिद्अत पर अमल करते हैं. भारत सबसे बड़े स्कूल ऑफ थॉट हनफी स्कूल का केंद्र है. यहां मुसलमानों की करीब 90 फीसदी आबादी सुन्नी है और वो चाहें सूफी हों या देवबंदी या बरेलवी.. ये सभी हनफी स्कूल को फॉलो करते हैं यानि तीन तलाक को मानते हैं. भारत में अहल-ए-हदीस नमक में आटे के बराबर हैं.

अगली कड़ी में जानेंगे कि आखिर तीन तलाक पर भारतीय मुसलमान बहस से डरता क्यों है या उसके सामने खतरा क्या है. मुसलमानों को खुद कैसी परेशानी से जूझना पड़ रहा है?

(लेखक अब्दुल वाहिद आजाद एबीपी न्यूज़ में सीनियर प्रोड्यूसर हैं. इनसे ट्वीटर पर https://twitter.com/azadjurno और

फेसबुक https://www.facebook.com/abdul.wahidazad.7 जुड़ा जा सकता है.)

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