ये मीडिया को ‘विलेन बनाने’ का दौर है. भारत में ‘प्रेस्टीट्यूट’ शब्द को स्वीकार कर लिया गया है और एक धड़ा जमकर इसका इस्तेमाल कर रहा है. सरकार ने मंत्रालयों में पत्रकारों की पहुंच कम कर दी है. यहां तक कि प्रधानमंत्री अपनी यात्राओं में पत्रकारों को साथ नहीं ले जा रहे हैं, जैसा कि पहले होता था.
अमरीका में ट्रंप प्रशासन ने स्पष्ट संकेत दिए हैं कि वो ‘मीडिया को ही विपक्ष’ बना लेंगे. डोनल्ड ट्रंप कई बार मीडिया संस्थानों के लिए भद्दी भाषा का प्रयोग कर चुके हैं और कई स्थापित चैनलों को फ़र्ज़ी तक कह चुके हैं. ऐसा करके वो अपने एक ख़ास समर्थक वर्ग को ख़ुश भी कर देते हैं.
दुनिया में नया ऑर्डर स्थापित हो रहा है. इसमें पत्रकारों को भी अपनी नई भूमिका तय करनी होगी. जब अपनी बात पहुँचाने के लिए नेताओं के पास ‘सोशल मीडिया’ है तो वो ‘स्थापित मीडिया’ से दूरी बनाने में परहेज़ क्यों करेंगे?
मुझे लगता है कि ऐसे बदलते परिवेश में वो ही पत्रकार कामयाब होंगे और पहचान पाएंगे जो संस्थानों के समकक्ष स्वयं को स्थापित कर लेंगे. ‘बाइट-जर्नलिस्टों’ की जगह ‘विषय विशेषज्ञों’ की पूछ होगी.
जिस दौर में स्थापित मीडिया को विलेन बनाया जा रहा है उस दौर में पत्रकारों के पास ज़मीनी रिपोर्टिंग करके ‘हीरो’ बनने का मौक़ा भी है.
(Dilnawaz Pasha के फेसबुक टाईमलाईन से साभार…)
