Edit/Op-Ed

यूपी चुनाव : दलितों से एक और धोखे की तैयारी!

Afroz Alam Sahil for BeyondHeadlines

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में दलित वोटरों को अपने पाले में लाने के लिए कमोबेश सभी दल कोशिश कर रहे हैं. इनका वोट खींचने और यहां तक खरीदने की बेचैनी सभी दलों में साफ़ दिखती है. हालांकि यह तथ्य है कि यूपी में तमाम दलित नेताओं के उभार के बावजूद इस वोट-बैंक पर सबसे बड़ा कब्ज़ा अभी भी पूर्व मुख्यमंत्री और बसपा सुप्रीमो मायावती का ही है.

2011 के जगगणना के मुताबिक़ यूपी की कुल आबादी 19.98 करोड़ है. इनमें तक़रीबन 4.13 करोड़ यानी 20.7 फ़ीसदी आबादी अनुसूचित जाति की है. वोटरों में इनका प्रतिशत देखें तो तकरीबन 23 फ़ीसदी वोटर दलित समुदाय से आते हैं. यूपी के 403 विधानसभा सीटों में 85 सीटें आरक्षित हैं

इन 23 फ़ीसदी वोटरों में तक़रीबन 66 बिरादरी के लोग शामिल हैं. इनमें सबसे अधिक 56 फ़ीसद वोटर जाटव बिरादरी के हैं. उसके बाद 15.9 फ़ीसद पासी बिरादरी की है. इसके अलावा यहां 15.6 फ़ीसद आबादी धोबी, कोरी और बाल्मिकी बिरादरी की, 5 फ़ीसद गोंड, धनुक खटिक बिरादरी की तो वहीं 7.5 फ़ीसदी बहेलिया, खरवार, कोल, बाजगी, खोरोट अन्य बिरादरियों से आते हैं.

ख़ास बात ये है कि ये यूपी के तक़रीबन ज़िलों में समान रूप से मौजूद हैं. अनुसूचित जाति के सबसे अधिक 34.7 फ़ीसद वोटर कौशांबी में हैं तो सबसे कम 11.4 फ़ीसद वोटर बाग़पत ज़िले में हैं. इन आंकड़ों से यह साफ़ है कि दलित वोटर यूपी की हर विधानसभा में 12 फ़ीसद के आसपास या उससे ऊपर ज़रूर हैं.

बसपा जैसी पार्टी इनकी पहली पसंद है. समाज के इस बेहद निचले तबके की राजनीति करने वाली मायावतीदलित की बेटीसेदौलत की बेटीबन चुकी हैं लेकिन ज़मीन पर दलितों की हालत में बहुत सुधार देखने को नहीं मिला है. बावजूद इसके वो दलितों को अपने पाले में बनाए रखने के लिए कामयाब रहती हैं. वह पूरे साल प्रदेश में दलित महापुरूषों के जन्मदिन और परिनिर्वाण दिवस जैसे बड़े समारोहों का आयोजन कर दलित अस्मिता का कार्ड खेलती रही हैं.

बीजेपी भी दलितों पर डोरे डालने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है. उसका पैतृक संगठन आरएसएस भले ही आरक्षण के ख़िलाफ़ एक के बाद दूसरे बयान जारी कर रहा हो और बाद में डैमेज कंट्रौल की कोशिश कर रहा हो, लेकिन भाजपा दलितों की सबसे बड़ी ख़ैरख़्वाह होने की क़वायद में खुद आरएसएस को इस मुद्दे पर दरकिनार करने पर आमादा है. इसके अलावा बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर से लेकर संत रविदास सहित अनेकों दलित महापुरूषों की जयंतियों पर कई बड़े आयोजन किए. दलित समरसता भोज भी दिया, जिसमें खुद भाजपा अध्यक्ष अमित शाह शामिल हुए, हालांकि ये भोज कई अन्य कारणों से मीडिया में ख़बर बनी.   

कांग्रेस का एक बड़ा परंपरागत वोटबैंक दलित रहे हैं. केन्द्र राज्य दोनों ही जगह हाशिए पर पहुंच चुकी कांग्रेस ने यूपी से दलित नेता पी.एल. पुनिया को राज्यसभा इसीलिए भेजा ताकि वो खुद को दलितों का शुभचिंतक साबित कर सकें. मगर दस सालों तक केन्द्र में यूपीए का राज होने के बावजूद कभी कांग्रेस को दलितों की सुध नहीं आई. ये अलग बात है कि दलित वोटों के ख़ातिर कांग्रेस ने पूरे यूपी मेंभीम ज्योति यात्राके साथसाथ आरक्षित सीटों परशिक्षा, सुरक्षा स्वाभिमान यात्रानिकाला. खुद राहुल गांधी दलितों के बस्तियों में गए और उनसे सीधे संवाद की कोशिश की.

सपा से दलितों की हित की बात करना ही बेमानी है. उसका वोट बैंक ही दलित विरोधी है. वो सिर्फ़ और सिर्फ़ ओबीसी की बात करता है, और वो बात भी दलितों के हितों की क़ीमत पर की जाती है. बावजूद इसके सपा ने कैबिनेट में दलितों को तवज्जो दी और सपा में उनका प्रतिनिधित्व को बढ़ाया. इतना ही नहीं, दलित वोटों को ध्यान में रखकर ही 6 दिसंबर को अंबेडकर परिनिर्वाण दिवस पर राज्य में सरकारी अवकाश की घोषणा की.

ऐसे में आप देख सकते हैं कि दलित यूपी की सियासत में सिर्फ़ राजनीतिक फ़ायदे का मोहरा बन चुका है. हालांकि एक कड़वी सच्चाई यह है कि दलितों को राजनीतिक पार्टियां उन्हीं सीटों पर टिकट देती हैं जो आरक्षित सीटें होती हैं. अगर संविधान में इसका प्रावधान होता तो दलितों के लिए राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी हासिल करना और कठिन होता. ये भी विडंबना है कि दलित सीटों में भी दलितों के नाम के नाम पर उन्हीं नुमाइंदों को आगे बढ़ाया जाता है, जो सिर्फ़ और सिर्फ़ सत्ता की कठपुतली होते हैं और उनका असल दलित कल्याण से वास्ता कम दिखता है.

इनके सबके बीच सच तो यही है कि दलितों का वोट एकजूट होकर जिधर गिरेगा, सियासत का ऊंट भी उसी ओर करवट लेगा. अब ये दलितों को सोचना है कि वो किस आधार पर वोट देते हैं. क्या पार्टियों से पिछले कामों का हिसाब इसके प्राथमिकता में होता है या फिर ये फिर ये दलित रटीरटाई फ़ार्मुले पर ही अपने मुक़ाम का इज़हार करेंगे, ये मानक ही इस बार चुनाव की दिशा तय कर देगा.

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