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मोतिउर रहमान: छठी क्लास में ही मैंने तय कर लिया कि आईएएस बनना है…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published May 30, 2018 14 Views
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8 Min Read
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अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines

अगर किसी काम के बारे में आप सोच सकते हैं तो उसे कर भी सकते हैं. आत्मविश्वास की यही कहानी बिहार के मोतिउर रहमान ने लिखी है. इन्होंने इस बार यूपीएससी की  सिविल सर्विस परीक्षा में 154वीं रैंक हासिल की है.

मोतिउर रहमान का कहना है कि, किसी भी परीक्षा में कामयाबी के लिए आत्मविश्वास का होना ज़रूरी है. आप में ये आत्मविश्वास होना चाहिए कि मैं ये कर सकता हूं. ये नहीं सोचना चाहिए कि हम स्कूल-कॉलेज में अच्छे से नहीं पढ़े हैं. हम कमज़ोर हैं. हम हिन्दी-उर्दू बैकग्राउंड से हैं. तो हम सिविल सर्विस में नहीं जा सकते. हम ये नहीं कर सकते. तो मैं बता दूं कि इस परीक्षा की ख़ास बात यही है कि इसमें हर तरह के लोग सेलेक्ट होते हैं. सिर्फ़ इंजीनियर-डॉक्टर ही नहीं होते. मेरी तरह इग्नू से पढ़ने वाले भी होते हैं.

बिहार के भागलपुर ज़िले के भीखनपुर इलाक़े में रहने वाले 27 साल के मोतिउर रहमान के पिता एस.एम. साजिद इलाहाबाद बैंक से मैनेजर के पद से रिटायर हुए हैं. वहीं मां  डॉ. तबस्सुम परवीन भागलपुर के सुन्दरवती महिला कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग की हेड ऑफ़ डिपार्टमेंट हैं. चार भाई-बहनों में मोतिउर रहमान सबसे छोटे हैं. इनकी दो बहने डॉक्टर हैं, वहीं बड़े भाई इंजीनियर हैं और टीसीएस में काम करते हैं.

मोतिउर रहमान की दसवीं व बाहरवीं की पढ़ाई भागलपुर के माउंट असीसी स्कूल से हुई है. उसके बाद इन्होंने इग्नू से पॉलिटिकल साइंस में बैचलर डिग्री हासिल की.

मोतिउर रहमान बताते हैं कि, 2004 में मेरे खलेरे भाई आईपीएस बने, जो इस समय मध्य प्रदेश में डीआईजी हैं. तब मैं छठी क्लास में था. मैंने देखा कि अचानक घर में भाई का सम्मान बढ़ गया. घर में मिलने आने वालों की तादाद बढ़ गई. तब ही मेरे दिमाग़ में आ गया कि मुझे भी यही बनना है.

मोतिउर रहमान की पहली च्वाईस आईएएस है, लेकिन इनका कहना है कि मेरे इस रैंक पर आईपीएस मिलेगा और अब पुलिस सर्विस में जाकर ही देश की सेवा करना चाहता हूं. लेकिन बाद में एक बार फिर से आईएएस बनने के लिए परीक्षा ज़रूर दूंगा.

मोतिउर रहमान कहते हैं कि पुलिस के पास जो शिकायतें आती हैं, वो रजिस्टर ही नहीं की जाती. ऐसा इसलिए कि उन्हें काम करना पड़ेगा. इसके कारण ग़लत करने वालों के हौसले बढ़ जाते हैं कि पुलिस कुछ करेगी नहीं. यानी कोई भी ताक़तवर किसी कमज़ोर पर जब चाहे ज़ुल्म कर सकता है. गरीबों की बात तो पुलिस सुनती नहीं. जबकि होना ये चाहिए कि पुलिस कमज़ोर लोगों की दोस्त बने. मेरी पहली कोशिश पुलिस को कमज़ोर लोगों के लिए दोस्त बनाने की होगी.

मैं कैसे मान लूं कि आप इसे कर पाएंगे. क्योंकि शायद आपकी ट्रेनिंग ऐसी हो जाएगी कि ये सारे आदर्श भूल जाएं? इस पर मोतिउर रहमान का कहना है कि बाद में क्या होगा, इसका मालिक तो अल्लाह ही है. लेकिन अगर हम ये सोच लेकर जा रहे हैं तो ज़रूर कुछ न कुछ कर लेंगे. बहुत सारे आईपीएस इस मुल्क में काफ़ी बेहतर कर रहे हैं. आज इन्हीं की वजह से सिस्टम चल भी रहा है.

2014 से मोतिउर रहमान ने अपनी तैयारी शुरू की. सबसे पहले क़रोल बाग़ के एक कोचिंग सेन्टर से फिलॉस्फ़ी की क्लास की. ऑनलाईन टेस्ट सीरिज़ किया और फिर जामिया मिल्लिया इस्लामिया में रहकर तैयारी की.

इन्होंने बतौर ऑप्शनल सब्जेक्ट फिलॉस्फ़ी लिया था. इनका कहना है कि पॉलिटिकल साइंस का सिलेबस बहुत डायनामिक है. वक़्त के हिसाब से इसमें चीज़ें बदलती रहती हैं, लेकिन फ़िलॉस्फ़ी में ऐसी बात नहीं है. इसका सिलेबस स्टैटिक है. एक बार सिलेबस पूरा कर लिया तो बस रिवीज़न ही करना होता है. अपने नोट्स को अपडेट करने का टेंशन नहीं होता. फ़िलॉस्फ़ी में मेरी दिलचस्पी भी थी. और ऑप्शनल सब्जेक्ट हमेशा अपनी दिलचस्पी के अनुसार ही लेना चाहिए.

एक लंबी बातचीत में भागलपुर दंगे के बारे में पूछने पर वो बताते हैं कि, भागलपुर दंगा भारतीय सेकूलरिज़्म पर एक दाग़ है. उस वक़्त जो ध्रुवीकरण की शुरूआत हुई, वो आज भी जारी है. इस दंगे की क़ीमत अभी तक भागलपुर को अदा करनी पड़ रही है. भागलपुर सिल्क इंडस्ट्री के लिए मशहूर था, लेकिन दंगे ने इस इंडस्ट्री को बर्बाद कर दिया. बुनकर परिवार अभी तक बदहाल व परेशान हैं. हम तो चाहते हैं कि ऐसा कभी किसी शहर में न हो.

सिविल सर्विस की तैयारी करने वालों से मोतिउर रहमान कहते हैं कि, इसका सिलेबस बहुत बड़ा है, इसलिए जब भी पढ़िए तो नोट्स ज़रूर बनाईए ताकि रिवाइज़ करना आपके लिए आसान हो. प्रीलिम्स के लिए पहले से ही खूब सारी टेस्ट सीरीज़ हल कर लेनी चाहिए ताकि आपकी प्रैक्टिस हो जाए. मेन्स परीक्षा के लिए आंसर राईटिंग सबसे ज़रूरी है. तीन घंटे में बीस सवालों के जवाब लिखने होते हैं, तो इसके लिए प्रैक्टिस बहुत ज़रूरी है.

वो आगे कहते हैं कि, सबसे महत्वपूर्ण है कि इंटरनेट और पढ़ाई को अलग-अलग रखा जाए. फोन में फ्री इंटरनेट ने बड़ा बेड़ा ग़र्क़ कर दिया है. बच्चा लोग को पता ही नहीं है कि वो अपना क़ीमती वक़्त कितना बर्बाद कर रहे हैं. इसलिए जब भी आप पढ़ने बैठें तो मोबाईल को खुद से अलग कर दें. इसे ऐसी जगह रख दें कि जहां आप उसे देख नहीं सकें. तभी आपकी पढ़ाई हो सकती है. लाईब्रेरी में बैठकर पढ़ना सबसे बेहतर रहता है. मैं जब भी लाईब्रेरी में पढ़ने जाता तो अपना फोन रूम पर ही छोड़ जाता था.

अपने क़ौम के नौजवानों से मोतिउर रहमान का कहना है कि, हम लोगों की क़ौम दीनी व दुनियावी नॉलेज दोनों ऐतबार से पिछड़ रही है. ऐसे में दीनी के साथ-साथ दुनियावी नॉलेज के लिए पढ़ाई सबसे ज़रूरी चीज़ है. हमें अपने समाज में तालीम का माहौल बेहतर करना पड़ेगा. हर साल जब सिविल सर्विस का रिजल्ट आता है तो हम देखते हैं कि मुसलमान सिर्फ़ 3-4 प्रतिशत ही सेलेक्ट हो रहा है. लेकिन अब ये भी सोचना होगा कि हमारी क़ौम की हालत ये है कि ज़्यादातर मुस्लिम नौजवान इतना पढ़ ही नहीं रहे हैं कि वो इस एग्ज़ाम में बैठ सकें. आप देख लीजिए कि कितना प्रतिशत मुसलमान ग्रेजुएट हो रहा है. ये प्रतिशत महज़ तीन प्रतिशत के आस-पास ही है. ये कितना अजीब है कि जहां दूसरी क़ौमें शैक्षिक ऐतबार से लगातार तरक़्क़ी कर रही हैं, वहीं हमारी क़ौम लगातार पिछड़ती जा रही है. लेकिन अब हमें एक अच्छी क़ौम बनाने के बारे में सोचना चाहिए. एक ऐसी क़ौम जिसमें गरीबी कम हो. लोगों की ज़िन्दगी आसान हो. लोग पढ़े-लिखे हों…          

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