India

क्रांतिकारियों के लिए पहले साईकिल यात्रा और अब खोल दी चंबल आर्काइव

Afroz Alam Sahil, BeyondHeadlines

उत्तर प्रदेश के इटावा शहर में चंबल घाटी के क्रांतिकारियों के इतिहास को सहेजने की नियत से ‘अंतर्राष्ट्रीय आर्काइव्स दिवस’ के अवसर पर पहला ‘चंबल आर्काइव’ 09 जून, 2018 को खुलने जा रहा है. जानकारों की मानें तो ये देश का शायद पहला आर्काइव होगा, जो किसी के व्यक्तिगत प्रयास के नतीजे में आम लोगों के लिए खुलेगा.

ये व्यक्तिगत प्रयास उत्तर प्रदेश के बस्ती ज़िले के नकहा गांव में जन्में 36 साल के शाह आलम का है, जिन्होंने इसके लिए जागती आंखों से सपना देखा और उनकी निरंतर कोशिशों से अब ये सपना साकार होने जा रहा है.

गौरतलब रहे कि अवध विश्वविद्यालय, फ़ैज़ाबाद और नई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया से पढ़ाई कर चुके शाह आलम अभी हाल में ‘चंबल जन संसद’ और आज़ादी के 70 साल पूरे होने पर ‘आज़ादी की डगर पे पांव’ नामक यात्रा से काफ़ी सुर्खियों में रहे हैं. शाह आलम की इसी साल ‘मातृवेदी-बागियों की अमरगाथा’ पुस्तक भी प्रकाशित हुई है. इसके पहले इन्होंने 2006 में ‘अवाम का सिनेमा’ की नींव रखी थी. इसके ज़रिए वे नई पीढ़ी को क्रांतिकारियों की विरासत के बारे में बताते हैं.

दरअसल, आज से क़रीब दो साल पहले शाह आलम बीहड़ में आज़ादी के निशान तलाशने निकले थे. मक़सद था ‘मातृवेदी’ के क्रांतिकारियों की यादों को सहेजकर एक शोध पुस्तक की शक्ल देना. 2700 किलोमीटर के खोजी सफ़र को इन्होंने अपनी साइकिल से क़रीब दो महीने में पूरा किया था.

शाह आलम अपने आर्काइव में

शाह आलम BeyondHeadlines से बातचीत में बताते हैं कि, काकोरी कांड सभी को याद है, जिसमें चार क्रांतिवीरों की शहादत हुई थी. लेकिन उससे पहले काकोरी एक्शन करने वाले साथियों के 35 साथी चम्बल घाटी में शहीद हो गये थे. ये सभी अपने दौर में सबसे बड़े गुप्त क्रांतिकारी दल ‘मातृवेदी’ के सदस्य थे. इन क्रांतिवीरों को सरेआम ज़हर देकर मार दिया गया. लेकिन इतनी बड़ी तादाद में शहादत के बाद भी ‘मातृवेदी’ के क्रांतिकारियों की याद को संरक्षित नहीं किया गया. मैं बस ‘मातृवेदी’ के इन्हीं क्रांतिकारियों की यादों को सहेजकर एक किताब की शक्ल देने की चाहत में व्यक्तिगत स्तर पर शोध कर रहा था. लेकिन ये इतना आसान नहीं था. मुझे दिल्ली के नेशनल आर्काइव में अशफ़ाक़ उल्लाह खान के मुक़दमे की सिर्फ़ फ़ाईल देखने में ही 18 महीने लगाने पड़े. इसके अलावा इन क्रांतिकारियों पर कोई भी दस्तावेज़ मुझे नहीं मिला, तब मैं इतिहास को खंगालने के लिए अकेले साइकिल यात्रा पर निकला गया.

वो आगे बताते हैं कि, इस साइकिल यात्रा के दौरान ख़्याल आया कि मुझ जैसे घुमंतू पत्रकार को शोध करने के लिए इतना परिश्रम करना पड़ रहा है, तो बाक़ी शोधार्थियों को कितना संघर्ष करना पड़ता होगा. क्यों न उनकी मुश्किलों को आसान करने के लिए एक आर्काइव खोल दिया जाए, जिसमें चंबल से जुड़ी हुई तमाम किताबें व दस्तावेज़ हों. इसी दौरान मेरी मुलाक़ात कृष्णा पोरवाल जी से हुई. उनके पास कई पुराने अख़बारों की फ़ाईलें थीं. मैंने उनसे अपने दिल की बात कही और वो तुरंत तैयार हो गए. उनके कई साथी भी इस काम के लिए तैयार हुए. ख़ास तौर पर दिनेश पालीवाल जी का साथ मिला. मशहूर साहित्यकार असग़र वजाहत ने भी मदद का आश्वासन दिया. अब मैं अपने शोध को कुछ दिनों के लिए विराम देते हुए आर्काइव खोलने की कोशिशों में लग गया और आख़िरकार दो सालों के बाद हम चंबल का अपना आर्काइव खोलने जा रहे हैं. इसके लिए सबसे अधिक बधाई के पात्र कृष्णा पोरवाल जी हैं. इन्होंने अपनी ज़िन्दगी भर की कमाई यानी न सिर्फ़ किताबें व दस्तावेज़ दिए, बल्कि आर्काइव के लिए अपनी जगह भी दी. ये आर्काइव इटावा रेलवे स्टेशन से एक किलोमीटर दूर न्यू कॉलोनी के चौगुर्जी मुहल्ले में स्थित है.

शाह आलम के मुताबिक़ इस आर्काइव में क़रीब 14 हज़ार पुस्तकें, सैकड़ों दुर्लभ दस्तावेज़, विभिन्न रियासतों के डाक टिकट, विदेशों के डाक टिकट, राजा भोज के दौर से लेकर सैकड़ों प्राचीन सिक्के आदि उपलब्ध हैं.

शाह आलम का कहना है कि यहां आठ कांड की रामायण, जिसमें लव कुश कांड भी शामिल है. रानी एलिजाबेथ के दरबारी कवि की 1862 में प्रकाशित वह किताब जिसके हर पन्ने पर सोना है. 1913 में छपी एओ ह्यूम की डायरी, प्रभा पत्रिका के सभी अंक, चांद का ज़ब्तशुदा फांसी अंक और झंडा अंक, गणेश शंकर विद्यार्थी जी द्वारा अनुदित ‘बलिदान’ और आयरलैण्ड का इतिहास पुस्तक, जिसे पढ़कर नौजवान क्रांतिकारी बनने का ककहरा सीखते थे की मूल प्रति, तमाम गजेटियर, क्रांतिकारियों के मुक़दमें से जुड़ी फाइलों के अलावा देश और विदेश की 18वीं और 19वीं शताब्दी की दुर्लभ किताबों का ज़ख़ीरा मौजूद है.

सारिका, इमरजेंसी अंक

वो आगे बताते हैं कि इतना ही नहीं, मुंशी प्रेमचंद द्वारा संपादित विशाल भारत पत्रिका के सभी अंक. 1956 से 1976 तक सरस्वती पत्रिका के सभी अंक. कमलेश्वर द्वारा संपादित सारिका का वह अंक जिसके पन्नों को इमरजेंसी के दौरान सरकार ने बलपूर्वक काला करवा दिया था. हंस पत्रिका के 1986 से अब तक के सभी अंक के इलावा प्रमुख साहित्यकारों की दुर्लभ कृतियां आकर्षित करती हैं. इसके अलावा इस आर्काइव में दुनिया का सबसे पुराना माने जाने वाला राजस्थान के भीलवाड़ा ज़िले के शाहपुरा स्टेट का स्टांप, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा जारी स्टांप का संग्रह, तथागत बुद्ध की 2550वीं जयंती पर जारी स्टांप, आज़ादी की 25वीं वर्षगांठ पर भारत और सोवियत संघ द्वारा जारी स्टांप, जंग-ए-आज़ादी 1857 की 150वीं वर्षगांठ पर रानी लक्ष्मीबाई पर जारी स्टांप यहां मौजूद है. इसके अलावा देश के पूर्व राष्ट्रपति डा. आर वेंकटरमन को विदेशी दौरों के दौरान गिफ्ट, अनोखे डाक टिकटों का संग्रह भी है. ब्रिटिश काल से लेकर दुनिया भर के क़रीब चालीस हज़ार डाक टिकट इस आर्काइव में मौजूद हैं. इसके इलावा क़रीब तीन हज़ार प्राचीन सिक्कों का कलेक्शन भी मौजूद है.

शाह आलम का कहना है कि, देश भर में ज़्यादातर आर्काइव्स की हालत बहुत ख़स्ताहाल है. वहीं अगर आप किसी यूनिवर्सिटी से जुड़े हुए नहीं हैं तो फिर यहां से शोध सामग्री हासिल कर पाना काफ़ी मुश्किल होता है. लेकिन ‘चंबल आर्काइव’ हर किसी के लिए खुला हुआ है. यहां आम आदमी भी आकर लाभवंतित हो सकता है.

इस आर्काइव के खर्च के बारे में पूछने पर वो बताते हैं कि अभी तक किसी से भी कोई आर्थिक मदद नहीं ली गई है और आगे ज़रूरत पड़ी तो मदद जन-सहयोग से जुटाई जाएगी.

इनके मुताबिक़ इस आर्काइव में तमाम तरह की चीज़ों को रखा जा रहा है. शाह आलम कहते हैं कि, जिस विचारधारा से हम खुद सहमत नहीं हैं, उनकी भी चीज़ें निष्पक्ष भाव से हम सहेज रहे हैं.

चंबल आर्काइव

शाह आलम के लिए ये सब करना इतना आसान नहीं था. अनगिनत लोगों ने उनसे तरह-तरह के सवाल किए. उन्हें ये समझाने की भी कोशिश की कि अब किताबों का दौर ख़त्म हो चुका है. लोग पढ़ना नहीं चाहते. लेकिन इन नकारात्मक बातों का कोई असर शाह आलम पर नहीं हुआ. वो अपनी कोशिशों में अकेले जुटे रहें. लेकिन अब शाह आलम को खुशी है कि सैकड़ों लोग मदद के लिए आगे आ रहे हैं और इस काम के लिए सराहना कर रहे हैं. 

वो बताते हैं कि, इस आर्काइव को बेतहर बनाने के लिए और भी शोध सामग्री तलाश की जा रही है. हमें जहां भी बौद्धिक संपदा मिलने की रोशनी दिखती है, तुरंत उन सुधी जनों से संपर्क कर रहे हैं. खुशी की बात यह है कि दुर्लभ दस्तावेज़, लेटर, गजेटियर, हाथ से लिखा कोई पुर्जा, डाक टिकट, सिक्के, स्मृति चिन्ह, समाचार पत्र, पत्रिका, पुस्तकें, तस्वीरें, पुरस्कार, सामग्री-निशानी, अभिनंदन ग्रंथ, पांडुलिपि आदि के संग्रहण के लिए हर दिन हमख्याल लोगों के दर्जनों फोन आ रहें है. इस ज्ञानकोष से चंबल आर्काइव समृद्ध और गौरवांवित होगा.

शाह आलम का इरादा इस आर्काइव को डिजीटल करने का भी है. वो बताते हैं कि अवध यूनिवर्सिटी के वाईस चांसलर साहब ने इसके लिए मदद का वादा किया है. आईआईटी कानपुर से पढ़े एक सज्जन भी इस काम में तकनीकी मदद के लिए सामने आए हैं. 

शाह आलम का कहना है कि, मुझे अब पूरा यक़ीन है कि चम्बल डकैतों के लिए नहीं, इस आर्काइव के लिए जाना जाएगा. अब इस चंबल घाटी में देश भर के शोधार्थियों के लिए शोध करने की खिड़की खुल गई है.

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