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क्या ये स्वच्छ भारत अभियान के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा नहीं है?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published June 27, 2018 1 View
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8 Min Read
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Umar Ashraf for BeyondHeadlines 

पटना : मानसून के दस्तक के साथ ही शहर में गटर, नाले और सीवर की सफ़ाई शुरु हो जाती है. और इसी के साथ शुरु होता है गटर साफ़ करने के दौरान मौतों का सिलसिला…

बिहार की राजधानी पटना में भी सफ़ाई का काम शुरू हो चुका है. शहर के आस-पास तमाम जगहों पर गटर में उतरे लोग हर जगह आसानी से दिख जाते हैं.

गांधी मैदान के पास मौजूद एक गटर में घुस कर पूरी टीम के साथ उसकी सफ़ाई कर रहे बिंदा माझी की उम्र क़रीब 60 साल है. बातचीत के दौरान वो बताते हैं कि पिछले कुछ सालों से वो ये काम कर रहे हैं. पहले कूड़ा बिनने का काम करते थे; फिर नगर निगम की एक स्कीम के तहत घर-घर जाकर कूड़ा उठाया करते थे; जहां उन्हें ठेके के हिसाब से 135 से 200 रुपया रोज़ाना मिल जाता था. पर इधर दो माह से उनका ठेकेदार ही पैसा लेकर भाग गया. और अब कोई ढंग का काम मिल नहीं रहा है, इसलिए परिवार चलाने के लिए गटर में उतरना पड़ रहा है.

पटना के चीना कोठी छज्जुबाग़ में मौजूद गटर साफ़ करने वाले एक पुर्व कर्मचारी सुरेश मलिक बताते हैं कि, पता नहीं मैंने कितने साल गटर की सफ़ाई का काम किया है. ये काम तो मुझे विरासत  में मिला था. पूरा बचपन और जवानी इसी काम में गुज़र चुका है, लेकिन अब मैं ये काम नहीं करता.

वो बताते हैं कि, पहले जब मैं खाना खाने के लिए अपना हाथ ऊपर उठाता था तो मुझे उससे भी नाले की बदबू आती थी. फिर भी खाना खाता था, क्योंकि मुझे ज़िंदा रहना था.

ठीक यही बात उनके साथ बैठे उनके साथी शिवनाथ मलिक भी कहते हैं. इन लोगों को सरकारी योजना का थोड़ा लाभ मिला जिस वजह इन्होंने सीधे गटर में उतरना छोड़ दिया है. क्योंकि इस ज़ोखिम भरे काम के लिए रोज़ 300 रुपये मज़दूरी भी नहीं मिलती थी.

वो कहते हैं कि, पहले इस काम की वजह से उन्हें कौलरा नामक बीमारी हुई, लोग उन्हें अछूत समझ दूर रहते थे. पर अब लोग उनसे मिलते हैं.

सरकारी योजनाओं के बारे में जानने के लिए जब हम बिहार महादलित विकास मिशन के पुर्व नोडल आफ़िसर उमेश मांझी से बात करते हैं तो वो सरकार की नियत पर ही सवाल उठा देते हैं.

वो कहते हैं —मैन्युअल स्कैवेंजर एक्ट बने पूरे पांच साल होने को है, पर आज तक कोई अंतर नहीं दिख रहा है. विधिवत तरीक़े से काम करने का ख़ाक़ा बनाया गया था, जिसके तहत हर महीने दो महीने का एक टास्क था, जिसे पुरा कर लोगों को मैन्युअल स्कैवेंजिंग से रोकना था. शुरुआती तौर पर किसी भी मैन्युअल स्कैवेंजर को काम छोड़ने के एवज़ में 40 हज़ार रुपये की सहायता राशि देनी थी; जिसे वो 2013 से 2016 के बीच में नोडल आफ़िसर रहते हुए बिहार के 137 लोगों के बीच वितरित करा चुके हैं, पर उसके बाद जो प्रावधान थे, उस पर कोई अमल नहीं हुआ है. ना ही उनके लिए रोज़गार के अवसर पैदा किए गए हैं और ना ही उन्हें आवास मुहय्या कराया गया है. मतलब कुल मिलाकर ये योजना ही विफ़ल है.

वो आगे बताते हैं कि, 2013 से 2016 के बीच बिहार महादलित विकास मिशन में नोडल आफ़िसर और प्रोजेक्ट मैनेजर की हैसियत से उन्होंने तक़रीबन 139 अरबन एरिया का सर्वे करवाया, जिसमे नगर निगम से लेकर पंचायत तक आते हैं, और वहां से 137 लोगों की पहचान की गई और इस पूरे प्रोसेस की जानकारी बिहार के समाजिक न्याय विभाग की वेबसाईट पर मैन्युअल स्कैवेंजर सर्वे के रूप में मौजूद है.

इस योजना के विफल होने के कारण पर वो कहते हैं कि, ये दुर्भाग्यपुर्ण है, पर जाति व्यवस्था ही इसका सबसे बड़ा कारण है. क्योंकि इस काम में एक ख़ास जाति के हीलोग हैं, इसलिए उन पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है. सरकारी अफ़सर सिर्फ़ सर पर मैला ढ़ोने को ही मैन्युअल स्कैवेंजिंग मानते हैं.

वो आग कहते हैं, आजकल हम लोग सैनिटेशन का मतलब सिर्फ़ शौचालय ही समझते हैं. मगर इसका बड़ा हिस्सा शहरों की सफ़ाई और सीवेज का ट्रीटमेंट है. स्वच्छता के ज़्यादातर विज्ञापन शौचालय को लेकर ही बने हैं. कचरा फेंकने को लेकर बने हैं. मगर, सफ़ाईकर्मियों की सुरक्षा, उनके लिए ज़रुरी उपकरणों का ज़िक्र कहीं नज़र नहीं आता.

यदि आंकड़ों की बात करें तो इंडिया स्पेंड पर छपी रिपोर्ट के अनुसार भारत में मात्र 30 प्रतिशत नालों का मैला पानी, जिसे हम सीवेज कहते हैं, ट्रीट होता है. 70 फ़ीसदी सीवेज का ट्रीटमेंट नहीं होता है.

2015 में सरकार के जारी आंकड़ों से पता चलता है कि भारत के शहरी क्षेत्रों में प्रतिदिन 62,000 मिलियन लीटर सीवेज पैदा होता है. मात्र 23, 277 मिलियन लीटर प्रतिदिन ही ट्रीट होता है. भारत में 816 म्यूनिसिपल सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट हैं, जिनमें से 522 ही काम करते हैं, वहीं बिहार मे म्यूनिसिपल सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट तो नाम मात्र के ही हैं.

बता दें कि 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने 1993 से नालियों की सफ़ाई के दौरान मारे गए कर्मचारियों के परिवारों को 10 लाख़ रुपये मुआवज़ा देने का फ़ैसला दिया था. लेकिन ज़्यादातर मृतकों के परिवारों को अभी तक कोई पैसा नहीं मिला है.

पटना निवासी विकास मित्र रंजन मांझी कहते हैं कि, पिछले साल 3 मई 2017 को पटना के दो सफ़ाई कर्मचारी सीवर की सफ़ाई करते वक़्त दम घुटने से मर गए; पर उनके परिजनों को आज तक केन्द्र सरकार से कोई मुआवज़ा नहीं मिला, बस विभाग से कुछ मदद ज़रूर मिला.

जब उनसे सवाल पूछा गया के इसके लिए ज़िम्मेदार किसको मानते हैं तो वो कहते हैं कि, आम लोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में ही इतना उलझे हैं कि उन्हें दोष नहीं दिया जा सकता है कि उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता. मगर जिस सिस्टम का काम है इन समस्याओं को देखना, क्या उसे फ़र्क पड़ रहा है? आख़िर अभी तक हम सीवेज में खुले बदन, बिना किसी सुरक्षा के उतरने का काम बंद क्यों नहीं कर पाएं? जहां तक मारे गए लोगों के परिजन, समाज मज़बूत है, संगठन सक्रिय है, वहां तो थोड़ा-बहुत न्याय मिल पा रहा है, वरना कोई सुनवाई नहीं है.

वो आगे कहते हैं जब तक सफ़ाई आयोग नहीं बनेगा, इंसाफ़ नहीं मिलेगा. आज़ादी से ले कर अब तक इस प्रथा को ख़त्म करने की ज़बानी कोशिश बहुत हुई है. क़ानून बने, लेकिन सब धरे के धरे रह गए हैं. क्या ये स्वच्छ भारत अभियान के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा नहीं है?

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