अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines
देश में शरिया कोर्ट को लेकर विवाद छिड़ा हुआ है. लेकिन ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड को ‘शरिया कोर्ट’ नाम से ही प्रॉब्लम है. बोर्ड का मानना है कि दारूल क़ज़ा को शरिया कोर्ट न कहा जाए.
ऑल इंडिया पर्सनल लॉ बोर्ड के दिल्ली के जामिया नगर स्थित हेडक्वार्टर में ऑफ़िस की ज़िम्मेदारी देखने वाले वक़ार लतीफ़ी का कहना है कि बोर्ड के अपने दारूल क़ज़ा हैं, जो 1993 से इस देश में चल रहे हैं.
वो बताते हैं कि, इस समय पूरे देश में बोर्ड के 60 दारूल क़ज़ा चल रहे हैं और जहां दूसरे मिल्ली जमाअतों के दारूल क़ज़ा हैं, वहां बोर्ड अपना दारूल क़ज़ा नहीं खोलता है.
दारूल क़ज़ा खोले जाने के प्रक्रिया के बारे में पूछे जाने पर बोर्ड के दारूल क़ज़ा के निगरां तबरेज़ आलम का कहना है कि, जहां लोगों को लगता है कि उनके यहां दारूल क़ज़ा खोले जाने की ज़रूरत है, वो बोर्ड को दरख़्वास्त देते हैं. फिर बोर्ड की तरफ़ से मैं वहां जाकर सारी स्थितियों को समझता हूं. अगर ज़रूरत महसूस होती है तो बोर्ड वहां अपना दारूल क़ज़ा क़ायम करती है. इसका खर्च वहां के स्थानीय लोग ही उठाते हैं.
वो ये भी बताते हैं कि बिहार, झारखंड, उड़ीसा, बंगलूरू और हैदराबाद में इमारत-ए-शरिया के दारूल क़ज़ा हैं. इसके अलावा अगर कहीं महकमा-ए-शरिया या दूसरी मुस्लिम जमाअतों के दारूल क़ज़ा पहले से मौजूद हैं तो बोर्ड वहां अलग से दारूल क़ज़ा नहीं खोल सकता.
बोर्ड से जुड़े लोगों का यह भी कहना है कि बोर्ड की ओर से दारूल क़ज़ा खोले जाने के संबंध में कोई बयान कहीं भी जारी नहीं किया गया है.
तबरेज़ आलम बताते हैं कि वो पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के रामपुर शहर में थे. वहां दैनिक जागरण के एक स्थानीय पत्रकार ने दारूल क़ज़ा खोले जाने के बारे में पूछा तो मेरा जवाब था, ‘जहां भी ज़रूरत होगी, बोर्ड वहां अपने बनाए गए नियम-क़ानून के तहत दारूल क़ज़ा खोल सकती है.’
लेकिन अगले दिन उन्होंने ये ख़बर कर दी कि बोर्ड हर जगह ‘शरिया कोर्ट’ खोलेगी. अगले दिन इसी ख़बर की बुनियाद पर एक अख़बार और कुछ चैनलों ने एडवोकेट ज़फ़रयाब जिलानी का बयान ले लिया और फिर ये ख़बर मीडिया की सुर्खी बन गई. बोर्ड की ओर से ऐसा कोई बयान जारी नहीं किया गया है.
दारूल क़ज़ा में किन मामलों का होता है निपटारा?
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने दारूल क़ज़ा के काम करने के संबंध में बताया है कि इसमें मर्दों की तरफ़ से इन मुतालबों के लिए दरख़्वास्त क़बूल की जाती हैं— (1) बीवी के रूख़्सती का मुतालबा (2) मुतालबा-ए-हक़े मीरास, वसीयत या हिबा (3) बच्चे की किफ़ालत का मुतालबा
वहीं इस दारूल क़ज़ा में औरतों की तरफ़ से इन मुतालबों के लिए दरख़्वास्त क़बूल की जाती हैं— (1) फ़स्ख़ निकाह का मुतालबा (2) खुला का मुतालबा (3) हक़-ए-ज़ौजियत का मुतालबा )4) मुतालबा-ए-नान व नफ़क़ा व हुस्ने मुआशरत (5) मेहर व दहेज़ के सामान के वापसी का मुतालबा (6) बच्चों की किफ़ालत और उसके खर्च का मुतालबा (7) मुतालबा-ए-हक़े मीरास, वसीयत या हिबा (8) मुतालबा-ए-तहक़ीक़ तलाक़ व निकाह
वो मामले जिसमें मर्द व औरत आपसी रज़ामंदी से दरख़ास्त दें तो क़बूल की जा सकती है. वो मामले इस प्रकार हैं — (1) कारोबार या ज़मीन जायदाद के झगड़े (2) शौहर की तरफ़ से कभी तलाक़ का मुक़दमा दर्ज नहीं किया जाता है, लेकिन अगर शौहर व बीवी दोनों आपसी सहमति से मिलकर दरख़्वास्त दें तो दारूल क़ज़ा से तलाक़-नामा बनाया जा सकता है. (3) दोनों के दरम्यान सुलह का मुतालबा
यहां ये भी स्पष्ट रहे कि दारूल क़ज़ा में फौजदारी मामलात नहीं लिए जाते हैं. यहां सिर्फ़ पारिवारिक मसले ही दर्ज किए जाते हैं. दारूल क़ज़ा की कार्रवाईयां बाज़ाब्ता और मुनज़्ज़म तरीक़े पर होती हैं. हर मामले का रिकार्ड तैयार किया जाता है और महफ़ूज़ रखा जाता है.
दारूल क़ज़ा कैसे काम करता है?
दारूल क़ज़ा में अर्ज़ी आने के बाद सबसे पहले उसमें ये देखा जाता है कि ये मामला दारूल क़ज़ा के लायक़ है या नहीं. लायक़ होने पर इसे क़बूल किया जाता है और फिर इस मामले को रजिस्टर में दर्ज किया जाता है. मामला दर्ज होने के बाद इसकी अलग से फ़ाईल बनाई जाती है.
इसके बाद दूसरे फ़रीक़ को इसके बारे में सूचना दी जाती है और कहा जाता है कि वो भी अपनी बातों को रखें. अगर दूसरे फ़रीक़ ने इस इंफोर्मेशन को लेने से इंकार कर दिया तो इस सूरत में पेशी की तारीख़ तय जाती है और उन्हें जाकर समझाया जाता है तो इंकार करना मसले का हल नहीं है, आप अपनी बात भी रखें. आपकी भी हर बात सुनी जाएगी.
पेशी के दिन क़ाज़ी के ज़रिए सबसे पहले एक हाज़िरी फ़ॉर्म पर दस्तख़त करवाया जाता है, जिसमें वो ये लिखते हैं कि आज मैं फलां दारूल क़ज़ा में हाज़िर हुआ हूं, क़ाज़ी साहब से गुज़ारिश है कि मेरे मामले की सुनवाई कर ली जाए. क़ाज़ी साहब का जो भी फैसला होगा, मुझे बखूशी मंज़ूर होगा. इसके बाद क़ाज़ी इस्लाम की रोशनी में अपनी बातों को रखते हैं. रिश्तों की अहमियत को बताते हैं यानी क़ाज़ी की पूरी कोशिश इस बात की होती है कि किस तरह से ये रिश्ता बाक़ी रहे. अगर दोनों साथ रहने को आमादा हो गए तो सुलहनामा बना दिया जाता है और अगर राज़ी न हुए तो क़ाज़ी उन्हें सोचने-समझने का वक़्त देते हैं. और फिर भी दोनों राज़ी नहीं हुए और क़ाज़ी व दूसरे गवाहों को भी ये कंफर्म हो गया कि इस मसले का कोई रास्ता नहीं है तब ऐसी स्थिति में क़ाज़ी शौहर को समझाते हैं कि वो लड़की को उसका मेहर, तमाम दहेज़ में मिले सामान आदि को लौटाते हुए तलाक़ दे दे.
अगर शौहर इस पर राज़ी न हो तो लड़की से पूछा जाता है कि क्या वो तलाक़ के बदले अपने मेहर वग़ैरह माफ़ करने पर राज़ी है? अगर वो राज़ी होती है तो लड़के से पूछा जाता है कि क्या वो मेहर वगैरह के बदले तलाक़ या खुला देने पर राज़ी है? अगर वो राज़ी हो तो खुला-नामा बना दिया जाता है.
अगर यहां भी दोनों फ़रीक़ किसी भी चीज़ पर मुत्तफ़िक़ न हो और क़ाज़ी की सारी कोशिशें नाकाम साबित हो जाएं तो क़ाज़ी ज़िम्मेदार लोगों की एक कमिटी बनाकर दोनों ओर के लोगों के बयान लेते हैं. इसमें थोड़ा वक़्त लगता है, लेकिन बिला वजह देरी नहीं की जाती है. और फिर इन बयानों के आधार पर फैसले लिए जाते हैं. अगर इस फ़ैसले से भी किसी को कोई समस्या हो तो इस फैसले के अगले 90 दिनों तक इस फैसले के ख़िलाफ़ अपील कर सकता है. अब बोर्ड के अध्यक्ष इस मामले को देखते हैं. इसके अलावा दोनों फ़रीक़ के सामने अदालत जाने का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है. अदालत बराहे रास्त क़ाज़ी से किसी भी तरह का जवाब तलब करता है या रिकार्ड मांगता है तो क़ाज़ी इसे कोर्ट में पेश करता है, ज़रूरत पड़ने पर कोर्ट में अपना बयान देता है, लेकिन जब तक कोर्ट से डायरेक्ट क़ाज़ी को कोई हिदायत न मिले क़ाज़ी कोर्ट में किसी भी फ़रीक़ की तरफ़ से वज़ाहत के लिए नहीं जाते.
