अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines
मुझे नहीं मालूम कि ये शुजात बुख़ारी का आख़िरी इंटरव्यू है. हो सकता है कि उन्होंने मेरे इस इंटरव्यू के बाद भी किसी और से भी अपने व्यक्तिगत तजुर्बे पर बात की हो. अपने बारे में बताया हो. कश्मीरी मीडिया के हालात बयान किए हों. लेकिन हां! मुझे उनकी ये बात ज़रूर याद है कि —‘पत्रकार इंटरव्यू देते नहीं, लेते हैं…’
जनवरी की कंपा देने वाली ठंड… जब श्रीनगर में बर्फ़ गिरने शुरू हो चुके थे. इस ठिठुरती हुई शाम हम शुजात साहब से बातचीत में मशगूल थे. उनकी बातें इतनी अहम थीं कि मैं उन्हें सदा के लिए सहेज लेना चाहता था.
मेरे बार-बार की जिद के आगे शायद वो कमज़ोर ज़रूर हुए, लेकिन हार मानने को तैयार नहीं थे. उन्होंने मुस्कुरा कर मेरे लिए चाय की प्याली और कुछ खाने की चीज़ें मंगाईं और ये कोशिश की कि मैं इन बातों को यहीं भूल जाऊं और वीडियो बनाने की बात छोड़ दूं. लेकिन फिर उन्हें लगा कि शायद मैं हार मानने वालों में से नहीं हूं तो उन्होंने कहा कि बना लो वीडियो. बस मैंने मोबाईल का कैमरा ऑन किया और उन्होंने अपने बारे में बताना…
शुजात साहब ने जितनी बातें इस वीडियो में की हैं, इससे कई गुना अधिक बातें इस वीडियो के बनाने से पहले व बाद में हुई. उन्होंने इस बातचीत में बताया था कि उनके 13 साथी कश्मीर में रिपोर्टिंग करते हुए अपनी जान गंवा चुके हैं. मेरे दिल व दिमाग़ में ख़्याल आया कि क्यों न शहीद होने वाले इन 13 पत्रकारों की कहानी की जाए. कश्मीर के जर्नलिज़्म पर कुछ काम किया जाए. मेरे इस ख़्याल पर शुजात साहब थोड़ी सी खुशी, शायद खुशी तो नहीं कह सकते, लेकिन बहुत हद तक सहमति ज़रूर कहा जा सकता है. यानी उन्होंने यह सहमति ज़रूर दिया कि हां, इस पर ज़रूर काम किया जाना चाहिए, बल्कि इस पर इतना कुछ मौजूद है कि आप एक किताब भी ला सकते हैं.
मुझे याद है कि उनका ये भी आईडिया था कि ये सबकुछ हिन्दी में लिखा जाए तो बेहतर होगा. ताकि हिन्दी के पत्रकार भी कश्मीर में पत्रकारिता के हालात से रूबरू हो सकें.
उन्होंने ये भी कहा था कि आप इसके लिए अगली बार थोड़ा वक़्त लेकर आएं. तब मैं उन 13 पत्रकारों की कहानी आपसे बताने की कोशिश करूं. आपको उनके घर भी भेजूंगा. बल्कि आपको इसके लिए और भी पत्रकारों से मिलना होगा.
उन्होंने कई पत्रकारों के नाम भी बताए. जिनमें से कईयों से मैंने उसी वक़्त मुलाक़ात भी की थी. कुछ के वीडियो भी मेरे पास मौजूद हैं. हम कोशिश करेंगे कि BeyondHeadlines के इस प्लेटफ़ॉर्म के ज़रिए आप तक वो वीडियो पहुंचाया जाए.
और हां! जब भी मौक़ा मिला, उनके सुझाव पर ज़रूर काम करूंगा. असल में मेरी शुजात साहब को यही असल श्रद्धांजलि होगी. चाहे जितने भी जर्नलिस्ट जो कश्मीर में या कश्मीर पर काम कर रहे हों, उन सब से मिल लूं तो भी शुजात साहब जैसी शख़्सियत शायद ही मिलेगी. उनकी सादगी और साफ़ अल्फ़ाज़ों में अपनी बात रखने का हुनर मुझे हमेशा याद रहेगा.
सच तो ये है कि मुझे अब भी यक़ीन नहीं हो रहा है कि शुजात साहब अब हमारे बीच नहीं हैं. बहुत जल्दी कर दी उन्होंने जाने में. शायद मेरी एक ‘कहानी’ शुरू होने से पहले ख़त्म हो चुकी है. अल्लाह उन्हें जन्नतुल फ़िरदौस में आला मुक़ाम अता करे…
