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जल संरक्षण की दिशा में जनमैत्री की अनोखी पहल…

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published July 12, 2018 2 Views
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10 Min Read
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By Pankaj Singh Bisht

क़ुदरत ने पृथ्वी को कई अनमोल नेमतों से नवाज़ा है. इसमें सबसे बड़ी नेमत पानी को ही माना जाता है. पानी के बिना आप कितने दिन खुद का बजूद बनाए रख सकते हैं? ज़रा कल्पना करके देखिए.

कल्पना मात्र से ही गला सूखने लगता है. लेकिन जल्द ये डरावना ख़्वाब हक़ीक़त में बदलने वाला है. एक तिहाई पानी से ढ़के इस धरती पर बहुत जल्द पीने के पानी की क़िल्लत शुरू होने वाली है.

दक्षिण अफ़्रीक़ा में इसका असर नज़र आने लगा है, जहां इस समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया था. भारत भी इससे अछूता नहीं है. 

हाल ही में शिमला में भी पीने के पानी की क़िल्लत ने इस गंभीर ख़तरे की ओर इशारा किया है. 

वैसे तो यह समस्या पूरे देश और दुनिया की है, जो वर्तमान में और भी गंभीर और डरावनी होती जा रही है.

हालांकि जल संरक्षण के लिए भारत समेत दुनिया भर में गंभीरता से प्रयास किए जा रहे हैं. जिसे व्यापक स्तर पर विस्तार करने की आवश्यकता है.

 

पहाड़ों के प्रदेश उत्तराखंड में भी पानी की समस्या धीरे-धीरे अपना असर दिखा रही है. हालांकि इस राज्य में कई बड़ी-छोटी नदियां निकलती हैं. जिन्हें कई सहायक नदियां और हज़ारों-हज़ार छोटी-छोटी जल-धरायें जीवन प्रदान करती हैं. लेकिन इसके बावजूद यहां जल संकट अपनी चरम सीमा पर है.

कुल 53483 वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में फैले इस राज्य का 43035 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर्वतीय क्षेत्र है, जो कुल क्षेत्रफल का लगभग 80 प्रतिशत है.

एक आंकड़े के आधार पर इस राज्य के लगभग 64 प्रतिशत भूभाग पर जंगल है, जिनका क्षेत्रफल लगभग 34650 वर्ग किलोमीटर है.

ऐसे में यहां पानी की समस्या पैदा होना चिंता का विषय है. पहाड़ी क्षेत्र में लोग स्वयं और अपने मवेशियों हेतु पेयजल प्राप्त करने के लिए नालों, धारों, गधेरों और छोटी नदियों पर निर्भर हैं. जिन्हें भूमिगत जल धाराओं से पानी मिलता है. लेकिन आज इन सभी का अस्तित्व ख़तरे में है. जिसके कारण पेयजल का गंभीर संकट पैदा हो गया है.

 इस समस्या को गहराई से समझने के लिए हमें कुछ वर्ष पूर्व के समय की स्थिति को समझना होगा. 

9 नवम्बर 2000 को उत्तरांचल नाम से गठित यह राज्य पूर्व में उत्तर प्रदेश का हिस्सा था. अधिकतर क्षेत्र में कृषि कार्य किया जाता था. पहाड़ी राज्य की अवधारणा से जन्में इस राज्य के गठन के बाद यहां तेज़ी से परिवर्तन आए. अनियंत्रित और अनियोजित विकास ने यहां के पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया.

यहां की नदियों को बांध कर बड़े-बड़े बांधों का निर्माण करने के प्रयास तो 80 के दशक से ही प्रारंभ हो गए थे. अलग राज्य बनने के बाद उनमें और तेज़ी आ गई. बेतहाशा सड़कों के निर्माण के दौरान गरजती भारी मशीनों और पहाड़ों को तोड़ने के लिए प्रयुक्त डायनामाईट के धमाकों ने भूमिगत जल-धाराओं की दिशा और वेग को भारी नुक़सान पहुंचाया.

पर्यावरणीय बदलाव के कारण वर्षाचक्र गड़बड़ा गया, जिसके कारण भूमिगत जल स्रोत रिचार्ज नहीं हो पा रहे हैं. आज हालात यह हैं कि ऐसी नदियां, गाड़ और गधेरे जिन्हें भूमिगत प्राकृतिक जल धाराओं से पानी मिलता था, सूखने की कगार पर हैं.  

इसका दूसरा प्रमुख कारण यहां के जलागम क्षेत्रों के आसपास की कृषि भूमि का स्थानीय निवासियों द्वारा बिल्डरों को बेचना है. जहां पर उनके द्वारा बड़ी-बड़ी कॉन्क्रिट की बिल्डिंग और कोठियां बनाई जा रही हैं.

उनके द्वारा या तो स्थानीय प्राकृतिक संसाधनों और जल स्रोतों में क़ब्ज़ा कर लिया गया है या फिर उन्हें नुक़सान पहुंचाया गया है. जिससे समस्या और भी गंभीर हो गई है.

आलम यह है कि ग्रामीण क्षेत्रों में पेयजल के लिए बिछाई गई सरकारी पाइपलाईन या तो सूखी पड़ी हैं, या उनमें हफ़्तों या महीनों में कभी-कभार पानी आता है.

 नैनीताल जनपद के धारी विकास खण्ड मुख्यालय से महज़ 3 किलोमीटर दूरी पर रहने वाले युवा गणेश बिष्ट का कहना था कि, “मेरे घर के सामने ही कुछ दूरी पर कलसा नदी बहती है जिसमें आज से लगभग 10 वर्ष पूर्व तक पर्याप्त पानी रहता था. लेकिन कुछ समय से यह कम होता गया और आज स्थिति यह है कि आसपास के सैकड़ों गांव के लोगों की यह लाइफ़ लाइन सूखने के कगार पर है.”

गणेश आगे कहते हैं कि “चाहे कोई कुछ भी माने, आज के युग में पानी सबसे बड़ी चिंता का विषय है.”

वहीं अल्मोड़ा जनपद के लमगड़ा विकास खण्ड के देवली गांव के निवासी हेमंत कार्की कहते हैं कि “मैं व्यवसाय के चलते हल्द्वानी शहर में रहता हूं. पिछले दिनों गांव जाना हुआ तो पानी की हालत देखकर दंग रह गया. चारों तरफ़ जंगलों में आग लगी हुई थी. गांव के पानी के स्रोत सूखने की कगार पर हैं. इस गंभीर समस्या का सबसे अधिक सामना गांव की महिलाएं कर रही हैं, जिन्हें पानी लाने के लिए पैदल दूर जाना पड़ रहा है.

 इसी समस्या को देखते हुए नैनीताल जनपद के रामगढ़ और धारी जनपद के कुछ युवाओं ने जल संरक्षण को लेकर एक अनोखी मुहिम छेड़ी है. जो ऐसे गंभीर समय पर आशा की किरण के समान है.

इन युवाओं ने जनमैत्री नाम का सामाजिक संगठन बनाकर जल संरक्षण की अलख को जगाने का काम किया है, जिसमें सामुदायिक सहभागिता से रामगढ़ के गल्ला और पाटा गांव में लोगों को जल संरक्षण के प्रति जागरूक किया गया है और इसका सकारात्मक परिणाम भी सामने आया है.

इसके लिए ज़मीन में गढ्डे खोद कर, उनकी लिपाई के बाद पॉलिथीन की सहायता से वर्षा जल और उपलब्ध भूमिगत जल को संरक्षित करने का कार्य किया गया है.

इन परिवारों ने लगभग पन्द्रह लाख लीटर पानी को संरक्षित किया, जिसका उपयोग पशुओं के पेयजल, कृषि और बागवानी कार्य में किया जा रहा है. जिससे इन गांवों में अन्य गांवों की अपेक्षा जल संकट का प्रभाव कम हुआ है. साथ ही फ़सल के उत्पाद में 30 से 40 प्रतिशत की बढ़ोतरी भी हुई. 

संगठन के एक सदस्य बची सिंह बिष्ट कहते हैं कि, इस उपलब्धि के बाद किसानों में गजब का उत्साह है. उनकी सफलता की गाथा अब दूर-दूर तक सुनाई देने लगी है. कुछ विदेशी अनुसंधानकर्ता इसका अध्ययन भी करने आए हुए हैं.

उन्होंने बताया कि हम इस मुहिम को और विस्तार देने की योजना पर काम कर रहे हैं. हम चाहते हैं कि लोग पानी की हर बूंद को थामें और उसका उपयोग करें.

जनमैत्री संगठन से जुड़े प्रगतिशील पर्वतीय कृषक एवं बागवानी प्रशिक्षक महेश गलिया कहते हैं कि, “जल संरक्षण की मुहिम का परिणाम यह हुआ है कि क्षेत्र के अन्य गांवों की अपेक्षा जिन गांवों में जल संरक्षण किया गया था, वहां फलदार पौधों में फल भी अच्छी साइज़ और मात्रा में है. क्योंकि उस संरक्षित जल से किसानों ने अपने बगीचों में फल के पेड़ों के नीचे लगी मटर की फ़सल में सिंचाई की थी. जिसकी नमी का लाभ फलदार पेड़ों को भी मिला.”  

अब अगर संगठित होकर जल संरक्षण एक मुहिम बन उठे तो बात ही कुछ और बन पड़ेगी. क्योंकि यह समस्या हम सभी की है और हम सब को मिलकर ही इसका निदान करने की आवश्यकता है.

 सरकारी ख़जाने से प्रत्येक वर्ष विकास के नाम पर एक बड़ी धनराशि व्यय होती है. किन्तु बहुत बड़ा दुर्भाग्य है कि, हमारे समाज की निष्क्रियता, आमजनों में जागरुकता का अभाव, जन-प्रतिनिधियों की अनदेखी और योग्य व्यक्तियों का मौन किसी भी क्षेत्र के विकास की परिकल्पना को धरातल पर मूर्त रूप देने से पहले ही समाप्त कर देता है. परिणामस्वरूप सरकार की योजनाओं का लाभ आम आदमी को नहीं मिल पाता है. 

यदि सरकार जल संरक्षण की दिशा में वास्तव में कुछ करना ही चाहती है, तो सबसे पहला क़दम यह हो कि ‘पहाड़ के पानी‘ को पहाड़ के लिए काम में लाया जाए. इसके लिए आस-पास के नदी-नालों में लघु बांधों का निर्माण किया जाना चाहिए, जिससे स्थानीय किसानों को सिंचाई के लिए पर्याप्त मात्रा में पानी उप्लब्ध हो सके.

पानी की इस गंभीर समस्या के प्रति यदि समुदाय और सरकारें समय पर नहीं जागी तो वह दिन दूर नहीं जब इंसान पानी के लिए एक दूसरे के खून का प्यासा हो जाएगा. इस बात को इस छोटे से पहाड़ी राज्य के लोगों ने तो बख़ूबी समझ लिया है. ज़रूरत है हम सबको भी ऐसे ही सकारात्मक पहल करने की, क्योंकि बूंद-बूंद से ही सागर बनता है. (चरखा फीचर्स)

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