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सत्ता के चरम अहंकार के दौर में कुलदीप नैयर का नहीं रहना कितनी बड़ी त्रासदी?

Beyond Headlines
Beyond Headlines Published August 23, 2018
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7 Min Read
(Photo Credit : Afroz Alam Sahil)
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अफ़रोज़ आलम साहिल, BeyondHeadlines

मैं ‘दयानंद घाट इलेक्ट्रिक दाहगृह मुक्ति धाम’ पर खड़ा स्तब्ध था. कुलदीप नैयर हमारे बीच नहीं रहे. राजनीति, पत्रकारिता और समाज के दिग्गज यहां जमा थे. सबकी आंखों में कुछ बड़ा खो देने की कसक थी. क्या बुजुर्ग, क्या जवान सभी की आंखें नम थीं. सत्ता के चरम अहंकार के दौर में कुलदीप नैयर का नहीं रहना कितनी बड़ी त्रासदी है, ये वहां खड़े होकर आसानी से समझा जा सकता था.    

लोग उनकी पत्रकारिता के दौर को याद कर रहे थे. सत्ता व विपक्ष दोनों के नेता वहां मौजूद थे. कुलदीप नैयर के प्रति ऋद्धा रखने वाले युवा पीढ़ी के भी कई पत्रकार इस ‘अंतिम विदाई’ का हिस्सा थे. पूरे वातावरण में एक शून्य तैर रहा था…

दरअसल, मुल्क के बंटवारे के बाद ‘उस पार’ से दो ‘खेमों’ के लोग आएं. एक खेमे के कामों से मुल्क में नफ़रतों की दीवारें ऊंची हुईं. हिन्दू-मुस्लिम के रिश्तों में दरारें आईं, लेकिन वहीं दूसरे खेमे ने मुहब्बत की शमा को जलाए रखा. हमेशा हिन्दू-मुस्लिम एकता और हिन्द-पाक की दोस्ती की बात करता रहा. अगर इस खेमे में शामिल लोगों की बात की जाए तो इसमें मनमोहन सिंह, राजेन्द्र सच्चर और कुलदीप नैयर के नाम प्रमुखता से लिए जा सकते हैं. लेकिन इन तीन ‘चिराग़ों’ में से एक ‘चिराग़’ पहले ही बुझ चुका था, और एक चिराग़ आज बुझ गया. अब बस तीसरा ‘चिराग़’ मनमोहन सिंह बचे हुए हैं. आज उनकी आंखों में आंसू देखने लायक़ थी…  

(Photo Credit : Afroz Alam Sahil)

कुलदीप नैयर से मेरा अपना भी परिचय था. मैं उनके साथ बिताए लम्हों को याद कर रहा था और सोच रहा था कि उनके बाद उनकी विरासत का क्या होगा.

पत्रकारिता का स्टूडेन्ट होने के नाते कुलदीप जी से परिचित होना स्वभाविक था. लेकिन उन्हें क़रीब से जानने का अवसर मुझे तब प्राप्त हुआ, जब मैं सूचना के अधिकार अभियान से जुड़ा. इस दौरान उनसे कई बार मिलने और बातचीत करने का अवसर भी प्राप्त हुआ. जब मैंने अपने कॉलेज के प्रोजेक्ट के रूप में ‘सूचना के अधिकार और मीडिया’ पर रिसर्च करने की बात कही थी तो वो काफ़ी खुश हुए थे और मेरी काफ़ी हौसला-अफ़ज़ाई भी की थी. उन्होंने मुझे यह भी सलाह दी थी कि इस अधिकार का ज़्यादा से ज़्यादा इस्तेमाल पत्रकारिता के लिए करूं.

सच पूछें तो सूचना के इस अधिकार को देश में नाफ़िज़ कराने में एक अहम रोल कुलदीप नैयर जी का ही रहा है. वो आरंभ से ही इसके तमाम आंदोलनों से जुड़े रहे और लिखते रहे, और जितना उन्होंने इस अधिकार पर लिखा, शायद ही किसी ने इतना लिखा हो…

(Photo Credit : Afroz Alam Sahil)

मुझे याद है कि कुछ महीनों पहले एक कार्यक्रम में छोटी सी मुलाक़ात के दौरान ‘आरटीआई को लेकर मौजूदा सरकार का रवैया’ को लेकर उनका विचार जानने की कोशिश की तब उन्होंने अपना व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए बताया कि ‘1962 के युद्ध में भारत की शर्मनाक हार के कारणों का पता लगाने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया था. मैंने जब आरटीआई के तहत इस कमेटी की रिपोर्ट मांगी तो सरकार की ओर से जानकारी नहीं दी गई. मामला केंद्रीय सूचना आयोग तक पहुंचा जहां से फैसला सरकार के पक्ष में आया.’

उन्होंने ये भी बताया था कि, ‘फिलहाल यह मामला हाईकोर्ट में है और उन्हें वहां से कोई ख़ास उम्मीद नहीं है. अब सुप्रीम कोर्ट जाने की तैयारी कर रहा हूं.’

उनका कहना था —‘सरकार खौफ़ में है, सरकार को सूचना के अधिकार की ताक़त का अहसास हो गया है. पहले जनता ने इस अधिकार को पाने के लिए संघर्ष किया था, लेकिन अब इस अधिकार को बचाने के लिए दोबारा संघर्ष करना पड़ेगा.’

और भी कई यादें और बातें कुलदीप जी के साथ जुड़ी हुई हैं. उनकी एक किताब भी आने वाली थी, जिसका नाम है — ‘जिन्ना से लेकर मोदी तक’, लेकिन पता नहीं उनकी ये किताब किस प्रकाशक के पास है और कब तक आएगी, लेकिन मैं समझता हूं कि ये किताब जल्द से जल्द आनी बहुत ज़रूरी है.

(Photo Credit : Afroz Alam Sahil)

दरअसल, पत्रकारिता के सितारे कुलदीप नैयर ने अपनी क़लम की शुरूआत उर्दू पत्रकारिता से की. उर्दू को नैयर साहब एक ऐसी मीठी ज़बान समझते रहे, जिसके भीतर इस मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब कूट-कूट कर भरी हुई थी.

वो इस बात को कई प्रोग्रामों में बता चुके हैं कि, “मेरा आग़ाज़ ही ‘अंजाम’ से हुआ है!” दरअसल, ‘अंजाम’ दिल्ली के बल्लीमारान से निकलने वाला वही उर्दू अख़बार है, जिससे कुलदीप नैयर साहब ने अपनी पत्रकारिता शुरूआत की थी.

वो अक्सर ये भी बताते थे कि हसरत मोहानी की सलाह पर मैंने अंग्रेज़ी पत्रकारिता में क़दम रखा, क्योंकि उन्होंने ही कहा था कि उर्दू का भारत में कोई भविष्य नहीं.

अंग्रेज़ी पत्रकारिता का हिस्सा बनने के बावजूद उनका लगाव उर्दू से ज्यों का त्यों बना रहा. नए पत्रकारों को प्रोत्साहित करने में उनका कोई सानी नहीं था. मैं खुद इस बात का गवाह हूं कि उन्होंने कितने जतन और बड़कपन के साथ मुझे आरटीआई और पत्रकारिता की दिशा में काम करने की प्रेरणा दी. कई महत्वपूर्ण सुझाव दिए. आने वाली चुनौतियों को एक झोंके में सामने रख देना और उनका समाधान भी बता देना, ये उनकी सबसे बड़ी ख़ासियत थी.

(Photo Credit : Afroz Alam Sahil)

आज पत्रकारिता का जो ‘संक्रमण-काल’ चल रहा है, उसमें कुलदीप नैयर एक मशाल की तरह थे. वो मशाल जो अंधेरों में डूबने नहीं देती है. रास्ता दिखाती है और अटकने से बचाती है.

क़रीब 95 साल उम्र होने के बावजूद वे आख़िरी दम तक सक्रिय रहे. मुझ जैसे नए पत्रकारों को कुछ नया हासिल करने की प्रेरणा देते रहें. सत्ता के ख़िलाफ़ खड़े होने की ताक़त उनके रग-रग में थी. उसी ताक़त को वे हमारी पीढ़ियों को विरासत के तौर पर सौंप गए हैं. सत्ता के अहंकार को आईना दिखाना और जन-सरोकार की पत्रकारिता ही उन्हें सच्ची ऋद्धांजलि होगी…

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